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SAARC: दक्षेस के नहले पर जन-दक्षेस का दहला

SAARC: न्यूयॉर्क में होने वाली दक्षेस (सार्क) के विदेश मंत्रियों की बैठक स्थगित हो गई है। दक्षेस के इस मामले को लेकर लेखक डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने अपने कुछ विचार व्यक्त किए है, चलिए नजर डालते है इनके लेख पर...

Dr. Ved Pratap Vaidik
Written By Dr. Ved Pratap VaidikPublished By Chitra Singh
Published on: 23 Sept 2021 9:31 AM IST
SAARC
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SAARC (डिजाइन फोटो- सोशल मीडिया)

SAARC: दक्षेस (सार्क) के विदेश मंत्रियों की जो बैठक न्यूयॉर्क में होनेवाली थी, वह स्थगित हो गई है। उसका कारण यह बना कि अफगान सरकार का प्रतिनिधित्व कौन करेगा? सच पूछा जाए तो 2014 के बाद दक्षेस का कोई शिखर सम्मेलन (Dakshesh Shikhar Sammelan) वास्तव में हुआ ही नहीं। 2016 में जो सम्मेलन इस्लामाबाद में होना था, उसका आठ में से छह देशों ने बहिष्कार कर दिया था, क्योंकि जम्मू में आतंकवादियों ने उन्हीं दिनों हमला कर दिया था। नेपाल अकेला उस सम्मेलन में सम्मिलित हुआ था, क्योंकि नेपाल उस समय दक्षेस का अध्यक्ष था और काठमांडो में दक्षेस का कार्यालय भी है। दूसरे शब्दों में इस समय दक्षेस बिल्कुल पंगु हुआ पड़ा है।

यह 1985 में बना था । लेकिन अब 35 साल बाद भी इसकी ठोस उपलब्धियां नगण्य ही हैं, हालांकि दक्षेस-राष्ट्रों ने मुक्त व्यापार, उदार वीजा-नीति, पर्यावरण-रक्षा, शिक्षा, चिकित्सा आदि क्षेत्रों में परस्पर सहयोग पर थोड़ी बहुत प्रगति जरुर की है । लेकिन हम दक्षेस की तुलना यदि यूरोपीय संघ और 'एसियान' से करें तो वह उत्साहवर्द्धक नहीं है। फिर भी दक्षेस की उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता है। इसे फिर से सक्रिय करने का भरसक प्रयत्न जरुरी है। जिन दिनों 'सार्क' यानी 'साउथ एशियन एसोसिएशन ऑफ रीजनल कोऑपरेशन ' नामक संगठन का निर्माण हो रहा था तो इसका हिंदी नाम 'दक्षेस' मैंने दिया था।

सार्क (फाइल फोटो- सोशल मीडिया)

'नवभारत टाइम्स' के एक संपादकीय में मैंने 'दक्षिण एशियाई क्षेत्रीय सहयोग संघ' का संक्षिप्त नाम 'दक्षेस' बनाया था। उस समय याने अब से लगभग 40 साल पहले भी मेरी राय थी कि दक्षेस के साथ-साथ एक जन-दक्षेस संगठन भी बनना चाहिए यानी सभी पड़ोसी देशों के समान विचारों वाले लोगों का संगठन होना भी बहुत जरुरी है।

सरकारें आपस में लड़ती-झगड़ती रहें तो भी उनके लोगों के बीच बातचीत जारी रहे। यह इसलिए जरुरी है कि दक्षिण और मध्य एशिया के 16-17 देशों के लोग एक ही आर्य परिवार के हैं। उनकी भाषा, भूषा, भोजन, भजन और भेषज अलग-अलग हो सकते हैं । लेकिन उनकी संस्कृति एक ही है। अराकान (म्यांमार) से खुरासान (ईरान) और त्रिविष्टुप (तिब्बत) से मालदीव के इस प्रदेश में खनिज संपदा के असीम भंडार भरे हुए हैं। यदि भारत चाहे तो इन सारे पड़ौसी देशों को कुछ ही वर्षों में मालामाल किया जा सकता है।.करोड़ों नए रोजगार पैदा किए जा सकते हैं। यदि हमारे ये देश यूरोपीय राष्ट्रों की तरह संपन्न हो गए तो उनमें स्थिरता ही नहीं आ जाएगी बल्कि यूरोप के राष्ट्रों की तरह वे युद्धमुक्त भी हो जाएंगे।

पिछले 50-55 वर्षों में लगभग इन सभी राष्ट्रों में मुझे दर्जनों बार जाने और रहने का अवसर मिला है। भारत के लिए उनकी सरकारों का रवैया जब-तब जो भी रहा हो, जहां तक इन देशों की जनता का सवाल है, भारत के प्रति उनका रवैया मैत्रीपूर्ण रहा है। इसीलिए भारत के प्रबुद्ध और संपन्न नागरिकों को जन-दक्षेस के गठन की पहल तुरंत करनी चाहिए। वह दक्षेस के नहले पर दहला सिद्ध होगा।

Chitra Singh

Chitra Singh

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