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Russia-Ukraine War: ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य, बहुत जरूरी है ये जानना
Russia-Ukraine War: रूस-युक्रेन विवाद (Russia-Ukraine war) को समझने के लिए सबसे बढ़िया तरीका है 1815 में संपन्न वियना कांग्रेस या सम्मेलन के सिद्धांतों को समझना।
Russia-Ukraine War: वैश्विक राजनीति (global politics) और युद्धों (wars) से बचने के साथ-साथ, कूटनीति की जटिलताओं का ही परिणाम है अतः यह गहन ऐतिहासिक विश्लेषण (historical analysis) से ही समझा जा सकता है। इस विवाद में सैन्य तैयारियों (military preparation) के साथ सीमा पर सैन्य तैयारियां और युद्धपरक तनाव (war) और आज के इस ज्वलनशील रूस-युक्रेन विवाद (Russia-Ukraine war) को समझने के लिए सबसे बढ़िया तरीका है 1815 में संपन्न वियना कांग्रेस या सम्मेलन के सिद्धांतों को समझना। नेपोलियन (Napoleon) द्वारा साम्राज्य स्थापना के चलते यूरोप के मानचित्र को पूरी तरह से विनष्ट किये जाने को दुरुस्त करने के लिए यह सम्मेलन आहूत किया गया था। इसमें अन्य सिद्धांतों के अतिरिक्त जो दो मुख्य आधारभूत सिद्धांत थे वे 'वैधता' (validity) तथा 'शक्ति-संतुलन' (power balance theory ) का सिद्धांत था। जहां शक्ति-संतुलन का सिद्धांत भविष्य में इस प्रकार की पुनरावृत्ति रोकने के लिए उपयोगी था वहीं वैधता के सिद्धांत चलते पुनः राजतंत्र स्थापित किये गए और 1789 के फ़्रांसीसी राज्यक्रांति के प्रजातांत्रिक सिद्धांतों का परित्याग सुनिश्चित किया गया। इसी के फलस्वरूप यूरोप ने 1830 एवं 1848 में जनतांत्रिक -राष्ट्रवादी आंदोलनों का दौर देखा था, जिसके चलते इटली और जर्मनी के एकीकरण 1870 में संपन्न हुए थे।
1870 में संपन्न इटली तथा जर्मनी के एकीकरण के बाद की दुनिया शक्ति-संतुलन के लिए पुनः एक बार प्रयासरत हुई और इस बार सम्मेलन का स्थान लिया पारस्परिक संधियों ने और इन संधियों ने गुटबंदी और अस्त्र-शस्त्र प्रतिस्पर्धा को जन्म दिया जिसने 'ट्रिपल अलायन्स' और 'ट्रिपल आन्तांत' के रूप में विश्व को दो गुटों में स्पष्ट रूप से विभक्त कर दिया। दूसरी तरफ, 1815 के बाद के काल में 'राष्ट्रवाद' के इस नए उभार ने 'उप- राष्ट्रवाद' को भी जन्म दे दिया जिसके परिणामस्वरूप ऑस्ट्रिया के आर्कड्यूक, फ़र्डिनेंड की सारायेवो में ह्त्या ने उस चिंगारी की तरह काम किया जिसने प्रथम विश्व-युद्ध को जन्म दे दिया। काश प्रथम विश्व-युद्ध के बाद संपन्न 'वरसाई के सम्मलेन' एवं 'पेरिस की शान्ति संधि' ने वियना सम्मेलन की भावना के ठीक विपरीत काम किया और इससे माहौल बनने की जगह बिगड़ ही गया।
वियना में फ्रांसीसी शासक नेपोलियन को दोषी मानते हुए भी फ्रांसीसी राजनयिक तालेरां को बराबरी का स्थान और सम्मान प्राप्त था। उसने सम्मेलन में भागीदारी करते हुए 'वैधता' के सिद्धांत को अनुरेखित किया था और बूर्बों वंश को पुनर्स्थापित किया था जिसके फलस्वरूप नेपोलियन द्वारा विनष्ट किये गये यूरोप के देशों के अन्य वंशों की भी पुनर्स्थापना हुई थी। जबकि इसके ठीक विपरीत पराजित जर्मनी के प्रतिनिधि मंडल को सिर्फ़ संधि की शर्तों पर हस्ताक्षर करने हेतु बुलाया गया था और उन्हें "दोषी" मानते हुए अपमानजनक व्यवहार किया गया था और, इसका परिणाम जर्मनी ने सुनियोजित ढंग से थोपी गयी शर्तों के उल्लंघन के लिए हिटलर की तानाशाही और उत्कट राष्ट्रवाद को अँधा समर्थन दिया भले ही यहूदियों के साथ उसने अन्याय और अमानवीय नरसंहार भी किया!
