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Lord Ram: एरच से प्राप्त भक्तिमनोहर में श्रीराम

Lord Ram : एरच स्थित नृसिंह भगवान के मंदिर में सर्वेक्षण करते समय निधानगिरि कृत एक पाण्डुलिपि 1986 ई. में मिली थी।

Monika
Published on: 18 Jan 2024 6:00 AM GMT (Updated on: 18 Jan 2024 6:01 AM GMT)
Shri Ram
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Shri Ram   (photo: social media )

Lord Ram : एरच उत्तर प्रदेश में बुन्देलखण्ड मण्डल के अन्तर्गत झाँसी जिले की गरौठा तहसील के अन्तर्गत बेतवा (वेत्रवती) नदी के दायें तट पर स्थित है। यह एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक स्थल है। परम्परानुसार एरच को हिरण्यकश्यपु की राजधानी कहा जाता है। यहाँ पर पाषाणकालीन अवशेषों के साथ ऐतिहासिक काल के प्राचीन अभिलेख, सिक्के, मुद्राएँ, मुद्राङ्क, मनके तथा मृद्भाण्डों आदि के अवशेष प्राप्त होते हैं।' ईसा पूर्व तीसरी-दूसरी शताब्दी के नगर-सिक्कों पर ब्राह्मी लिपि में 'एरकछ' अथवा 'एरकछं' उत्तीर्ण होता है। वर्तमान में इसे 'एरछ' अथवा 'एरच' कहा जाता है।

एरच स्थित नृसिंह भगवान के मंदिर में सर्वेक्षण करते समय निधानगिरि कृत एक पाण्डुलिपि 1986 ई. में मिली थी। जिसमें शब्दांक पद्धति से इस ग्रंथ का रचना काल संवत् 1912 बताया गया है जो रामनवमी के दिन प्रारम्भ किया गया था :

जिहि बिध हरि अवतार धर बसत सहित हुलास।

संबत भुज सिख निध ससी रामजन्म मधुमास ॥

ग्रंथ के अनुसार निधानगिरि का निवास स्थान एरच और मोंठ दोनों स्थल थाः-

वेत्रवती दुहुँ कूल पर कविनिधान गिर वास।

ऐरछ पुर थल तीर्थ सम दूजा माँठ निवास ॥

ग्रंथ-रचना के प्रयोजन के संदर्भ में निधानगिरि ने बताया है कि वेत्रवती से एक योजन की दूरी पर स्थित समथर-नरेश चतुरसिंह श्रीराम के भक्त (रामभक्ति भूपति चतुर सचिव मनोहर वीर) थे। उनके मंत्री ने हरिचरित्र के वर्णन हेतु कवि को आमंत्रित किया था :-

वेत्रवती जोजन सु इक समतर पुर रमनीय।

चतुरसिंह महराजनृप रजधानी कमनीय॥

चतुरसिंह महराज जुत सचिव प्रश्न अस कीन।

हरि चरित्र बरनन करहु भक्ति भाव लवलीन ॥

मीन कमठ जल जीव जे तिन तन हरि किम धार।

सूकर नरहरि झूप किम धरौ जक्त करतार ॥

वामन तन कैसे कियौ विश्वरूप हरिनाम।

किम क्षत्री बिन धरन किय प्रगट परसधर राम ॥

किहि कारन रघुकुल कमल भान हरन महि भार।

कहहु नाथ विस्तार जुत प्रगट राम अवतार ।।

कवन काज आभीर गृह प्रगटे कृश्न कृपाल।

विविध चरित किहि विध किये कहहु विचार दयाल ॥

विधानगिरि ने श्रीराम को ब्रह्म का अवतार ही माना है। उन्होंने कहा कि ब्रह्म का आदि अन्त नहीं होता। निर्गुण ब्रह्म संतों के हित के लिए सगुण हो जाता है (ब्रह्म आदि मध्य नहिं अंता। निर्गुन रूप सगुन हित संता।।)। भक्तिमनोहर मुख्य रूप से रामचरित्र (कहहु नाथ विस्तार जुत प्रगट राम अवतार) से सम्बन्धित है, परन्तु भगवान विष्णु के अन्य अवतारों का भी वर्णन इस ग्रंथ में है जिसमें अन्तर्कथाओं का भी सन्निवेश है। भगवत कथा के सम्बन्ध में पूर्ववर्ती सन्दर्भों को उल्लेख करते हुए कवि ने कहा है :

