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नदियों को जोड़ने के फायदे,  सूखा और बाढ़ की समस्या मिलेगी निजात

raghvendra
Published on: 1 Jun 2018 5:39 PM IST
नदियों को जोड़ने के फायदे,  सूखा और बाढ़ की समस्या मिलेगी निजात
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प्रदीप श्रीवास्तव

बुंदेलखंड के सूखे इलाके को हराभरा करने के लिए केंद्र सरकार ने नदी जोड़ परियोजना का पहला चरण शुरू कर दिया हैं। इसकी सफलता देश की 30 नई नदी जोड़ परियोजनाओं की नींव रखेगी, जिससे संपूर्ण भारत नदियों के मामले में एक-दूसरे से जुड़ जाएगा। यह परियोजना देश से न सिर्फ सूखा और बाढ़ की समस्या को जड़ से खत्म कर देगी बल्कि जल यातायात के नए अध्याय की शुरुआत भी करेगी। परियोजना के तहत देश में हजारों नहरों का जाल बिछेगा, जिससे 15 करोड़ हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई हो सकेगी। गंगा और ब्रह्मपुत्र आदि बड़ी नदियों के इलाके में हर साल बाढ़ की समस्या से भी निजात मिलेगी क्योंकि अतिरिक्त पानी को इस्तेमाल करने की एक व्यवस्था मौजूद होगी। इससे 34 हजार मेगावॉट बिजली बनेगी।

नदी जोड़ परियोजना का प्रारूप पहली बार ब्रिटिश राज के इंजीनियर सर आर्थर कॉटन ने 1858 में बनाया था। उनकी सोच थी कि नदियों को जोडऩे के लिए बनाए गए नहरों के विशाल जाल से सभी नदियां आपस में जुड़ जाएंगी, जिससे पानी के रास्ते कच्चे माल का आयात-निर्यात आसान हो जाएगा। साथ ही एक ही वक्त पर कहीं सूखे और कहीं बाढ़ की समस्या से निपटा जा सकेगा। कॉटन ने ही देश में कावेरी, कृष्णा और गोदावरी पर कई बांध और बड़ी सिंचाई परियोजनाओं की नींव रखी थी। सीमित संसाधनों, भारी निवेश व एक काल्पनिक परियोजना के कारण इसे ज्यादा समर्थन नहीं मिला और यह योजना आगे नहीं बढ़ सकी। देश के आजाद होने के साथ ही 1970 में तत्कालीन सिंचाई मंत्री केएल राव ने एक राष्टï्रीय जल ग्रिड बनाने का प्रस्ताव दिया।

प्रस्ताव के अनुसार गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियों की घाटी में ज्यादा पानी रहता है, जबकि मध्य और दक्षिण भारत के इलाकों में पानी की कमी रहती है। ऐसे में अगर उत्तर भारत का अतिरिक्त पानी मध्य और दक्षिण भारत तक पहुंचाया जाए तो वहां के सूखे की समस्या समाप्त हो जाएगी। उन्होंने गंगा कावेरी नहर योजना भी बनाई। इसके तहत ढाई हजार किलोमीटर से ज्यादा लंबी नहर के जरिये गंगा के करीब 50 हजार क्यूसेक पानी को साढ़े पांच सौ मीटर ऊंचा उठाकर दक्षिण भारत की तरफ ले जाया जाना था, लेकिन केंद्रीय जल आयोग ने इस योजना को खारिज कर दिया। आयोग का मानना था कि यह योजना आर्थिक व तकनीकी रूप से अव्यावहारिक है। एक लंबी चुप्पी के बाद सन 1980 में नदी जोड़ परियोजना पर चर्चा फिर शुरू हुई। भारत के जल संसाधन मंत्रालय ने एक रिपोर्ट तैयार की जिसमें ज्यादा व्यावहारिक कार्ययोजना बनाते हुए नेशनल परस्पेक्टिव फॉर वाटर रिसोर्सेज डेवलपमेंट नामक इस रिपोर्ट में नदी जोड़ परियोजना को दो हिस्सों में बांटा गया था। पहला हिमालयी इलाका और दूसरा प्रायद्वीप यानी दक्षिण भारत का इलाका।

1982 में इस योजना को अमली जामा पहनाने के लिए नेशनल वाटर डेवलपमेंट एजेंसी का गठन किया गया जो विशेषज्ञों की संस्थान थी और जिसका काम नदियों को जोडऩे के काम का व्यावहारिक अध्ययन करना था, लेकिन इसकी रिपोर्ट ठंडे बस्ते में डाल दी गई। बाद में 2002 में नदी जोड़ परियोजना की उपयोगिता पर एक बार फिर बहस शुरू हो गई क्योंकि इस साल देश में भयंकर सूखा पड़ा था। केंद्र की पहल पर एक बार फिर कार्य दल का गठन किया गया जिसका काम नदी जोड़ परियोजना की व्यावहारिता की जांच करना था। इसने भी अपनी रिपोर्ट में परियोजना को दो भागों में बांटकर पूरा करने की सिफारिश की।