प्रथम विश्वयुद्ध के शर्तों में ही द्वितीय विश्वयुद्ध के कारक तत्व मौजूद थे
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात की संधि की शर्तों में ही द्वितीय विश्वयुद्ध के कारक तत्व मौजूद थे इसीलिए प्रसिद्ध इतिहासकार ए. जे. पी. टेलर ने लिखा, 'द्वितीय विश्वयुद्ध अधिकांशतः प्रथम विश्वयुद्ध की ही पुनरावृत्ति थी।' लेकिन हर युद्ध के पश्चात 'शक्ति-संतुलन' के सिद्धांत की ही व्याख्याएं छाई रहीं। प्रथम के बाद भी और द्वितीय के पश्चात भी। जबकि दोनों ही महायुद्ध गुटबंदियों के चलते हुए थे और उनके लिए यही 'शक्ति-संतुलन' का सिद्धांत उत्तरदायी था। फिर भी युद्धों से हाथ खींचने के बावजूद इसी सिद्धांत ने 'शीतयुद्ध' को जन्म दिया और द्वि-ध्रुवीय विश्व पाश्चात्य और समाजवादी खेमों में बंट गया। पाश्चात्य देशों के उपनिवेश रहे नव-स्वतंत्र देश ज़ाहिर ही गुट-निरपेक्षता के सहारे दोनों खेमों से लाभ अर्जित करके अपनी समाजार्थिक व्यवस्था सुधारने के लिए प्रयासरत हुए और इसी ने पुनः दोनों खेमों के नेताओं को अपने प्रभाव तथा आधिपत्य के क्षेत्र को विस्तार करने के लिए उकसाया और शीत युद्ध अपने चरम पर पहुंचा!
1917 की रूसी क्रांति और सोवियत संघ की स्थापना के साथ सोवियत प्रसार का युग शुरू हुआ था और उसने भी शक्ति संतुलन के सिद्धांत के ही तहत 'वॉरसॉ पैक्ट' के माध्यम से पूर्वी यूरोप के देशों ("Rim Countries") को अपने प्रभाव में करते हुए अपने को सुरक्षित करने की व्यवस्था की। इसके बरक्स पाश्चात्य देशों ने "नाटो" तथा ऐसी ही अन्य संधियों द्वारा अपने आधिपत्य की स्थापना की। अतः युद्ध न करने के लिए भी युद्धपरक परिस्थितियों का वैसा ही निर्माण शुरू हो गया था जिसने विश्व को दो महायुद्धों में झोंका था? किन्तु 'भूमंडलीकरण' तथा 'उदारवाद' की ऐसी आंधी चली कि, जहां सोवियत संघ का विघटन हुआ, वहीं चीन साम्यवाद से 'राज्य-पूंजीवाद' को अपना बैठा?
बदलते युग में गुट-निरपेक्षता अपना महत्त्व खोने लगी
इसी बदलते युग में गुट-निरपेक्षता अपना महत्त्व खोने लगी थी। ये नव-स्वतंत्र राष्ट्र-राज्य निष्पक्ष रहकर दोनों खेमों के मध्य शक्ति-संतुलन स्थापित करने की महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे। ऐसे में विश्व एक-ध्रुवीय होने लगा और इराक पर अमरीकी आक्रमण के दौरान यह सत्य प्रतीत होने भी लगा। किन्तु, चीन के अर्थतंत्र का जब स्वरुप 'राज्य-पूंजीवाद' वाला होने लगा तब ज़ाहिर ही है अमेरिका के नेतृत्व वाले पाश्चात्य गुट तथा चीन के नेतृत्व वाले गुट में प्रतिस्पर्धा का एक नया अध्याय शुरू होना ही था? चीन में अधिनायकवाद और 'राज्य-पूंजीवाद' के घालमेल ने थोक उत्पादन के चलते ('मास प्रोडक्शन') सस्ते उत्पादों के चलते विश्व बाज़ार में जगह बना ली थी और वह अफ्रीका, दक्षिण-पूर्व, दक्षिण तथा मध्य एशिया आदि क्षेत्रों में अपने आर्थिक साम्राज्य को फैलाने में सफल होता गया। दुनिया में दक्षिण अमरीका के देशों की मजबूरी भी अमेरिका के प्रभुत्व से बचने की थी अतः वे जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे चीन के प्रभुत्व को स्वीकार करने को बाध्य थे। जैसे अमेरिका प्रथम विश्वयुद्ध तक यूरोप का उपग्रह था वैसे ही चीन की बढती शक्ति के समक्ष विघटित रूस उसका उपग्रह सा ही हो गया।
