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एक शहर की खुशबू का किसी किताब में कैद हो जाना
इलाहाबाद के बारे में अनेक लोग अपनी यादें और संस्मरण लिखे हैं , उसी कड़ी में ममता जी की यह पुस्तक भी है।
मैं घर के अपने प्रिय कोने में बैठा ममता कालिया द्वारा लिखित संस्मरण ' जीते जी इलाहाबाद ' तीन बैठकी में चट कर गया । बाहर लगातार दो दिन से रुक रूककर बारिश हो रही थी , ऐसे मौसम में कहीं न निकलना और घरपर अलसियाए रहने का एक अलग ही मजा होता है । इसका मैंने भरपूर सदुपयोग किया। विश्वविद्यालय के निराला आर्ट गैलरी में राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली ने एक पांचदिनी पुस्तक प्रदर्शनी लगाई थी जहां से मैंने यह पुस्तक प्राप्त की।
इलाहाबाद के बारे में अनेक लोग अपनी यादें और संस्मरण लिखे हैं , उसी कड़ी में ममता जी की यह पुस्तक भी है। इलाहाबाद की एक खूबसूरत और लोकप्रिय साहित्यिक जोड़ी थी , रविन्द्र कालिया और ममता कालिया की जो बेहद यारबाज और साहित्यिक मंडलियों के दुलारे थे । इलाहाबाद इनको प्यार करता था और ये दोनों इलाहाबाद को जीते थे । मुझे अपने शहर में शायद ही ऐसा कोई सख्श दिखा हो जिसकी दोस्ती और जानपहचान का इतना बड़ा दायरा हो । रविन्द्र कालिया और ममता जी हमेशा एक दूसरे को रवि और मम कहकर बुलाते थे ।
पहले इलाहाबाद और अब महाराष्ट्र में रहने वाली कवयित्री रुचि भल्ला की एक कविता है ,
जो नाम लेती हूँ इलाहाबाद
पत्थर का वह शहर
एक सख्श हो जाता है ।
शहर नहीं रह जाता फिर
धड़कने लगता है उसका सीना
........
जबतक जीती हूँ
इलाहाबाद हुई जाती हूँ
जब नहीं रहूँगी
इलाहाबाद हो जाऊंगी मैं
इन पंक्तियों को ममता जी ने अपने संस्मरण 'जीते जी इलाहाबाद ' में कोट किया है जिसे राजकमल नई दिल्ली ने अभी इसी वर्ष प्रकाशित किया है । इस पुस्तक में ममता ने जिस तरह इलाहाबाद को जिया है ,उसी तरह लिखा भी है । घटनाओं का कोई तारीखवार क्रम नहीं है , उसी तरह जैसी उनकी जिंदगी थी - कभी खुशगवार, कभी बेतरतीब और कभी अराजक । उनके पति रवि लेखक , संपादक और प्रकाशक थे , ममता जी लेखन के साथ महिला सेवा सदन गर्ल्स डिग्री कॉलेज की प्रिंसिपल थीं। अपने पांव जमाने के लिए दिल्ली और बम्बई की धूल फांकते हुए यह दंपति 1970 के दशक में इलाहाबाद के 370 नंबर वाली रानीमंडी की हवेलीनुमा इमारत को 300 रुपये प्रतिमाह के किराए पर लेकर अपनी रिहाइश बनाया और इसी के एक भाग में अपना प्रेस शुरू किया । यहीं रहते हुए इनकी दोस्ती शहर के तमाम प्रतिष्ठित, स्थापित और संघर्षशील लेखकों से हुई।