अस विध प्रश्न सूत प्रन कीनी। सौनकादि मुनिवर गति पीनी॥

नीमषार थल पावन रासी । जहाँ निवस रिष सहस अठासी ॥

जस विध गिरजा प्रत कहा व्यास सूत प्रत गाइ।

सूत सौनकादिकन सौं कहा अधिक सुख पाइ॥

तस विध चतुर महीपमन सादर सुनहु प्रसंग।

सावधान होकर सुचित मन अनुराग उमंग ।।

कवि ने श्री रामचरित अर्थात् भगवत कीर्तन को सर्वश्रेष्ठ माना है। उसकी महत्ता का वर्णन करते हुए कहा है :-

भगवत कीर्त्तन सब सुख दाता। सहजहिं कलुष दमन विख्याता॥

बालमीक नारद सुकदेवा । तुलसी सूरदास जयदेवा ।।

पाइ परमपद हरि गुन गाई। अबहीं कहत सुनत तर जाई।

भक्ति मनोहर का कवि निधानगिरि गोस्वामी तुलसीदास का परवत्तीं एवं अनुगामी प्रतीत होता है। अतः 'रामचरितमानस' की भाँति यह ग्रंथ भी मंगलाचरण के श्लोकों के बाद क्रमशः सोरठा और चौपाई से प्रारम्भ होता है:-

शार्दूलविक्रीडित :

हेरंवं गजआनं ससिधरं लम्बोदरं सुन्दरं

गौरीशंकरनन्दनं सिधनिधं ब्रह्माण्डपूज्यं वरम्।

कोटं कोट कलेस विघ्नसमनं भृत्यं कृपालंचिरं

पारावार अपार बुद्ध वरदं वन्दे निधानंगिरम् ।।

सोरठा : पुन सुमरतु गनराज शिवा शंभुनन्दन वरद।

करहु सिद्ध शुभ काज बुध वारद मंगल करन।।

चौपाई : वंदहुं चरन कमल सनकादी। जे समर्थ परमारथवादी ।।

प्रनवहु जगदाधार अहीसा। व्यास आदि कवि कपल मुनीसा ॥

कस्यप अत्र अगस्त समाजा। मरिच देवरिष भारद्वाजा ।।

जागबलक पुलस्त पारासर। मुनि बशिष्ठ वरगर्ग गुनाकर।

पुलह अंगरा गोतम गालव । कौसिक सतानंद जाबालव ।

सौनकादि मुनिवृंद विसाला । वंदहु चरन कमल धर भाला।।

निधानगिरि ने ऋषियों से आशीर्वाद की प्रार्थना करने के बाद अपने पूर्ववतीं कवियों एवं भगवत भक्तों की वन्दना करके हरिचरित्र का वर्णन किया है:

पुन कलि कविन प्रनाम कर हरिचरित्र जिन भाख।

होहैं हैं जे हो गये प्रनवत पद सिर राख॥

भूसुर कोविद सुर असुर ये सुमिरत भगवान।

तिन पद कमल प्रनाम कर हरिजस करत बखान ॥

गोस्वामी तुलसीदास की भाँति निधानगिरि ने भी अपने ग्रंथ में संत और असंत की वन्दना की है-

वंदहु संत चरन अरविन्दा।

जहाँ बसह मन मोर मलिन्दा।।

मृदल सुभाव परस कोमल चित।

जिमि जल तरु महि रवि ससि परहित ॥

बहुर असंतन चरन नमामी।

जिनह दर्ष प्रिय मद हित कामी ।।

परनिन्दा जिनके प्रिय लागी।

परगुन सुनत जरहिं बिन आगी।

इस ग्रंथ के अनुसार मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करने के लिए जब राम और लक्ष्मण को माँगा, तब दशरथ जी ने उन्हें देने से मना कर दिया। अतः विश्वामित्र ने कहा कि राम के अतुल बल के सम्बन्ध में आप चिन्ता न करें:-