यानी शीत युद्ध अपने नए रूप में नव-उपनिवेशवाद के साथ कदमताल करते हुए दुनिया को पुनः दो खेमों में बांटने को प्रतिबद्ध था। फिर वही शक्ति-संतुलन का सिद्धांत फिर दुनिया को उद्वेलित तथा असंतुलित करने लगा था! ऐसे में सोवियत संघ से विघटित स्वतंत्र राष्ट्र-राज्यों पर पाश्चात्य देशों के संगठन की नज़र लगनी ही थी और वे इन स्वतंत्र हुए राज्यों पर अपने प्रभुत्व की स्थापना के साथ ही कमजोर होते साम्यवादी विश्व को अपने पाले में करने में पूरे जोश के साथ जुट गए और उसी का एक परिणाम है रुसी-युक्रेन संघर्ष। अगर इसको साम्यवादी विरोधी गुट "नाटो" या 'नार्थ एटलांटिक ट्रीटी आर्गेनाइजेशन' के संदर्भ में देखें तब हम पाते हैं कि 1949 में या इसकी स्थापना के साथ इसके कुल सदस्यों की संख्या बारह (12) थी। सोवियत संघ के विघटन के पश्चात पोलैंड, हंगरी, रोमानिया, बुल्गारिया जो सोवियत संघ के 'वॉरसॉ पैक्ट' के सदस्य रहे थे वे नाटो की सदस्यता ग्रहण करने में अपनी बेहतरी तलाशने लगे। इन देशों की भांति ही अनेक बाल्टिक देशों यथा, एस्टोनिया, लेटविया, लिथुनिया आदि के शामिल होने से अब नाटो की सदस्य-संख्या तीस (३०) पर पहुँच गई है। 'शक्ति-संतुलन' के सिद्धांत के तहत अस्थिरता के पश्चात पडला पाश्चात्य खेमे की तरफ़ झुकता दिख रहा है? यह साम्यवादी खेमे के लिए निश्चित ही चिंता का विषय है, क्योंकि यह उनके गुट के अस्तित्व का प्रश्न है।
1990 के जर्मन एकीकरण से पूर्वी जर्मनी का रूस के प्रभा-मंडल से अलग होते ही जो प्रक्रिया शुरू हुई थी लगता है वह थमने का नाम नहीं ले रही। इसी के बाद जब यूरोपीय संघ का गठन हुआ तब जर्मनी-रूस के पारस्परिक सम्बन्ध यूरोपीय संघ और अमेरिका के हितों की अनदेखी कर के तो नहीं ही बढ़ सकते था। इसीलिए पास्व्चाटी देशों का समूह रूस के खिलाफ़ मोर्चा खोल बैठा और रूस की कूटनयिक घेरेबंदी करते हुए नाटो की सदस्यता निरंतर बढ़ाई। इन्हीं कारणों के चलते रूस चिंताग्रस्त है! वह ठीक वैसे 1990 के शक्ति-संतुलन को बनाये रखना चाहता है जैसे मेटेर्निक 1815 में घडी की सुईओं को वापस 1789 से पूर्व वाली स्थिति में लाकर वहीं रोकना चाहता था? अतः यह सवाल 1815 के वियना सम्मेलन से सीधे जुड़ता है. चूंकि पूंजीवादी पाश्चात्य देश चीन के बढ़ते नव-साम्राज्यवाद से अपने नव-उपनिवेशवाद के लिए सबसे बड़ा खतरा मान रहे हैं। इसीलिए दूसरी तरफ रूस नाटो के तहत पूर्वी यूरोप के अपने पूर्ववर्ती प्रभुत्व वाले देशों की सदस्यता से चिंतित है तो चीन ताइवान से लेकर कोरोना पर घेरे जाने के साथ ही दक्षिण चीन समुद्र में अपने विरुद्ध जापान, भारत, दक्षिण कोरिया, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका आदि देशों की एकजुटता से; उत्तरी कोरिया दक्षिण से. इस प्रकार से विश्व एक ऐसे मुहाने पर फिर से आ खड़ा हुआ है जब शक्ति-संतुलन अस्थिरता के इशारे दे रहा है और यह शांति का सूचक तो कहीं से नहीं है। रही बची कसर पश्चिम एशियाई देशों की अस्थिरता भी इस समस्या को और जटिल बना रही है।