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Alice Munro : लघु-कथाकार नोबेल विजेता एलिस का चला जाना!
Alice Munro : साहित्य के प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार की विजेता एलिस मुनरो का 15 मई, 2024 को कनाडाई नगर ओंतारियों में निधन हो गया। वे 92 वर्ष की थीं। मतिभ्रम से पीड़ित थीं। लघु-कथा लेखिका के रूप में मशहूर एलिस की समता भारतीय लघुकथाकार मुल्कराज आनंद और आरके नारायण से की जाती है।
Alice Munro : साहित्य के प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार की विजेता एलिस मुनरो का 15 मई, 2024 को कनाडाई नगर ओंतारियों में निधन हो गया। वे 92 वर्ष की थीं। मतिभ्रम से पीड़ित थीं। लघु-कथा लेखिका के रूप में मशहूर एलिस की समता भारतीय लघुकथाकार मुल्कराज आनंद और आरके नारायण से की जाती है। रूसी कथाकार एंटोन चेखोव और एलिस में काफी सादृश्य देखा गया। प्रकाशक पेंगुइन के अनुसार, यह लेखिका गत कुछ वर्षों से स्मृति खो चुकी थीं।
एलिस की लघु कथाओं के अधिकांश पात्र महिलाएं होती थीं। एक समूची नई पीढ़ी के पाठकों को उनका प्रशंसक माना जाता रहा। इनमें अधिकतर आंचलिक युवजन थे, जो मध्यम वर्ग के रहे। वे उनके बड़े प्रशंसक थे। उनमें सहलेखक वर्ग एलिस के महानतम प्रशंसक हैं। एलिस के समालोचकों ने कहा कि "एलिस को पढ़ने से लगता है कि अपने वैसा कभी पहले नहीं पढ़ा था।"
एलिस की चंद मशहूर रचनाओं के शीर्षक रहे - "सुखद छाया का नृत्य" (1998), "युवतियों और महिलाओं का जीवन" (1971), "क्या समझते हैं ? आप कौन हैं ?" (1978), "मूंस का जूपिटर" (1982) आदि। एलिस ने उपन्यास नहीं लिखे, क्योंकि "रुचि नहीं थी।" नोबेल पुरस्कार के निर्माताओं ने लिखा - "एलिस को पढ़ने के बाद महसूस होता है कि नया पढ़ रहे हैं।" एलिस की शैली लघुकथा की वस्तुकला और शिल्प में क्रांति लाती है। इनमें विशेष रूप से वक्त के साथ आगे पीछे जाने की प्रवृत्ति में लघु कथा के विभिन्न चक्रों के साथ।
कई पुरस्कार से हुईं थीं सम्मानित
उनकी कहानियां सरल गद्य शैली में मानवीय जटिलताओं का पता लगाती हैं। उनके लेखन ने चेखव के समान एक महान लेखक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा स्थापित की। नोबेल पुरस्कार के अलावा, मुनरो को समकालीन लघु कहानी शैली में उनके काम के लिए कई पुरस्कार मिले। उन्हें अपने जीवन भर के काम के लिए 2009 में प्रतिष्ठित मैन बुकर इंटरनेशनल पुरस्कार मिला। वह फिक्शन के लिए कनाडा के गवर्नर जनरल पुरस्कार की तीन बार विजेता भी रहीं और उन्हें राइटर्स ट्रस्ट ऑफ कनाडा का 1996 मैरियन एंगेल पुरस्कार और रनवे के लिए 2004 रोजर्स राइटर्स ट्रस्ट फिक्शन पुरस्कार मिला। मगर 2013 के आसपास उन्होंने लिखना लगभग बंद कर दिया था।
एलिस ने एक किशोरी के रूप में लिखना शुरू किया था और 1950 में दो साल की छात्रवृत्ति पर वेस्टर्न ओन्टारियो विश्वविद्यालय में अंग्रेजी और पत्रकारिता का अध्ययन करते हुए अपनी पहली कहानी "द डाइमेंशन ऑफ ए शैडो" प्रकाशित की। इस अवधि के दौरान उन्होंने एक होटल परिचायिका, एक तंबाकू बीनने वाली और एक पुस्तकालय क्लर्क के रूप में काम किया। उन्होंने 1951 में साथी छात्र जेम्स मुनरो से शादी करने के लिए विश्वविद्यालय छोड़ दिया, जहां वह 1949 से अंग्रेजी में पढ़ाई कर रही थीं। वे एक डिपार्टमेंटल स्टोर में जेम्स की नौकरी के लिए डंडारेव, वेस्ट वैंकूवर चले गए। 1963 में, दंपति विक्टोरिया चले गए, जहां उन्होंने मुनरो बुक्स खोली, जो अभी भी संचालित होती है।
उनके काम का लगातार विषय, विशेष रूप से उनकी शुरुआती कहानियों में, एक लड़की के वयस्क होने और अपने परिवार और अपने छोटे गृहनगर के साथ सामंजस्य बिठाने की दुविधाएं रही हैं। हेटशिप, फ्रेंडशिप, कोर्टशिप, लवशिप, मैरिज (2001) और रनवे (2004) जैसे कामों में उन्होंने अपना ध्यान अधेड़ उम्र, अकेली महिलाओं और बुजुर्गों की कठिनाइयों पर केंद्रित किया। उनके पात्र अक्सर एक रहस्योद्घाटन का अनुभव करते हैं जो किसी घटना पर प्रकाश डालता है, और उसे अर्थ देता है। उनकी कहानियाँ सरल गद्य शैली में मानवीय जटिलताओं का पता लगाती हैं।
एलिस ने अपना उपनाम "मल्लिका" रखा था
मुनरो का गद्य जीवन की अस्पष्टताओं को उजागर करता है : "एक ही समय में विडंबनापूर्ण और गंभीर," "ईश्वरत्व और सम्मान के आदर्श वाक्य और धधकती कट्टरता," "विशेष, बेकार ज्ञान," "तीखे और प्रसन्न आक्रोश के स्वर," "ख़राब स्वाद, हृदयहीनता, इसका आनंद।" उनकी शैली शानदार और सामान्य को एक साथ जोड़ती है, जिसमें प्रत्येक एक दूसरे को इस तरह से कमतर करता है ताकि सरलता और सहजता से जीवन को उजागर कर सके है। रॉबर्ट थैकर ने लिखा : "मुनरो का लेखन पाठकों, आलोचकों के बीच एक सहानुभूतिपूर्ण मिलन पैदा करता है, जो उनमें सबसे अधिक स्पष्ट है। हम उसके लेखन की ओर उसकी सत्यता के कारण आकर्षित होते हैं : नकल, तथाकथित और "यथार्थवाद" से नहीं बल्कि खुद के होने की भावना से सिर्फ एक इंसान होने के कारण।" अपना उपनाम एलिस ने "मल्लिका" रखा था। अर्थात बेलवाला, सुगंधित पुष्प, कुटज वृक्ष, करुण पेड़ आदि। भारतीय शब्दों से कितना सामीप्य और साम्य !