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...तो बोलो ऑनलाइन शबरी की जय, अपराध की अलग-अलग परिभाषा क्यों?

raghvendra
Published on: 14 Dec 2018 9:41 AM GMT
...तो बोलो ऑनलाइन शबरी की जय, अपराध की अलग-अलग परिभाषा क्यों?
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आजकल बाहर से खाना ऑर्डर करना एक ट्रेंड बन चुका है लेकिन क्‍या कभी आपने सोचा है कि आपका ये बाहर से आया हुआ खाना साफ है या नहीं? या फिर इसे झूठा तो नहीं किया गया?

नवल कान्त सिन्हा

सच-सच बताइयेगा कि अगर आपको शबरी मिल जाएं तो आप खुश होंगे या नहीं? ये सवाल मैं आपसे इसलिए पूछ रहा हूं कि हाल में एक घटना ऐसी वायरल हुई कि हर जगह इसकी चर्चा है। हुआ यूं कि एक वायरल वीडियो में एक शख्स अपनी स्कूटी पर डिलिवरी बैग से खाने के पैकेट निकाल कर उसे खोलकर उसमें से थोड़ा सा खाना खा लेता है। फिर उस खाने को पैक कर वैसे ही रख देता है। ढाई मिनट से ज्यादा के इस विडियो को किसी ने छत से शूट किया। इस विडियो के आने के बाद हंगामा मच गया। ट्विटर, फेसबुक सब जगह उस डिलीवरीमैन के खिलाफ पूरा देश खड़ा हो गया, वो वाला हाईक्लास भी, कि जिसकी हैसियत और रसूख भ्रष्टाचार की वजह से ही है। जहां ईमानदारी की परिभाषा है कि ‘मैंने आजतक किसी से कुछ नहीं माँगा और न ही कभी कहा है कि कितना दे रहे हो।’

अब इस वीडियो ने तो उस फूड डिलीवरी कंपनी की धडक़नें बढ़ा दीं। पता लगा कि मामला मदुरई का है। फिर क्या था कंपनी ने अपने डिलिवरीमैन की हरकत को ‘असामान्य’ ठहरा दिया। उसे काम से भी हटा दिया। बताइये ये कोई असामान्य काम था क्या, ऐसा किसी ने नहीं किया क्या कभी। तो फिर ये किसी को नौकरी से निकाले देने वाला अपराध था क्या। अगर है भी तो हजारों करोड़ के घोटाले पर बरसों केस चलता है और उसके बाद भी सजा नहीं होती, यहाँ तो तुरंत सजा दी गयी। न्याय होता भी क्यों न, एक बड़ी कंपनी का धंधा जो इसमें जुड़ा हुआ था। अरे भाई कंपनी है कोई भारत देश थोड़ी, जो अरबों करोड़ के घोटाले को झेल जाए। वैसे भी टैक्सपेयर तो हैं ही, जो दिन-रात मेहनत कर देश की आमदनी बढ़ाने के लिए तत्पर रहते हैं।

वैसे अगर मैं कोई बड़ा सेलेब्रिटी होता कि जिसके करोड़ों फालोवर हों तो ये ट्वीट जरूर करता कि इस डिलीवरीमैन को गाली देने का हक उन्हीं को है, जिन्होंने अपने जीवन में कभी किसी के टेस्टी खाने में हाथ नहीं डाला। यकीन मानिए साफ दिल वाले ज्यादातर लोग अपने कमेंट्स वापस ले लेते। सच भी तो यही है न कि बचपन से हम अपने दोस्तों के टिफिन में हाथ डालने से अपना सफर शुरू करते हैं और कटोरी में निकली दालमोठ के उस इलाके पर चम्मच डालने की आदत तक इसे कायम रखते हैं कि जहाँ पर काजू का टुकड़ा होता है। आज मुझे वो मेम साहब जी याद आ रही हैं कि जो गोलगप्पे भी वहीं से खाना पसंद करती हैं कि जहां का पानी आरओ वाटर का होता है। एक बार मैंने भी उस आदमी को देखा तो प्लास्टिक के पन्नी का दस्ताना पहन कर गोलगप्पे खिला रहा था। हां, बीच वो दो मिनट के लिए कहीं गया भी। बाएं से हाथ से दाहिने हाथ में पहने हुए दस्ताने को उतारकर... न हाथ धोया और वो क्या कहते हैं... हाँ याद आया, न सेनेटाईजर लगाया। और फिर उसी दस्ताने को बाएं से हाथ से दाहिने हाथ में पहन कर गोलगप्पे खिलाने लगा। मतलब ये कि प्लास्टिक की पन्नी स्वच्छता की प्रतीक है। हाँ, बिना नहाए किचन में घुसने की परम्परा दकियानूसी।

अब उस गरीब डिलीवरीमैन जो दिनभर बाइक पर धक्का खाकर अपने बच्चों को अच्छा खाना नहीं खिला सकता होगा। स्कूल फीस पूरी करना तो दूर की बात है। हो सकता है कि भूख से तड़प कर खाना खा गया हो। लेकिन हमारे देश की तो ये संस्कृति नहीं, हमारी संस्कृति तो ये है भूख से मर जाएंगे लेकिन चोरी नहीं करेंगे। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के देश के हैं। अपने आदर्शों को कैसे भूल सकते हैं। अब ये मत कह दीजिएगा कि राम जैसे त्याग से फायदा क्या... आज भी टेंट में रहते हैं श्रीराम।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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