ये सभी लेखक और लेखिकाएं इस शहर के सांस्कृतिक शरीर की धमनियां थे जिनमें बहुत अभी हैं और बहुत दुनियां से जा चुके हैं । सबकी अलग अलग कहानी , और अलग अलग परिवेश थे जिसको ममता जी ने इस पुस्तक में समेटा है । जो लेखक यहां रहे या जो यहां अक्सर आते रहे, उनके बारे में वे एक दो पंक्तियों में ही ऐसे रिमार्क्स लिखा हैं कि उनके पूरे व्यक्तित्व की गांठ खुल जाती है । सुमित्रा नंदन पंत , निराला , महादेवी वर्मा अज्ञेय, फिराक साहब, फ़ारूक़ी ,एजाज़ हुसैन , अमृत राय ,श्रीपत राय जैसे पुरनियों के बारे में जानना हो तो भी यह पुस्तक मजेदार है । प्र ले स ( प्रगतिशील लेखक संघ ) ज ले स ( जनवादी लेखक संघ ) की अंदरूनी जलन और कलह संबंधी संस्मरण भी मजेदार है । भैरव प्रसाद गुप्त , मारकंडे , अमरकांत, नरेश मेहता , दूधनाथ , ज्ञान रंजन , कैलाश गौतम से लेकर आज की पीढ़ी के लेखक और कवि यश मालवीय और विवेक निराला तक तथा ऐसे सैकड़ा भर साहित्यकारों और उनकी रचनाओं की चर्चा इस पुस्तक में उपलब्ध है ।
यह पुस्तक बातकही के रूप में लिखी गई है । यह न मात्र संस्मरण है , न उपन्यास और न ही आत्मकथा । इसमें सब का अंश है । ऐसा लगता है कि लेखिका को जो बातें याद आती गईं, लिखती गईं । अपने दोनों बेटों , अन्नू और मन्नू की पढ़ाई और उनकी बदमाशियों से लेकर अपने जानने वालों के सफल और असफल प्रेमप्रसंगों तक को उन्हीने अपने वन लाइनर्स में खोलकर रख दिया है । इलाहाबाद शहर की हर धड़कन इसमें उपलब्ध है। वे एक जगह लिखती हैं कि " चौक इलाके की अपनी मस्तियाँ थीं । रानी मंडी से जरा हटकर हिन्दू मुहल्ले थे, अतरसुइया, कल्याणी देवी, लोकनाथ और भारती भवन , उसीके आगे ढलान वाला इलाका अहियापुर था । वहां के लोगों की बोली- बानी अहियापुरी मानी जाती। कस गुरु , का गुरु , सरऊ के नाती , चकाचक उनकी शब्दावली के स्थाई हिस्से थे । वहां सड़क में बाजार और बाजार में सड़कें थीं....... मालवीय नगर यहां से संटी हुई गली थी जहां एक मकान जनेश्वर मिश्र का था । दो चार समाजवादी नेता वहां जरूर टहलते मिलते " । वे आगे लिखती हैं, " चौक से चार राहें फूटती हैं, एक घंटाघर और जानसेनगंज की तरफ चली जाती है तो दूसरी खुल्दाबाद की तरफ । तीसरी बताशा मंडी , गुड़ मंडी, मीरगंज से गुजरती बहादुरगंज कोठापरचा होती हुई , बाई का बाग , कीडगंज होती हुई, बैरहना निकल जाती है।चौथी राह कोतवाली से अंदर मुड़ती है जहां शहर की सबसे सघन बस्ती है । इन गलियों के रहने वाले बखूबी जानते हैं कि कैसे कुत्तों , कूड़े और सांडों से बचकर घर पहुचना है । " दूसरी तरफ अंग्रेजों के जमाने में बसे हुए अभिजात्य इलाकों - जैसे सिविललाइंस की चौड़ी चौड़ी हरित सड़कें , जार्जटाउन, टैगोर टाउन , एलनगंज विश्वविद्यालय और हाइकोर्ट के इलाके के बड़े बड़े विशाल बंगलों के भी रोचक वृत्तांत हैं । इलाहाबाद के बारे में कोई संस्मरण बिना कुंभमेला के पूरा नहीं होता । ममता जी ने इस मेले का कई बार जिक्र किया है ,और इससे लगे पुराने मुहल्ले दारागंज और नागवासुकि की विशेषताओं को गिनाया है । मुरारी स्वीट हाउस , कॉफ़ी हाउस , चुन्नीलाल के छोले भटूरे से लेकर लोकनाथ की मिठाइयों , और चाट की दुकानों का भरपूर स्वाद भी यहां उपलब्ध है ।