बामदेव निज गुरु सहित बूजउ रघुकुल दीप।

तुमहीं करौ विचार मन शंका तजौ महीप ।।

समन समर सत्रन करहिं मख रक्षा उर आन।

कुसल सहित आवहिं भवन राम अतुल बल जान।।

सिव विध नारद आदि कवि सुक सनकादिक व्यास ।

रविकुल रवि कीरत विमल बरनहि सहित हुलास ॥

विश्वामित्र का संकेत पाकर गुरु वशिष्ठ ने श्रीराम को ब्रह्म का स्वरूप बताते हुए उनके अवतार का प्रयोजन बता दिया, तब दशरथ जी ने प्रेमपूर्वक राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र को सौंप दिया :-

मख रक्षा मुनि तप बल पाहीं। पुनि विवाह होइहैं सक नाहीं॥

सुत जिन जानौ इहै महीसा । ब्रह्म सरूप चराचर ईसा ॥

लिय अवतार सुनहु यह कारन । प्रगटे भूतल भार उतारन ॥

सुनत हर्ष नृपसुवन बुलाए । सादर राम लषन सिर नाए।

लिए लाइ उर कर गह लीनैं। मुनि कौं सौंप मुदित मन दीनैं।॥

कौसिक उर आनंद उमगाई। लिए लगाइ कंठ दुहु भाई॥

कीन जाइ मष वेद विध मुनि मंडल समुदाइ।

तब मारीच सकोप बल आवा सहित सहाइ।।

थोता सर रघुबीर तज बेगवंत अधिकाइ।

लागत तन निश्चर परौ सत जोजन परजाइ ।।

अमित बान तज प्रभु हनौ असुर सुबाहु प्रचंड।

जास कटक मारौ समर लछमन अति बलवंड॥

तुलसी का अनुगामी होने पर भी कवि ने कथा में अनेक परिवर्तन किया है। 'रामचरितमानस' में 'राम-केवट संवाद' राम वन-गमन के समय होता है, जबकि इस ग्रंथ में विश्वामित्र के साथ राम के जनकपुर जाने के मार्ग में यह कथा आ जाती है। इस प्रकार यहाँ पर स्थान और समय दोनों परिवर्तित हैंः-

