TRENDING TAGS :
सोनिया आखिर मान ही गईं प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाने पर
लखनऊ: पिछले पंद्रह साल से कांग्रेस में प्रियंका गांधी वाड्रा को सक्रिय राजनीति में लाने की चर्चा लगातार चलती रही है। यह चर्चा उस वक्त दब जाती थी जब किसी लोकसभा या विधानसभा चुनाव में कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन करती थी। शुक्रवार की रात इलाहाबाद में पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाने पर अखिरकार राजी हो ही गईं । पार्टी कार्यकर्ताओं का आग्रह था कि लोकसभा का अगला चुनाव प्रियंका इलाहाबाद से लड़ें। सोनिया ने कहा, वह इस पर गंभीरता से विचार करेंगी। सिर्फ विचार शब्द ने यूपी में पार्टी कार्यकर्ताओं में नया जोश भर दिया।
राजनीति से इतर भी लोग मानते हैं कि प्रियंका में दादी इंदिरा की छवि दिखती है। लोगों से मिलने और बात करने का अंदाज पुराने लोगों को दिवंगत इंदिरा गांधी की याद दिलाता है।
यूपी नेहरू गांधी परिवार की हमेशा से राजनीतिक जमीन रही है। पंडित नेहरू ने आजादी के बाद इलाहाबाद की फूलपुर सीट से 1952,1957 और 1962 का चुनाव लड़ा और जीता। तो उनके दामाद फिरोज गांधी राबरेली सीट से जीते। उनके निधन के बाद यह सीट विरासत में इंदिरा गांधी को मिली। लोकसभा के 1977 के चुनाव को छोड़ दिया जाए तो वह लगातार इसी सीट से विजयी होती रहीं।1977 की हार उनके प्रति आपातकाल का गुस्सा था लेकिन जनता पार्टी के बेमेल कई दलों के गठबंधन के अलग होते ही लोकसभा चुनाव हुए और इंदिरा गांधी को फिर सत्ता में ला दिया ।
रायबरेली और बाद में बनी अमेठी सीट पर इस परिवार को कोई भी चुनौती देने वाला नहीं रहा। लेकिन लोकसभा के 2014 के चुनाव में कांग्रेस सिर्फ अमेठी ओर रायबरेली सीट पर ही जीत हासिल कर सकी। अमेठी से राहुल और रायबरेली से सोनियां गांधी को जीत मिली। कांग्रेस में एक बार फिर प्रियंका को राजनीति में लाने की सुगबुगाहट तेज हो गई और यह पहली बार नहीं हुआ। लोकसभा या विधानसभा चुनाव में इन दो सीटों की कमान प्रियंका कई सालों से संभालती रही हैं। बाहर की सीटों पर उनका जादू पहली बार 1999 के लोकसभा चुनाव में दिखा। उन्होंने सुलतानपुर, बाराबंकी सीट पर पार्टी प्रत्याशी के पक्ष में प्रचार किया।
सुलतानपुर सीट से गांधी नेहरू परिवार के सदस्य अरुण नेहरू बीजेपी के प्रत्याशी थे और उनकी जीत तय मानी जा रही थी। लेकिन प्रियंका की एक जनसभा ने अरुण नेहरू को पहले से पांचवें स्थान पर पहुंचा दिया। उन्होंने जनसभा में कहा आपने मेरे पिता के साथ गद्दारी करने वाले को घुसने कैसे दिया। इस एक लाईन में जादू था और अरुण नेहरू के हाथ आई जीत फिसल गई। बाराबंकी में उनके प्रचार ने पीएल पुनिया की जीत पक्की कर दी थी ।
प्रियंका से लखनऊ सीट पर भी प्रचार करने को कहा गया। इस सीट से बीजेपी के कद्दावर नेता अटल बिहारी वाजपेयी मैदान में थे लिहाजा प्रियंका ने राजनीतिक मर्यादा को ध्यान में रखते हुए प्रचार से मना कर दिया।
कांग्रेस में प्रियंका को सक्रिय राजनीति में लाने की गुजारिश अक्सर अध्यक्ष सोनिया गांधी से की जाती रही। उन्होंने हमेशा इसके लिए मना किया और मां की इच्छा को ध्यान में रखते हुए प्रियंका भी आने से मना करती रहीं।
राहुल गांधी सक्रिय राजनीति में आए लेकिन वह वैसा करिश्मा नहीं दिखा सके जिसकी उम्मीद कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता कर रहे थे। संभवतः यही कारण रहा होगा कि सोनिया, प्रियंका को सक्रिय राजनीति में आने से रोक रही थी। लोकसभा के पिछले चुनाव में कांग्रेस को राहुल गांधी से बड़ी उम्मीद थी लेकिन वह असफल साबित हुए। कुछ राज्य में तो हालत यह थी कि जिन-जिन क्षेत्रों में राहुल से सभा की वहां कांग्रेस बुरी तरह हारी।
यहां तक कि कांग्रेस अपना दक्षिण भारत का गढ़ भी नहीं बचा सकी ।
राजनीतिक प्रेक्षक यह मानते हैं कि सोनिया की उम्मीद अब राहुल से टूट चुकी है। कैंसर जैसी बीमारी ने भी कांग्रेस अध्यक्ष को अंदर से तोड़ा है। उनकी पूरी आशा अब प्रियंका पर आ टिकी है। वह यह अच्छी तरह समझ रही हैं कि उनके नहीं रहने पर देश की इस सबसे पुरानी पार्टी का अस्तित्व बना रहना मुश्किल होगा ।