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हिंदी दिवस पर विशेष: मुद्दे, मौत, मदारी, और हमारी राष्ट्रीय मीडिया
आज प्रभाष जोशी जी की याद आ रही है। राजेंद्र माथुर जी और अज्ञेय की भी बहुत याद आ रही है।
संजय तिवारी
लखनऊ : आज प्रभाष जोशी जी की याद आ रही है। राजेंद्र माथुर जी और अज्ञेय की भी बहुत याद आ रही है। रघुवीर सहाय की भी याद आ आ रही है। इनमे से किसी की पुण्यतिथि या जयंती भी नहीं है। हिंदी दिवस भी अभी 24 घंटे बाद है। फिर भी इन सभी की याद आ रही है।
इस याद की वजह आज की हमारी राष्ट्रीय मीडिया है। मुद्दे, मौत और मदारियों का झुंड ही कहना ठीक होगा। किसी को अगर खूब बुरा लगे, पर आज लिखूंगा। आज़ाद भारत की मुख्यधारा की मीडिया के पतन का अब की हिंदी दिवस की पूर्व संध्या आते आते परम पड़ाव दिख रहा है। टीवी स्क्रीन पर चीखती चिल्लाती लड़कियों यानि महिलाओं को पत्रकार तो मैं नहीं कहूंगा लेकिन मीडियाकर्मी तो वे हैं ही। जितने नामों का मैंने ऊपर जिक्र किया है, शायद ही उनके बारे में इनको कोई ख़ास जानकारी हो। ये लोग ही देश की धारा तय कर रहे हैं।
दुर्भाग्य ही है कि आज़ाद भारत में 70 वर्ष के बाद तक ट्रेंड सेटर हिंदी पत्रकारिता खड़ी नहीं हो सकी। ऊपर जितने नाम लिखे वे बहुत हद तक ऐसा कर पाते थे लेकिन आज किसका नाम लें ? किस अखबार , पत्रिका या चैनल का नाम लें?
आज सुबह ही एक प्रख्यात कथाकार से बात हो रही थी। उनकी चिंता थी कि पिछले हफ्ते भर में कुछ लिख ही नहीं पा रहीं। कारण यह कि टीवी पर एक या दो मुद्दों को लेकर इतना शोर हो रहा है , ऐसा ऐसा दिखाया जा रहा है कि दिल और दिमाग का कचरा बन गया है। अखबारों में कुछ ऐसा है नहीं जहां से कोई दिशा दिखे।
रचनाकार की सोच भी प्रहार झेल रही है। उन्होंने कहा कि यह केवल उनकी अनुभूति नहीं है, उनकी जिन जिन साहित्यकारों, कथाकारों से बात हो रही है, सभी इसी व्यथा में है। मुझे याद आया- हमारे पूर्वज पत्रकार हम लोगों को बताया करते थे कि अख़बार में कभी भी विकृति को बहुत मत ताना करो, इससे समाज पर बुरा असर पड़ता है। लगभग 20 साल पहले एक बार प्रभाष जी से बात हो रही थी। न्यूज़ के कंटेंट पर। बोले- कोई खबर करते हो तो यह तय कर लो की जिसके बारे में लिख रहे हो, उसके स्थान पर तुम होते तो क्या सोचते और तुम्हारे ऊपर क्या प्रभाव पड़ता और तुम्हारी कहानी, यानि खबर का समाज पर क्या असर होने वाला है। यदि असर ख़राब दिख रहा है तो कतई सतर्क होकर प्रस्तुत करना।
आज सोचना पड़ रहा है कि क्या मीडिया नाम की कोई विधा ज़िंदा भी है ? मुझे तो केवल मदारी ही दिख रहे हैं हर तरफ। जिस तरह मदारी अपने झप्पे पर कपड़ा डाल कर उसके अंदर से खून से लथपथ एक फेफड़ा निकाल कर इकठ्ठा हो चुकी भीड़ को अपना चूरन या अर्कबालमखीरा खरीदने को मज़बूर कर देते थे, वही आज का कथित राष्ट्रीय मीडिया भी कर रहा है। जोर जोर से अपने सिताबी को जगाता है, डमरू बजाता है, पहले एक गमछा सांप बना कर जमीन पर रख देता है , जब भीड़ जुट जाती है तब गमछे के ऊपर झप्पी रख देता है, फिर झप्पी हटाता है, असली सांप दिखाता है , सिताबी चिल्लाता है।