पूरन आहुत कीन मष हर्षे सकल मुनीस।

राम लखन कौं आइ कै दई अघाइ असीस ॥

कछुक काल तहँ रह रघुनंदा । कीन अभय मुनि वृन्द अनंदा ॥

कौसिक कह सुन राम कृपाला। कीन स्वयंवर जनक नृपाला।।

अवलोकहु चल कौतुक भारे। भलहिं नाथ कह संग सिधारे।।

मग में देषी इक सिला जीव जंत नहिं कोइ।

मुनि प्रसंग सबही कहा करिय कृपा प्रभु सोड़।।

पद पंकज रज तन परस तास प्रभाव अपार ।

मुनि तिय तन पाषान वपु दिव्य देह संचार।।

कर जोरे इकटक षड़ी रघुवर रूप विलोक।

बहु विध कीन प्रसंस पुन गई हर्ष पतिलोक ॥

गमनै गंग तीर रघुनाथा। मंजन किय मुनि मंडल साथा॥

बोल खेवटह नाउ बुलाई। कहत मलाह सुनहु रघुराई।।

पद-रज चूरन मानुषकारी। जगत विदित यह कथा तिहारी॥

छुवत सिला भइ दिव्य सरीरा। देषी सब सुर सर के तीरा॥

दारउ पत अंतर कछु नाहीं। समझौ सर विचार मन माहीं।

मेरे केवल यही अधारा। पालतहीँ सब विध परवारा॥

वो हित चरन पषार चड़ाऊँ। अपर बात हिय मैं नहिं लाऊँ।

देष प्रीत प्रेम कह मुसक्याई। करौ वेग आपुन मन भाई॥

पावन पानी पांव पर प्रभुपद पदम पषार।

रघुवर पार उतार तब कुल जुत कर भव पार।।

उल्लेखनीय है कि बाल्मीकि रामायण में गंगा पार करने के बाद अहल्या- उद्धार की कथा वर्णित है। इससे पता चलता है कि गौतम ऋषि के आश्रम और जनकपुर के बीच गंगा नहीं पड़ती । बल्कि आश्रम के पहले ही गंगा पड़ जाती हैं। निधानगिरि ने अहल्या उद्धार के बाद गंगा पार करने की बात करते हुए राम-केवट संवाद को वहीं पर उपस्थित कर दिया है। इस प्रकार गौतम ऋषि के आश्रम और जनकपुर के बीच गंगा के होने की बात भौगोलिक दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है, किन्तु कथानक की दृष्टि से यहाँ पर राम-केवट संवाद समयानुकूल और कवि की प्रत्युत्पन्नमति का परिचायक है; क्योंकि अहल्या- उद्धार के तुरन्त बाद केवट द्वारा राम का चरण धोने की प्रार्थना अधिक स्वाभाविक है, जबकि तुलसीदास के ग्रंथ में 'राम-केवट संवाद' अहल्या-उद्धार के बहुत बाद की घटना है। अतः निधानगिरि द्वारा राम-केवट संवाद के प्रसंग में समय और स्थान का परिवर्तन करके काव्य में एक नया मोड़ ला देता है।

निधानगिरि अन्तर्कथाओं को जोड़ने में सिद्धहस्त हैं। धनुष यज्ञ के सन्दर्भ में फुलवाई प्रसंग के पूर्व ही राम की कोमलता और धनुष की कठोरता को सोचकर नगरवासी विविध प्रकार की कल्पना करते हैं। राजा जनक की कठोर प्रतिज्ञा की भी चर्चा करते हैं। राम और लक्ष्मण के साथ समर्थ मुनि विश्वामित्र, जिन्होंने राजा त्रिशंकु को जीवित स्वर्ग भेज दिया था और ब्रह्मा से विवाद होने पर एक नयी सृष्टि की रचना कर दी थी, को देखकर उनमें विश्वास है कि राम और सीता का विवाह अवश्य होगा :-

जिन मुनि भूप त्रिशंकु को स्वर्ग सदेह पठाइ।

विध सैं कीन विवाद पुन सिस्ट नवीन बनाइ।।

तेई विश्वामित्र मुनि आये संग सहाइ।

जान परत विध रच दियौ सिय रघुनाथ विवाह।।

'रामचरितमानस' में रावण द्वारा अपमानित होने पर विभीषण सीधे राम के पास जाते हैं, परन्तु निधानगिरि के अनुसार विभीषण माता केकसी के पास जाते हैं। यहाँ पर उनसे कुबेर मिलते हैं। भगवान शिव भी वहाँ आते हैं और विभीषण को राम के पास जाने की सलाह देते हैं। 'रामचरितमानस' के विपरीत विभीषण स्वयं न जाकर पहले मंत्री को भेजते हैं। 'भक्तिमनोहर' में रावण का दूत 'सुक' सुग्रीव को वापस लौट जाने को कहते है, परन्तु 'रामचरितमानस' में ऐसा वर्णन नहीं है।

तुलसी के अनुसार लंका-युद्ध समाप्त होने के बाद अमृत-वर्षा से बानरों को जीवित किया गया था, परन्तु इस ग्रंथ में मेघनाद के युद्ध के बाद ही बानरों को जीवित करने हेतु हनुमान द्वारा द्रोणगिरि लाये जाने का वर्णन है। निधानगिरि के अनुसार हनुमान श्रीराम से कहते हैं कि रावण रथ पर सवार है और आप के पास रथ नहीं है। अतः मेरी पीठ पर बैठकर युद्ध कीजिए। यह कथा अन्य ग्रंथों से अलग है तथा युद्ध की विधा भी स्वयं में विचित्र है।

