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कवि मरते नहीं : दादी को जिन शब्दों से थी आपत्ति वही बने पोते राहुल की आवाज

यथार्थ की आवाजें दंभ की दीवारों में कहां टिकती हैं। वह हर दीवार तोड़कर बाहर आ जाती है। दुष्यंत कुमार ने तो उस दीवार की परवाह कभी नहीं की और उसे तोड़ दिया।

tiwarishalini
Published on: 16 Oct 2017 7:33 PM GMT
कवि मरते नहीं : दादी को जिन शब्दों से थी आपत्ति वही बने पोते राहुल की आवाज
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कवि मरते नहीं : दादी को जिन शब्दों से थी आपत्ति वही बने पोते राहुल की आवाज

कवि मरते नहीं है : नानी को जिन शब्दों से थी आपत्ति वही नाती की आवाज बने वेद प्रकाश सिंह

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की अगर मोदी सरकार पर सबसे सशक्त और सटीक टिप्पणी का आंकलन करें तो वह एक ट्वीट है 'भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ, आजकल दिल्ली में है ज़ेर-ए-बहस ये मुदद्आ ।।'

बात यहीं नहीं खत्म होती। विपक्ष का काम है, विरोध करना, प्रतिरोध करना, तर्क-वितर्क कर बेहतरीन रास्तों की तलाश में सरकार का सहयोग करना और उससे ज्यादा अगले चुनाव को ध्यान में रखकर अपना पथ प्रशस्त करना। इस सटीक टिप्पणी में जो निहित है वह उन लाइनों के लेखक के बारें में और हमारी लोकतांत्रिक यात्रा के बारे में।

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“सायें में धूप” नाम की किताब में यह ‘दुष्यंत कुमार’ की 9वीं गजल है ‘भूख है तो सब्र कर’ नाम के शीर्षक से। इस गजल में दुष्यंत ने तात्कालिक ‘अपाहिज व्यवस्था को वहन करने वालों’ को संबोधित करते हुए लिखा था। बात यहां भी नहीं खत्म नहीं होती। उस समय की तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी को यह बात नागवार गुजरी थी। उन्होंने वही किया जो एक निरंकुश तानाशाह कर सकता है। प्रतिबन्ध ! यह विडंबना है कि किसी कटीली झाड़ी में फंसे कबूतर को निकाल कर लोगों को दिखाने वाले के हाथ लहुलुहान हो जाते हैं। दुष्यंत कुमार भी उस व्यवस्था से अछूते नहीं रहे।

यथार्थ की आवाजें दंभ की दीवारों में कहां टिकती हैं। वह हर दीवार तोड़कर बाहर आ जाती है। दुष्यंत कुमार ने तो उस दीवार की परवाह कभी नहीं की और उसे तोड़ दिया। लेकिन, जब राहुल गांधी के कंठ से भी दुष्यंत कुमार उतर आया तो मुझे उनकी जिद पर ‘रंजीदा’ होने से ज्यादा इनकी बेबसी पर तरस आया। दुष्यंत की याद आई, कविताएं मरती नहीं वह तो औरों के कंठ से उतर आती हैं। इसके साथ ही एक सबक इन सत्तानवीशों से भी की याद रखें वक्त बदलता जरूर है, इसलिए पूरी तैयारी करें।

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दुष्यंत कुमार आज भी मौजूं हैं कल भी थे। उनकी चंद लाइनों से उस समय के हालात बयां होते हैं।

"हम ही खा लेते सुबह को भूख लगती है बहुत। तुमने बासी रोटियां नाहक उठाकर फेंक दी ।।

कई फांके बिताकर मर गया जो उसके बारे में। वो सब कहते हैं कि ऐसा नहीं वैसा हुआ होगा ।।

कल नुमाइश में मिला था वो चीथड़े पहने हुए। मैंने पूछा नाम तो बतलाया हिंदुस्तान हूं ।।

दोस्त अपने मुल्क की किस्मत पर रंजीदा न हो। उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ ।।"

एक सवाल जो आज भी दुष्यंत जितना मौजूं है वह है वही मुद्दे जो तब थे वही आज भी हैं। तब भी हम भूख से मरते थे और उसे कोई और नाम दे दिया जाता था और आज भी भूख से मरते हैं और कोई नाम दे दिया जाता है। सवाल यही है आखिर हमने इतने दिनों में हासिल क्या किया ? तब भी गरीबी हटवा रहे थे आज भी वही गरीबी हटवा रहे थे। तब भी सरकारें बनाने के नारे थे आज भी वही नारें है। लेकिन, दुर्भाग्य से स्थिति भी वही रही। आज़ादी के इन 72 सालों बाद काश हम ‘अदम गोंडवी’ का एक शेर ही खारिज कर पाते।

"आप आएं तो कभी गांव की चौपालों में। मैं रहूं या न रहूं भूख मेजबां होगी ।।"

tiwarishalini

tiwarishalini

Excellent communication and writing skills on various topics. Presently working as Sub-editor at newstrack.com. Ability to work in team and as well as individual.

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