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ये कहां आ गए हम, नहीं बदल पाई गुलामी की मानसिकता

raghvendra
Published on: 26 Oct 2018 10:43 AM GMT
ये कहां आ गए हम, नहीं बदल पाई गुलामी की मानसिकता
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मदन मोहन शुक्ला

आजादी के ७२ वर्ष हमने पूरे कर लिए इसकी खुशी है लेकिन ये दर्द भी है कि देश तो आजाद हुआ लेकिन हम गुुलाम होते चले गए, मानसिकता, आचार-विचार और व्यवहार के स्तर पर। आजादी को हमने उच्छ्रंखल स्वभाव की ढाल मान लिया है। अपनी आजादी के नाम पर दूसरों की आजादी में दखलंदाजी करने लगे। सद्भाव, भाईचारा प्रेम और बंधुत्व सब बेमानी हो गए। सडक़ों-सार्वजनिक स्थलों पर उत्पात मचाना, सार्वजानिक सम्पति को नुकसान पहुंचाना, प्राकृतिक संसाधनों को तहस-नहस करना, गंदगी फैलाना वगैरह, ये सब क्या है? हम जिस मानसिकता के गुलाम हैं, क्या हमारे महापुरुषों ने यही सपना देखा था ?

अगर इतिहास के पन्नों को पलटे तो 1950 में लागू हुए संविधान द्वारा निर्देशित भारतीय राज्य धर्मनिरपेक्ष होने की इच्छा रखता है लेकिन व्यहार में धर्म ने भारतीय राज्य के तंत्र में गहराई से प्रवेश किया है। धर्मनिरपेक्षता तर्कसंगत और उदार विचारों का एक आन्दोलन है जो व्यक्ति के सार्वजनिक जीवन में धर्म की भूमिका को कम करने की कोशिश करता है। लेकिन जो भी दल सत्ता में रहे इस पर चोट करते रहे। एक और त्रासदी रही जातिवाद की। आजादी के बाद इसे समाप्त होना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

1970 के दशक में गैर कांग्रेस दलों ने जाति और धर्म के नाम पर मोर्चा खोला तो कांग्रेस ने दलित कार्ड को हवा दी। इस तरह समाज को धर्म और जाति के आधार पर बांटने का खेल कांग्रेस ने शुरू किया और बाकी दलों ने इसे आगे बढ़ाया। जिसका वीभत्स रूप आज देखने को मिल रहा है। कांग्रेस जब भी सत्ता में रही उसने अपने राजनीतिक लाभ के लिए इसका जमकर दोहन किया। वस्तुत: इसकी शुरुआत आपातकाल के ठीक बाद इंदिरा गांधी ने की थी। फिर 1980 के चुनाव के दौरान राजनीति के अपराधीकरण की जनक भी इंदिरा गांधी रहीं। अपने विरोधियों को काउंटर करने के लिए अपराधियों को संरक्षण दिया वो ही बाद में नेता बन बैठे, आज उसका नतीजा हमारे सामने है। सफेदपोश माफिया और अपराधी नेता बने हुए हैं और पुलिस संरक्षण में घूम रहे हैं। ये कैसा लोकतंत्र है जिसमें हमारे मंत्री सजायाफ्ता मुजरिमों को बेशर्मी से माला पहनाते हैं फिर उतनी ही बेशर्मी से इस कृत्य के लिए माफी मांग लेते हैं। एक और मंत्री अभियुक्त के जनाजे में उसके शव को तिरंगे में लपेटने को जायज ठहराते हैं। पिछले दो सालों में भीड़ ने अलग-अलग कारणों से सौ से ऊपर लोगों को पीट-पीट कर मार दिया और नेता लोग उन्माद भडक़ाने वाले भाषण देते रहे।

अब इतिहास को जिस तरह तोड़ मरोड़ कर पेश किया जा रहा है वह भी चिंता का विषय है। ये वोट की राजनीति नहीं तो क्या है? पहले युद्ध सत्ता के लिए होते थे न कि धर्म के लिए लेकिन आज के नेता तो हर चीज को धर्म से जोड़ रहे हैं। धर्म का इतना विकृत रूप तो कभी नहीं देखा गया। अब चुनाव करीब आते ही मंदिर - मस्जिद का मसला फिर उठ खड़ा हो रहा है।

अगर राष्ट्र में सच्चा लोकतंत्र कायम करना है तो हर क्षेत्र में व्यापक बदलाव करने होंगे। हमने गोरों को तो देश से निकाल दिया लेकिन गोरों की नीतियां, उनके बनाए कानून, उनकी बनाई प्रशासनिक-पुलिस-न्यायपालिका की व्यवस्था हम अब भी ढोए जा रहे हैं। क्या आजादी की लड़ाई सिर्फ गोरों को भगाने तक ही सीमित थी या अंग्रेजों की दमनकारी, जन विरोधी नीतियों से छुटकारा पाने की थी? ये सवाल हर भारतीय को पूछना चाहिए।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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