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Unemployment in India: भारत में ये बीमारी न बन जाये महामारी ?
Bharat Me Naukari Na Milne Ki Wajah: यूपी बिहार वाले अपनी राजधानियों से लेकर दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई तक दौड़ लगा रहे हैं। पंजाब, हरियाणा वालों ने और भी बढ़िया जुगाड़ निकाल लिया है।
Bharat Me Naukari Na Milne Ki Wajah: भारत एक युवा देश। पहले तो था। पता नहीं अब है कि नहीं। 2011 के बाद से जनता की गिनती हुई नहीं सो कुछ पक्का पता नहीं। खैर, युवाओं की अच्छी खासी तादाद तो है ही। युवा हैं सो काम भी चाहिए, पैसा भी चाहिए। इसी की चाहत में युवा लगे हुए हैं। हर जतन कर रहे। सबको चिंता है कुछ करने की। उम्मीद और हसरत है सब कुछ पाने की। इसी उम्मीद में इधर से उधर भागते फिर रहे हैं। कोई बड़ा शहर नहीं जहां मुफस्सिल कस्बों और गांवों से आये तमाम युवाओं की भीड़ न मिलती हो। यूपी बिहार वाले अपनी राजधानियों से लेकर दिल्ली, मुम्बई, चेन्नई तक दौड़ लगा रहे हैं। पंजाब, हरियाणा वालों ने और भी बढ़िया जुगाड़ निकाल लिया है। वो येन केन प्रकारेण यूरोप, कनाडा या अमेरिका जाने में दिन रात एक किये हुए हैं।
सबको कहीं न कहीं जाना है। कइयों ने यहां वहां काम पा लिए हैं। बहुत से तो अच्छे काम की उम्मीद में पढ़ाई दर पढ़ाई में लगे हुए हैं। जो ये भी नहीं कर पा रहे, फिलवक्त कहीं जा भी नहीं पा रहे वो समय काटने के लिए लखनऊ, पटना, या ऐसे ही किसी शहर में मोमो बेच रहे या ई रिक्शा चला कर काम चला रहे हैं। नई पौध में ऐसे भी कम नहीँ जो जेल में बंद गैंगस्टरों के गिरोह में भर्ती हो कर नाम और पैसा कमाने की कोशिश में हैं।
जो ये सब कुछ भी नहीं कर रहे। जिनको न गैंग की भर्ती चाहिए न कनाडा - मुंबई और न ही ई रिक्शा, वो डिग्रियां लेकर सरकारी नौकरी के एग्जाम देने में अपनी सरकारी उम्मीद बनाये रखे हैं और अपने मां बाप की सपनीली तसल्ली की जोत जलाए हुए हैं। लेकिन सरकारी नौकरियों की चाहत संजोए ऐसे युवा भी अब जान रहे कि रिज़र्वेशन का सूरज ढलने से रहा। सरकारी नौकरियों की पोस्टें बढ़ना तो दूर, उतनी ही बनी रहें तो बड़ी बात होगी। नई सहस्त्राब्दी में जन्मे युवाओं को सभी सच्चाइयां अब तक तो पता चल ही गईं हैं।
देश के कर्णधारों की असलियत जान सब रहे हैं पर चर्चा कम ही है। यदाकदा कोई बोल दे लिख दे। सरकार बोले भी तो क्या बोले। वो तो भला हो हमारे उपराष्ट्रपति धनखड़ का जिन्होंने कम से साफगोई तो की कि इसी साल यानी 2024 में 13 लाख युवा पढ़ाई के लिए विदेश चले गए। धनखड़ जी ने ये भी बताया है कि इतने लाखों युवाओं के बाहर चले जाने से 6 अरब डॉलर का फॉरेन एक्सचेंज भी चला गया है। उपराष्ट्रपति जी ने कहा है कि बच्चों की विदेश जाने की ये एक नई बीमारी है।
इस पर अब कोई क्या ही कहे। पढ़ाई के लिए बाहर जाना अगर नई बीमारी है तो फिर तो हमारे तमाम नेताओं, बड़े लोगों, अमीरों - इन सभी के बच्चों में यही बीमारी है। वो भी आज से नहीं, बरसों बरस से। यही बीमारी तो उन हजारों युवाओं में भी है जो पढ़ाई के बहाने नहीं बल्कि दूसरे अवैध जुगाड़ से जान जोखिम में डाल कर अमेरिका - यूरोप में घुसते हैं। बीमारी का नाम तो दे दिया लेकिन सवाल तो ये है बीमारी आई कहाँ से? पैदा कैसे हुई? इतना बड़ा देश, पढ़ाई के लिए अनगिनत कालेज - यूनिवर्सिटी, स्वरोजगार की ढेरों स्कीमें, नौकरियों की भरमार, सब कुछ तो है यहां फिर बीमारी क्यों?
