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सामाजिक चिंता: घर के अंदर के प्रदूषण को दूर करना जरूरी

raghvendra
Published on: 2 Dec 2017 7:50 AM GMT
सामाजिक चिंता: घर के अंदर के प्रदूषण को दूर करना जरूरी
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इनडोर अर्थात घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण के सेहत पर पडऩे वाले भारी नकारात्मक दुष्परिणामों के बावजूद दुनिया के लगभग पचास प्रतिशत घरों के लोग खाना पकाने के लिए ठोस जैवपिंड का ईंधन ही इस्तेमाल करते हैं। भारत में हालात और भी खराब हैं, जहां 83 प्रतिशत ग्रामीण घरों के लोग और लगभग 20 प्रतिशत शहरी घरों के लोग अभी भी खाना बनाने के प्राथमिक ऊर्जा स्रोत के रूप में लकड़ी या गोबर का इस्तेमाल करते है। एक अनुमान के अनुसार परंपरागत चूल्हे में इस प्रकार की बिना प्रोसेस की हुई जैवपिंड की ऊर्जा को जलाने से लगभग आधे मिलियन लोग हर साल अकाल मृत्यु के शिकार होते हैं।

वैश्विक भार के हाल ही के रोग संबंधी अध्ययन के अनुसार भारत में ठोस ईंधन जलाने से घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण के कारण सेहत पर सबसे अधिक नकारात्मक प्रभाव पड़ता है क्योंकि इससे किसी अन्य कारण के मुकाबले सबसे अधिक मौतें और बीमारियां होती हैं। महिलाओं और बच्चों पर सबसे अधिक बुरा असर पड़ता है क्योंकि वे ही सबसे अधिक समय घर के अंदर बिताती हैं।

मिट्टी के तेल, लिक्विड गैस या बायोगैस जैसे ईंधन के साफ-सुधरे विकल्प का प्रयोग करने से कई जानें बचायी जा सकती हैं और घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण के खतरों को कम किया जा सकता है, परंतु अफसोस की बात तो यह है कि भारत में इस संक्रमण की गति बहुत धीमी है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण (एनएसएस)के डेटा से पता चलता है कि खाना बनाने के लिए प्रयुक्त गंदे ईंधन के कारण घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण से प्रभावित होने वाली कुल आबादी पिछले दो दशकों में और बढ़ गयी है जबकि इस प्रकार के ईंधन का प्रयोग करने वाले घर के लोगों के प्रतिशत में कुछ हद तक कमी आई है।

भारत में इसके सेहतमंद विकल्प के संक्रमण की गति इतनी धीमी क्यों है? निश्चय ही इसके कुछ महत्वपूर्ण कारण हैं, बढ़ती गरीबी, साफ-सुथरे ईंधन के विकल्प की बढ़ती कीमतें, ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी सीमित पहुंच और लकड़ी बीनने और गोबर जुटाने के मुकाबले समय की कम लागत होना। भारतीय महिलाओं के प्रति भेदभाव भी इसका एक महत्वपूर्ण कारण है। महिलाओं के पास निर्णय लेने के सीमित अधिकार हैं और वे अपने बच्चों के साथ भारी तकलीफ सहते हुए और अपनी व अपने बच्चों की सेहत को खतरे में डालकर भी खाना बनाने की अधिकांश गतिविधियों में संलग्न रहती हैं। अगर महिलाओं के हाथ में अपनी सेहत और कल्याणकारी कामों से संबंधित निर्णय के समान अधिकार हों तो भारत में साफ सुथरे ईंधन के विकल्प के प्रति संक्रमण की गति में तेजी आ सकती है।

इस अनुमान का परीक्षण तब हुआ था जब राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण और जिला स्तरीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण द्वारा भारतीय परिवारों की सेहत और कल्याणकारी कामों पर किये गये दो सर्वेक्षणों के डेटा का प्रयोग किया गया था और यह पाया गया था कि ऐसे घरों में जहां महिलाओं के पास निर्णय लेने का समान अधिकार होता है या अंतिम निर्णय लेने का अधिकार होता है वहां साफ सुथरे ईंधन के विकल्प का उपयोग करने की संभावना अधिक होती है।

इसके अलावा शहरी भारत के ऐसे घरों में जहां महिलाओं की पहली संतान बेटे के रूप में होती है, वहां उन घरों की तुलना में जहां महिलाओं की पहली संतान बेटी के रूप में होती है, साफ सुथरे ईंधन के विकल्प का उपयोग करने की संभावना अधिक होती है। बच्चे के लिंग और साफ-सुथरे ईंधन के विकल्प का उपयोग करने की संभावना के बीच का संबंध मात्र संयोग नहीं है, बल्कि सकारण है। भारतीय घरों के लोगों में बच्चे के लिंग का संबंध ईंधन का साफ-सुथरा विकल्प चुनने के निर्णय पर क्यों आधारित है?

