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संघ प्रमुख के बयानों के मायने, क्या भागवत हिंदुओं को (अहिंसक) उग्रवादी बनाना चाहते हैं ?

इसके पूर्व विजयदशमी के अपने पारम्परिक उद्बोधन में भागवत ने देश का ध्यान इस ओर खींचा था कि ’ वर्ष 1951 से 2011 के बीच देश की जनसंख्या में जहां भारत में उत्पन्न मतपंथों के अनुयायियों का अनुपात 88 प्रतिशत से घटकर 83.8 प्रतिशत रह गया है।

Shravan Garg
Written By Shravan GargPublished By Divyanshu Rao
Published on: 3 Dec 2021 6:42 PM IST
rss pramukh mohan bhagwat
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मोहन भागवत की तस्वीर (फोटो:सोशल मीडिया)

RSS Pramukh Mohan Bhagwat: संघ प्रमुख मोहन भागवत (rss pramukh mohan bhagwat) अगर एक लम्बे समय से सिर्फ़ एक बात दोहरा रहे हैं कि हिंदुओं को ताकतवर बनने (या उन्हें बनाए जाने) की ज़रूरत है तो इसे एक गम्भीर राष्ट्रीय मुद्दा मान लिया जाना चाहिए। भागवत लगातार चिंता जता रहे हैं कि हिंदुओं की संख्या और शक्ति कम हो गई है। उनमें हिंदुत्व का भाव कम हो गया है। गोडसे के महिमा-मंडन के कारण ज़्यादा चर्चित ग्वालियर के एक कार्यक्रम में भागवत ने पिछले दिनों कहा कि हिंदू को हिंदू रहना है तो भारत को अखंड रहना ही पड़ेगा। अगर भारत को भारत रहना है तो हिंदू को हिंदू रहना ही पड़ेगा।

इसके पूर्व विजयदशमी के अपने पारम्परिक उद्बोधन में भागवत ने देश का ध्यान इस ओर खींचा था कि ' वर्ष 1951 से 2011 के बीच देश की जनसंख्या में जहां भारत में उत्पन्न मतपंथों के अनुयायियों का अनुपात 88 प्रतिशत से घटकर 83.8 प्रतिशत रह गया है वहीं मुस्लिम जनसंख्या का अनुपात 9.8 प्रतिशत से बढ़कर 14.23 प्रतिशत हो गया है।'

भागवत की चिंता का ऊपरी तौर पर सार यही निकाला जा सकता है कि देश में हिंदुओं की आबादी कम हो रही है और मुस्लिमों की बढ़ रही है यानी हिंदुओं की शक्ति कम हो गई है। भागवत इसे ही (शायद ) अपनी कल्पना के अखंड भारत के लिए ख़तरा मानते हैं। अतः हिंदुओं को (भी) अपनी जनसंख्या बढ़ाना चाहिए।

भागवत अपनी चिंताओं में व्यापक हिंदू समाज की वास्तविक ज़रूरतों (यानी जन्म दर में कमी के असली कारणों को) शामिल नहीं करना चाहते। जैसे कि हिंदुओं के भी एक बड़े तबके में बढ़ती हुई ग़रीबी, बेरोज़गारी, कुप्रथाएं, दहेज के कारण महिलाओं पर अत्याचार, आत्महत्याएँ, कतिपय धर्माचार्यों का पाखंडपूर्ण आचरण आदि। कोरोना के इलाज में हुई कोताही और भ्रष्टाचार के कारण (अन्य समुदायों के लोगों के साथ-साथ) हिंदुओं की बड़ी संख्या में हुई मौतें भी भागवत की चिंता में शामिल नहीं हैं।

संघ प्रमुख मोहन भागवत (फोटो:सोशल मीडिया)

मुस्लिमों के मुक़ाबले हिंदुओं में कम प्रजनन दर को ही अगर अखंड भारत की ताक़त का पैमाना मान लिया जाए तो भागवत को अभी से भय है कि आगे आने वाले पच्चीस-पचास सालों में समस्त हिंदू पूरी तरह से श्रीहीन और शक्तिहीन हो जाएँगे। भागवत इस गम्भीर विषय को भविष्य में संघ प्रमुख के पदों पर क़ाबिज़ होने वाले योग्य व्यक्तित्वों की चिंता के लिए नहीं छोड़ना चाहते हैं। उन्हें लगता होगा कि तब तक बहुत देर हो जाएगी।

हिंदुओं अथवा 'भारत में उत्पन्न मतपंथों के अनुयायियों 'की जनसंख्या में होती कमी को भागवत विश्व-परिप्रेक्ष्य में भी नहीं देखना चाहते हैं। मसलन साम्यवादी चीन और पूँजीवादी अमेरिका और जापान सहित दुनिया के अनेक मुल्क इस संकट का सामना कर रहे हैं कि उनके मूल नागरिकों में जनसंख्या वृद्धि की दर साल-दर-साल कम हो रही है, युवाओं की विवाह के बंधन अथवा संतान-उत्पत्ति के प्रति रुचि आर्थिक एवं अन्य कारणों से घट रही है।

सरकारों द्वारा अनेक प्रकार के प्रलोभन, सुविधाएँ दिए जाने के बावजूद स्थिति में सुधार नहीं हो रहा है।( चीन में तो पिछले साल प्रति एक हज़ार व्यक्ति केवल 8.5 जन्म दर्ज किए गए जो कि 43 वर्षों में सबसे कम है।)