जवाब कोई रहस्य नहीं। जवाब सब जानते हैं। जवाब गिनाने का कोई मतलब भी नहीं बनता। बीमारी सिर्फ हमारे यहां नहीं बल्कि कई और देशों में भी है। बांग्लादेश को ही लीजिए। उनमें भी जुगाड़ वाले यूरोप-अमेरिका जा रहे हैं और जिनका कोई कूव्वत जुगाड़ नहीं वो भारत में आ के कूड़ा कबाड़ बीनते हैं। हमारा दूसरा पड़ोसी नेपाल भी इसी में है। वहां वाले भी उज़्बेकिस्तान से लेकर मेक्सिको और अमेरिका तक पहुंच रहे हैं। बेचारे गरीब और बिना जुगाड़ वाले हमारे यहाँ होटलों में खाना बना रहे। बीमारी हमारे जैसे हर मुल्क में है। अमीर मुल्कों के युवाओं में ये बीमारी तो नहीं है लेकिन दूसरे देशों के ‘बीमार’युवा वहां कुछ और ही बीमारी फैला रहे सो वहां के दरवाजे भी अब ज्यादा खुले रहने वाले नहीं।
150 प्लस की आबादी वाले हमारे देश में युवा शक्ति का एक और मंजर आंध्र प्रदेश से आया है। वहां के प्रगतिवादी नेता चंद्रबाबू नायडू ने ऐलान किया है कि उनके राज्य में ज्यादा बच्चे पैदा करने को प्रोत्साहित किया जाएगा क्योंकि राज्य में युवा आबादी कम हो गई है और बूढ़े बढ़ गए हैं। नायडू साहब ने कहा है कि युवाओं की कमी की वजह उनका अन्य राज्यों और विदेशों में चले जाना है। वैसे भले ही नायडू जी न कहें लेकिन आंध्र के युवा कोई यूपी, बिहार या दिल्ली में चाकरी करने थोड़ी ही चले गए होंगे। सच्चाई तो ये है कि इजरायल से लेकर अमेरिका तक तेलुगुभाषियों की भरमार है। हैदराबाद में तो वीसा की मन्नत मांगने के लिए एक मशहूर मन्दिर तक है जहां हर दिन भीड़ होती है।
बात गम्भीर है। हैरान करने वाली भी। पचासों साल में ये तो पहली बार सुना कि भारत में ज्यादा बच्चे पैदा करने की डिमांड हो रही है। आंध्र जैसे राज्य में जहां काम की कमी नहीं, उद्योग धंधों की कमी नहीं, वहां ऐसा होना अचंभित करता है। ये ट्रेंड जिस रफ्तार और जिस शिद्दत से बढ़ रहा है वह बेहद गंभीर अंतर्निहित बीमारी का एक स्पष्ट लक्षण है। बीमारी को महामारी बनते देर नहीं लगती। ऐसा हुआ तो फिर क्या होगा? हुनरमंद, काबिल तो निकल लेंगे। जो बच जाएंगे उनका क्या? बात कड़वी है लेकिन दुर्भाग्य से सच्चाई यही है कि हमारे पास भीड़ ज्यादा है, हुनरमंद ढूंढे नहीं मिलते। हमारे अनगिनत ट्रेनिंग संस्थान, कॉलेज, यूनिवर्सिटी वगैरह डिग्रियां और तथाकथित हुनर के सर्टिफिकेट बांट जरूर रहीं लेकिन ये कितने काम के हैं ये जानते सब हैं।
तो फिर होगा क्या? सवाल बहुत हैं लेकिन जवाब मिल ही नहीं रहा। युवाओं की चिंता करने वाले अधेड़ और वृद्ध क्या अब भी बीमारी का कोई इलाज ढूंढ पाएंगे या ढूंढना भी चाहेंगे, इस पर भरोसा कम, संदेह ज्यादा है। फिर भी, पुरानी कहावत याद कर लेते हैं कि उम्मीद पर कायनात कायम है। सो हम भी कर लेते हैं, आप भी कर लीजिए।
( लेखक पत्रकार हैं ।)