हमारी मदारी मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार संजय सिन्हा की एक पोस्ट का एक हिस्सा यहां देना उचित लगता है। जिन दिनों मैं अमेरिका में था, एक सिरफिरा बच्चा हाथ में बंदूक लेकर स्कूल में घुस गया था और उसने अंधाधुंध गोलियां चला कर कई बच्चों को मार डाला था। बाद में, उसने खुद को भी खत्म कर लिया था। स्कूल में गोली चली, कई बच्चे मर गए। एक टीचर की भी जान चली गई थी। ख़बर जंगल में आग की तरह फैली थी। फटाफट सभी बच्चों को उनके घर भेजने का इंतज़ाम स्कूल की ओर से किया गया था। मां-बाप को तुरंत खबर की गई। पुलिस ने पूरे इलाके को घेर लिया था। राष्ट्रपति ने तुरंत शोक संदेश जारी किया था और सभी बच्चों और उनके मां-बाप को न घबराने की सलाह दी गई थी।
इतना ही कहा गया था कि ये एक सिरफिरे का काम है, दुखद है। स्कूल प्रशासन और नगर प्रशासन ने मारे गए बच्चों के परिजनों से पूरी हमदर्दी जताई थी, जांच का भरोसा दिया था और उन मां-बाप से स्कूल के प्रशासनिक अधिकारी व्यक्तिगत रूप से मिल कर उन्हें ये आश्वासन दे रहे थे कि भविष्य में ऐसा न हो, इसका पूरा ध्यान रखा जाएगा।
पूरे देश में बंदूक नीति पर बहस छिड़ गई थी। अमेरिका में हथियार कानून बहुत उदार हैं और एक बच्चा बंदूक के साथ स्कूल में घुस गया, इस पर सिर्फ स्कूल प्रशासन ही नहीं, पूरा देश चिंतित था। अमेरिका में बच्चे बहुत डर गए थे। एक-एक बच्चे की काउंसलिंग की गई। उन्हें ये बताया गया कि ये सिर्फ एक हादसा था। इसकी वज़ह से आप ज़िंदगी के प्रति उम्मीदों को मत खोइएगा। अखबारों में खूब खबरें छपी थीं। टीवी पर भी खूब खबरें दिखलाई गई थीं। लेकिन एक भी रिपोर्टर ने स्कूल जाकर खून की एक बूंद की तस्वीर अपने कैमरे में उतारने की कोशिश नहीं की थी।
ऐसा नहीं है कि अमेरिका में कैमरों की कमी थी और लोग खून से सने बच्चों की तस्वीर उस समय नहीं उतार सकते थे। पर किसी ने एक भी तस्वीर नहीं उतारी थी। रिपोर्टर ने तस्वीरें उतारी भी हों, तो अखबारों में नहीं छापी थीं। किसी टीवी चैनल पर रक्त की एक बूंद भी नज़र नहीं आई थी। हमारे देश की राष्ट्रीय मीडिया को इस संवदेना से क्या मतलब ? उन्हें खून और चीथड़े दिखा कर ही खुद को खबरची साबित करना है। संजय सिन्हा जी खुद भी बड़े पत्रकार है। वे भी चीजों को समझते हैं। लेकिन उनके भीतर का संवेदनशील मनुष्य बहुत बड़ा है। वह अपनी पोस्ट में लिखते हैं -असल में पिछले चार दिनों से ऑफिस जाने के नाम से मेरा मन घबराता है।
शुक्रवार की सुबह जब मैं ऑफिस में घुसा ही था, तब ये ख़बर आई थी कि गुड़गांव के एक स्कूल में किसी ने सात साल के बच्चे की हत्या कर दी है। मैंने अपने सहयोगी से कहा था कि तुम खबर दिखला देना, लेकिन ज्य़ादा बढ़ा-चढ़ा कर उसे इमोशनल चाशनी में डुबो कर मत पेश करना। मेरे सहयोगी ने मुझसे वादा किया था कि जितनी खबर है, उतनी ही दिखलाऊंगा। खबर इतनी ही है कि स्कूल बस के कंडक्टर ने स्कूल के बाथरूम में सात साल के एक बच्चे की गला रेत कर हत्या कर दी है। मैंने ये भी कहा था कि गला रेतने, चारों ओर खून ही खून होने की वीभत्सता से स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे घबरा जाएंगे, इसलिए तुम संयम से खबर को दिखलाना। पर मेरे कहने या मेरे नहीं दिखलाने से क्या होता है? मैं देश भर के टीवी चैनलों और अखबारों का संपादक थोड़े न हूं।