पहले भाग में दक्षिण भारत की नदियों को जोडक़र 16 कडिय़ों की एक ग्रिड बनाई जानी थी, जबकि हिमालीय भाग में गंगा, ब्रह्मपुत्र और इनकी सहायक नदियों के पानी को इक_ा करने की योजना बनाई गई। इनका पानी सिंचाई और बिजली पैदा करने के लिए इस्तेमाल में लाया जाता, लेकिन 2004 में सरकार बदलते ही योजना ठप हो गई। 2012 में एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नदी जोड़ परियोजना को लागू करने का निर्देश दिया। साथ ही इस योजना की निगरानी के लिए एक उच्चस्तरीय समिति का गठन भी किया। केन बेतवा लिंक की सफलता नई इबारत लिखेगी। नदी जोड़ परियोजना के तहत देश में 30 परियोजनाएं परवान चढ़ेंगी। इन पर करीब छह लाख करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है।

केन नदी जबलपुर के पास कैमूर की पहाडिय़ों से निकलकर 427 किमी उत्तर की ओर बहने के बाद बांदा जिले में यमुना नदी में जाकर गिरती है। बेतवा नदी मध्य प्रदेश के रायसेन जिले से निकलकर 576 किमी बहने के बाद उत्तर प्रदेश के हमीरपुर में यमुना नदी में मिलती है। लगभग 10 हजार करोड़ की लागत से बनने वाले केन-बेतवा लिंक में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के हिस्से शामिल हैं। इस परियोजना के तहत मध्य प्रदेश से केन नदी के अतिरिक्त पानी को 231 किमी लंबी एक नहर के जरिये उत्तर प्रदेश में बेतवा नदी तक लाया जाएगा। परियोजना को पूरा करने के लिए नहरों एवं बांधों के लिए जमीन अधिग्रहण शुरू हो चुका है, इससे डूब क्षेत्र भी तैयार हो रहा है।

नदी जोड़ परियोजना के हिमायतियों का कहना है कि देश में अकाल की समस्या का स्थायी हल निकल जाएगा। पूरे देश में लागू होने के बाद 15 करोड़ हेक्टेयर जमीन पर सिंचाई हो सकेगी। गंगा और ब्रह्मपुत्र आदि बड़ी नदियों के इलाके में हर साल बाढ़ की समस्या से भी निजात मिलेगी क्योंकि अतिरिक्त पानी को इस्तेमाल करने की एक व्यवस्था मौजूद होगी। इससे 34 हजार मेगावॉट बिजली बनेगी। मध्य प्रदेश व उत्तर प्रदेश की सरकारों का दावा है कि यदि नदियां परस्पर जुड़ जाती है तो मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के सूखाग्रस्त बुन्देलखण्ड क्षेत्र में रहने वाली 70 लाख आबादी खुशहाल हो जाएगी।

केन-बेतवा नदी जोड़ो योजना की राष्टï्रीय जल विकास प्राधिकरण की रिपोर्ट के अनुसार डोढऩ गांव के निकट 9000 हेक्टेयर क्षेत्र में एक बांध बनाया जाएगा। इसके डूब क्षेत्र में छतरपुर जिले के बारह गांव आएंगे। पांच गांव आंशिक व सात गांव पूर्ण रूप से डूब जाएंगे। इस क्षेत्र के 7000 लोग प्रभावित व विस्थापित हो जाएगा। विस्थापन और पुनर्वास के लिये 213.11 करोड़ रुपए की आर्थिक मदद की जरूरत पड़ेगी जिसके मिलने की उम्मीद केन्द्र सरकार से की जा रही है।

राज्यों के बीच पानी के बंटवारे को लेकर लंबं समय से विवाद चल रहा है। सतलुज-यमुना लिंक नहर का मुद्दा कई दशकों से अदालती पेंच में उलझा हुआ है। 1981 में पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और राजस्थान के बीच पानी के बंटवारे को लेकर एक समझौता हुआ था। इसके तहत पंजाब को सतलज का पानी बाकी राज्यों के साथ बांटना था, लेकिन बाद में वह इस समझौते से मुकर गया। इसी तरह कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच अंग्रेजों के जमाने से ही कावेरी जल विवाद चला आ रहा है। वर्तमान में पानी के बंटवारे को लेकर लगभग हर राज्य में विवाद है। ऐसे में नदी जोड़ परियोजना में 30 से ज्यादा नदियों को जोडऩे के बाद राज्यों के बीच जल बंटवारे को लेकर जो विवाद होगा उसकी तो कल्पना ही मुश्किल है।

जल पुरुष राजेंद्र सिंह का कहना है कि नदियों को जोडऩे के बजाय सरकार को इस पर ध्यान लगाना चाहिए कि लोगों के दिल और दिमाग को नदियों के साथ जोड़ा जाए ताकि नदियों को फिर से जिंदा किया जा सके। नदियों को जोडऩे से सूखा खत्म नहीं होगा।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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