धर्मवीर भारती , कमलेश्वर , दुष्यंत कुमार , उपेंद्र नाथ अश्क की कर्मभूमि इलाहाबाद न जाने कितने नौजवान सफल और असफल फ़नकारों का आशियाना रहा है । यहां यदि छायावाद की खुशबू फिजाओं में घुली है तो प्रतिरोध के साहित्य का परचम भी लहराया है । बाबा नागार्जुन इलाहाबाद में होने पर कालिया दंपति के विजिटर जरूर होते थे । ममता जी ने एक जिक्र में बताया कि एकबार बाबा अजित पुष्कल के साथ उनके यहां आ रहे थे तो पास की गली में गरम समोसे छन रहे थे उन्होंने पुष्कल से समोसे बच्चों के लिए खरीदने को कहा , रास्ते में बाबा की जीभ का सब्र खत्म होगया उन्होंने कहा लाओ अपने हिस्से का समोसा खा लें , फिर बाकी समोसे भी उदरस्थ कर लिए और घर पर आकर बताए कि हमने बच्चों के भी समोसे खा लिए केवल चाय पिलाओ । एक बार एक नवोदित उपन्यासकार ने बाबा को अपना उपन्यास पढ़ने को दिया । आठ दस दिन बाद उसने प्रणाम करके बाबा से पूछा , आपने मेरा उपन्यास पढ़ा , बाबा ने चकराई नजर से उसकी तरफ देखा और बोले , वो आपका उपन्यास ? भाई पच्चीस पन्ने तक उसने खींचा , पच्चीस पन्ने तक हमने खींचा उसके बाद बस रस्सा टूट गया । नवोदित लेखक अपना सा मुंह लिए चला गया ।
ममता जी ने एक जगह लिखा है, " असली और खालिस इलाहाबादी वह है जो शहर छोड़ जाए मगर शहर उसे न छोड़े " । तारीख 6 दिसंबर 1992 को दंगे के बीच ममता रवि अपने दोनों बच्चों के साथ रानीमंडी के मकान में ताला लगाकर मेहदौरी के अपने नए घर में शिफ्ट हो गए , जहां उनके पड़ोस में लालबहादुर वर्मा और यश मालवीय भी रहते थे । यहीं उन्होंने कृष्णा सोबती की मेहमाननवाजी की । अपनी सास और सोबती जी के रोचक संवाद का भी जिक्र इस संस्मरण को नया आयाम देता है । रवि को खो देने के बाद 2003 में ममता जी अपने नए पते गाज़ियाबाद की हो गईं । उनका इलाहाबाद हमेशा के लिए छूट गया । वे कहती हैं " शहर - पुड़िया में बांधकर हम नहीं ला सकते साथ, किंतु स्मृति बनकर हमारे स्नायुतंत्र में , हूक बनकर हमारे हृदयतंत्र में, और दृश्य बनकर हमारी आंखों के छविगृह में चलता फिरता नज़र आता है । इसी तरह के अनगिनत रोचक प्रसंगों से युक्त यह किताब हर इलाहाबादी को गर्व का अनुभव कराती है ।
संदीप तिवारी की एक कविता है ;
जो इलाहाबाद छोड़कर गया है
वह प्रयागराज नहीं लौटेगा ।
लौटेगा तो इलाहाबाद लौटेगा ।
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कहीं कुछ भी लिख दिया जाए
कुछ भी तोड़- फोड़ दियाजाए
पर दुखी मत होना ।
सुबह जब ट्रेन पहुचेगी इलाहाबाद जंक्शन
बगल बैठा मुसाफिर उठाएगा
और बढ़ जाएगा इतना कहते हुए
' जग भाई ,आगया इलाहाबाद।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)