शाम तक सबको टीआरपी का मसाला मिल गया था। टीवी पर हर ओर यही खबर थी। दरिंदे कंडक्टर ने बच्चे का गला रेत दिया। चारों ओर खून ही खून। मां की चीत्कार। मेरा बाबू कहां चला गया ? कोई मेरे बाबू को ले आओ। मेरा बाबू, मेरा बाबू…। मां ज़मीन पर बेसुध हुई जा रही है। रिपोर्टर होड़ मचाए हैं कि रोती-बिलखती मां की तस्वीर सबसे पहले यहां देखिए। मां बदहवास है। कुछ-कुछ बोल रही है। बेसुध है। कभी थोड़ा होश आए तो बच्चे की कॉपी पर तस्वीर बना कर रिपोर्टर को समझा रही है कि देखिए, यहां मेरे पति ने मेरे बच्चे को छोड़ा। बेटा और बेटी दोनों स्कूल साथ गए थे। बेटी इधर गई, बेटा बाथरूम में गया। दस मिनट में उसकी लाश बाथरूम के पास पड़ी थी। वहां से प्रिंसिपल मैडम के कमरे की दूरी इतनी है। ये है, वो है…। रिपोर्टर दीवारों पर बच्चे के रक्त के छींटे दिखला रहे हैं।
रिपोर्टर को पुलिस क्राइम सीन पर जाने से रोकती है तो वो अपने रिपोर्टर होने की धौंस दिखला रहे हैं कि साले तुम्हारी औकात क्या है, वर्दी उतरवा लेंगे। राजनीति से ग्रस्त इस देश में सचमुच पुलिस की क्या औकात है? रिपोर्टर की है। फिर रिपोर्टर क्राइम सीन में घुस जाते हैं, बिना इस बात की परवाह किए कि वहां पांव का एक निशान भी पूरे केस को खराब कर सकता है। चार दिनों से कान में यही बज रहा है कि कहां है मेरा बाबू? मेरा बाबू कहां चला गया? समझ नहीं पा रहा हूं कि अमेरिकी समाज जिसकी हम सुबह-शाम निंदा करते हैं, वो आधुनिक है या हम आधुनिक हैं? समझ नहीं पा रहा कि वहां का मीडिया आजा़द है या यहां का मीडिया?
चाहे राम रहीम की बात हो या गुड़गांव की। राष्ट्रीय मीडिया के मदारीपन ने अब सभी को पागल बना दिया है। जब ये राम रहीम की रंगीन कथाएं परोस रहे थे भारतीय संत परंपरा का एक विशाल वैश्विक कल्याणकारी स्वरुप भी सामने आया था। लेकिन इन राष्ट्रीय चैनलों को कहा फुर्सत थी कि उसे दिखाते।
प्रख्यात मानस कथावाचक संत मुरारी बापू भारत पाकिस्तान के फिरोजपुर सीमा पर थे। भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशो के सैनिक उनका सम्मान कर रहे थे। भारत की संत परंपरा क्या है , इसका प्रत्यक्ष उदाहरण था इस सम्मान में। आपको भी अवसर मिले तो यूट्यूब पर उस दृश्य को देखिये। आपकी आँखे भर जाएंगी और खुद को भारतीय होने पर गर्व होगा। लेकिन मदारियों को इससे क्या लेना देना। वे तो अपनी वाली ही दिखाएंगे। इन्हे तो बस टीआरपी चाहिए और हिंदी के अखबारों की गति तो इनसे भी बुरी है। इन मदारियों का भी जूठन समेट कर, कागज पर टिकुली बिंदी वाली पत्रकारिता से क्या उम्मीद करेंगे ?