इस ग्रंथ में जगह-जगह काल गणना भी प्राप्त होती है। इस सन्दर्भ में अयोध्या से वन-गमन तथा एक स्थान से दूसरे स्थान पर श्रीराम के पहुँचने का समय दिया गया है। समुद्र पर सेतु निर्माण के बारे में भी बताया गया है कि पहले दिन 14 योजन, दूसरे दिन 20 योजन, तीसरे दिन 21 योजन, चौथे दिन 22 योजन और पाँचवे दिन 23 योजन मिलाकर कुल 100 योजन का पुल 5 दिन में बनाया गया था।

निधानगिरि के इस प्रबन्ध काल 'भक्तिमनोहर' में 2969 चौपाई, 2324 दोहा, 3 तोटक, 2 झूलना, 4 मोतीदाम, 11 नाराच, 1 स्रग्धरा, 8 तोमर, 5 शिखरिणी, 13 चंचरी, 7 छप्पय, 7 भुजंगी 1 शार्दूलविक्रीडित, 138 गीतक, 6 त्रिभंगी, 1 कुण्डलिया, 5 कवित्त और 46 सोरठा छन्दों का प्रयोग किया गया है :-

रच चौपही दो सहस नव सत उनत्तर ऊपर सही।

दोहा कहे तेईस सत चौबीस तापरस धारही।

पुन तीन तोटक झूलना दो चार मौतीदाम हैं।

नाराच ऐकादस बखानै श्रग्धरा इक नाम है।

पुन अष्ट तोमर सिखरनी पच चंचरी तेरा भनी।

फिर सप्त छप्पद भुजंगी रिष सारदूल इका गनी।।

भन ऐक सत अरतीस गीतक त्रभंगी षट दीस है।

रच ऐक कुंडिलिया कवित पच सोरठा छ्यालीस है।

इस प्रकार निधानगिरि ने 'भक्तिमनोहर' में 5551 छन्दों के माध्यम से रामचरित का अनुपम वर्णन किया है जो सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है।

सन्दर्भ :

1. Srivastava, Om Prakash Lal, Archaeology of .. of New Dynasties, Sulekh Prakashan, Varanasi, 1791; एरच के अभिलेख एवं सिक्के; ब्रज संस्कृति शोध संस्थान, वृन्दावन, 2019; Erach

कला और संस्कृति में श्रीराम :: 180

Rediscovered: Coins Inscription Seals and Sealings, Rajgar's Heritage Hut Mumbai, 2020.

2. Srivastava, Om Prakash Lal: To Types of City coins of Erach Numismatic Digest, Vol. 21-22 (1997-98) p. 1-3; Third Var.. of City Coins of Erakachha, Journal of Numismatic Society of India, Vol. 54-55, р. 10

3. श्रीवास्तव, ओम प्रकाश लाल रामचरित की दुर्लभ पाण्डुलिपि भक्तिमनोहर, मीरायन, मीरा स्मृति संस्थान, चित्तौड़गढ़ वर्ष 1, अंक 2 (पूर्णांक 30) जून-अगस्त 2014, पृ. 42-45

4. पंच सहस सत पाँच इक पचास ऊपर गनौ। श्रवन सुनत मन राच गावहिं सुजन समाज सुच।।

(यह लेख ‘कला व संस्कृति में श्रीराम’ पुस्तक से लिया गया है। यह पुस्तक उत्तर प्रदेश के संस्कृति विभाग द्वारा मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के संरक्षक , संस्कृति व पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह के मार्ग दर्शन , प्रमुख सचिव पर्यटन व संस्कृति मुकेश कुमार मेश्राम के निर्देशन, संस्कृति निदेशालय के निदेशक शिशिर तथा कार्यकारी संपादक तथा अयोध्या शोध संस्थान के निदेशक डॉ लव कुश द्विवेदी के सहयोग से प्रकाशित हुई है। )

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पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझे 4 सालों का अनुभव हैं. जिसमें मैंने मनोरंजन, लाइफस्टाइल से लेकर नेशनल और इंटरनेशनल ख़बरें लिखी. साथ ही साथ वायस ओवर का भी काम किया. मैंने बीए जर्नलिज्म के बाद MJMC किया है

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