सबसे पहली बात तो दस्तावेजों से भी तय यह है कि बेटा होने से ऐसे समाज में जहां सबकी पहली पसंद ही बेटा हो, औरत की सामाजिक हैसियत बढ़ जाती है। मिशिगन विश्वविद्यालय की डॉक्टरेट की एक छात्रा लॉरा जमिरमैन का कहना है कि भारतीय महिलाओं की बेटे को जनने के बाद घरेलू मामलों में निर्णय लेने की हैसियत बढ़ जाती है। यही हाल चीनी महिलाओं का भी है। बेटे को जनने के बाद महिलाओं की परिवार में निर्णय लेने की हैसियत बढऩे से अपनी सेहत और जीवन की स्थितियों में सुधार लाने के लिए खाना बनाने के लिए ईंधन का साफ-सुथरा विकल्प चुनने का उनका अधिकार भी बढ़ जाता है।

दूसरी बात यह है कि इनडोर अर्थात घर के अंदर होने वाले वायु प्रदूषण का बच्चों की सेहत पर बुरा असर पड़ता है। यदि बेटा पैदा होता है तो घर वाले उसकी सेहत में निवेश करने के लिए जैवपिंड ईंधन से निकलने वाले असुरक्षित धुएं से उसका बचाव करने की कोशिश करते हैं और यदि बेटी पैदा होती है तो वे ऐसा नहीं करते क्योंकि उसकी सेहत के लिए परिवार को कोई चिंता नहीं होती। भारत के अधिकांश भागों में वयस्क महिलाएं अपने पति के परिवार के साथ ही रहती हैं ताकि घर के लोग बेटों के आरंभिक जीवन में अधिकाधिक निवेश का लाभ उठा सकें।

इन परिणामों से पता चलता है कि भारतीय घरों में रहने वाले लोग लैंगिक आधार पर भेदभाव करते हैं और इसका महिलाओं और बच्चों की सेहत पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। इस अनुसंधान के अलावा भी और भी कई प्रमाण मिले हैं जिनसे जाहिर होता है कि महिलाओं की हैसियत व सशक्तीकरण तथा ईंधन का साफ-सुथरा विकल्प चुनने के बीच संबंध है। उदाहरण के लिए ऐस्थर डफ्लो और उनके सहलेखकों ने पाया है कि ग्रामीण ओडीसा के ऐसे घरों में जहां बचत समूहों की सदस्य होने के कारण महिलाओं का अधिक सशक्तीकरण हो गया है, वहां इस बात की संभावना है कि 2 से 3 प्रतिशत अधिक महिलाएं ईंधन के साफ-सुथरे विकल्प को ही चुनें। इसी प्रकार पड़ोसी बंगलादेश में किये गये एक प्रयोग से जाहिर होता है कि यदि अच्छे किस्म के स्टोव मुफ्त में मिलते हों तो पुरुषों की तुलना में महिलाएं ऐसे स्टोव लेने का प्रयास करती हैं और यदि ऐसे स्टोवों के लिए कुछ पैसा देना पड़ता हो तो वे इन्हें नहीं ले पातीं क्योंकि उन्हें खरीदने के लिए जिस पैसे की दरकार होती है उस पर उनका नियंत्रण नहीं होता।

यदि ईंधन के साफ-सुथरे विकल्प को चुनने की धीमी गति का संबंध महिलाओं की हैसियत से है तो भारत में और संपूर्ण दक्षिण पूर्वी एशिया में जहां बच्चों की देखभाल का अधिकतर दायित्व महिलाओं पर है और उनके परिवार में उनकी हैसियत ऊंची नहीं है तो बच्चों की सेहत को सुधारने में यह एक बहुत बड़ी बाधा है। महिलाओं की अस्थिर हैसियत के कारण ईंधन के साफ-सुथरे विकल्प को चुनने का अधिकार न होने के कारण गर्भ में पल रहे शिशु या अपनी मां के साथ अधिकतर समय बिताने वाले बच्चे भी घर के अंदर होने वाले खतरनाक वायु प्रदूषण से अक्सर प्रभावित होते हैं।

भारत सरकार मिट्टी के तेल और एलपीजी पर उदारतापूर्वक सहायता प्रदान करती है और इस प्रकार ईंधन के साफ-सुथरे विकल्प को चुनने के लिए प्रोत्साहन देती है। आज के समय में घरेलू उपभोक्ता मिट्टी के तेल की वास्तविक लागत से लगभग एक तिहाई कम कीमत पर और एलपीजी की कुल लागत से लगभग आधी कीमत देकर इन्हें प्राप्त कर लेते हैं। यदि सहायता की यह राशि घर की महिलाओं के हाथ में सीधे ही आ जाती है तो जैवपिंड के ईंधन से संक्रमण की प्रक्रिया में सहायता की राशि देकर ही तेजी लाई जा सकती है, लेकिन जरूरी है कि नकद राशि बेहतर कल्याणकारी परिणामों के लिए सीधे महिलाओं के हाथ में ही हस्तांतरित की जाए। खाना बनाने के लिए ईंधन और अन्य कल्याणकारी कामों के लिए सीधे प्रस्तावित लाभ अंतरण प्रणाली (डीबीटी) को लागू करते समय नीतिनिर्माताओं को इस बात का ध्यान रखना चाहिए।

अविनाश किशोर

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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