अमेरिका में हाल में हुई जनगणना के आँकड़ों में उजागर हुआ है कि गोरे सवर्णों की तुलना में अन्य समुदायों, जिनमें कि अफ्रीकी मूल के अश्वेत और एशियाई भी शामिल हैं, की आबादी तुलनात्मक रूप से ज़्यादा बढ़ी है। इसके बावजूद अमेरिका अपनी ताक़त को लेकर चिंतित नहीं है।

चीन और जापान आदि देशों की चिंता हक़ीक़त में यह है कि युवाओं के विवाह न करने के कारण बूढ़ों की संख्या बढ़ रही है। ऐसा ही चलता रहा तो उनके यहाँ काम करने वालों की कमी पड़ जाएगी। भागवत हिंदू युवाओं की इस चिंता की बात नहीं करना चाहते कि उचित रोज़गार नहीं मिलने के कारण वे वैसे ही बूढ़े हो रहे हैं। उन्हें अपने लिए रोज़गार अब सिर्फ़ राजनीति और धर्म में ही नज़र आता है।

हिंदुओं की शक्ति में कमी की जिस बात को भागवत जनसंख्या वृद्धि-दर के साथ जोड़ते हुए कहना चाह रहे हैं, शायद वही असली मुद्दा नहीं हो सकता। हो सकता है कि संघ के संस्कारों के परिपालन की बाध्यता के चलते भागवत अपनी मूल भावना को उचित शब्द नहीं दे पा रहे हों। आगे कही जाने वाली बात को लेखक का काल्पनिक अनुमान मानकर ख़ारिज भी किया जा सकता है।

मोहन भागवत (फोटो:सोशल मीडिया)

मेरी दृष्टि में भागवत हिंदुओं को प्रतिद्वंद्वी धर्म के लोगों (भारत के संदर्भ में मुसलमानों) के मुक़ाबले ज़्यादा उग्र और कठोर बनने की बात कर रहे हैं।गांधी और उनके विचार के प्रति संघ और अन्य दक्षिणपंथी संगठनों/ताक़तों के विरोध के पीछे मूल कारण यही हो सकता है कि (उनके अनुसार) अहिंसा ने हिंदुओं को कथित तौर पर कायर बना दिया है।

गांधी के सर्व धर्म समभाव अथवा हिंदुओं के समावेशी संस्कारों के बने रहते बढ़ते हुए (इस्लामी) उग्रवाद का मुक़ाबला नहीं किया जा सकता। सावरकर और गोडसे की प्राण-प्रतिष्ठा के पीछे भी यही उद्देश्य हो सकता है।

हम जिसे अत्यंत सौम्य भाषा में साम्प्रदायिक ध्रूवीकरण करार देकर ख़ारिज करना चाहते हैं उसे हक़ीक़त में हिंदुओं को संगठित शक्ति के रूप में (फ़िलहाल) एक अहिंसक उग्रवादी ताक़त बनाने के प्रयोग के तौर पर भी देख सकते हैं (इस विचार की हिंसक प्रतिकृति अमेरिका में अश्वेतों और अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ ट्रम्प के नेतृत्व में उनकी रिपब्लिकन पार्टी द्वारा चलाए जा रहे संगठित गौरवर्णी विरोध और बहुसंख्य भारतीयों के ट्रम्प की नीतियों के प्रति समर्थन में तलाश की जा सकती है।) हमारे यहाँ इसका पहला बड़ा (सफल ?) प्रयोग गोधरा कांड के बाद गुजरात में देखा गया था। उस प्रयोग का सुप्त सार बाद में यही समझा गया था कि हिंदू समाज अपने लिए केवल इसी तरीक़े से सुरक्षा हासिल कर सकता है।

गुजरात के प्रयोग से स्थापित हुआ कि बहुसंख्यक समाज को अगर एक बार में ही दीर्घकालीन साम्प्रदायिक सुरक्षा प्राप्त करा दी जाए (या वह अपनी स्वयं की ताक़त के दम पर अल्पसंख्यकों के भय से मुक्त हो जाए ) तो फिर प्रदेश या राष्ट्र को विकास के रोल मॉडल के रूप में दुनिया के समक्ष पेश भी किया जा सकता है और भविष्य के चुनाव भी जीते जा सकते हैं।

यह काम धर्मनिरपेक्षता के पालन की संवैधानिक शपथों/निष्ठाओं से बंधी सरकारें घोषित तौर पर नहीं कर सकतीं। (गुजरात के बारे में भी ऊपरी तौर पर प्रचारित यही है कि अल्पसंख्यकों के विरुद्ध हिंसा का नेतृत्व कथित तौर पर विश्व हिंदू परिषद के हाथों में था ,तत्कालीन मोदी सरकार की उसके पीछे कोई भूमिका नहीं थी। ऐसा ही देश के एक बड़े अंग्रेज़ी पत्रकार का भी दावा है।)

अतः भागवत जब भी हिंदुओं के शक्तिहीन होने की बात करें, उसका मतलब यह भी लगाया जा सकता है कि सरकार की ताक़त उनकी (हिंदुओं की) कमजोरी के कारण क्षीण पड़ रही है। और यह भी कि सरकार 'राजपथ' पर अनंत काल तक पूरे आत्म-विश्वास के साथ सैन्य सलामी लेती रहे उसके लिए हिंदुओं को उग्र तरीक़े से ताकतवर बनाया जाना ज़रूरी है।



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Divyanshu Rao

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