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Tribal Day: 9 अगस्त को आदिवासी दिवस पर विशेष, आदिवासी समुदाय-सही चश्मे से देखने की जरूरत
Tribal Day: आदिवासी मूलतः प्रकृति पूजक और उसके संरक्षक होते हैं। शिकार में माहिर और कुनबे में रहना इनकी खासियत है। जड़ी- बूटियों और औषधियों के ज्ञानी, अपनी संस्कृति, भूमि और भाषा की प्रेमी यह जाति आज भी अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित परंपरा का पालन कर रही है। पारंपरिक कला और गीत-संगीत से प्रेम करने वाली यह जाति जंगलों, पेड़- पौधों और पशुओं से भी बेहद प्रेम करती है।
Tribal Day: 25 जुलाई, 2022 को भारत के संवैधानिक इतिहास में 15वीं राष्ट्रपति के रूप में महामहिम द्रौपदी मुर्मू ने पदभार संभाला था। भारत की राष्ट्रपति चुनी जाने वाली वे पहली आदिवासी महिला हैं। इस कारण प्रत्येक भारतीय की नजर आदिवासी समुदाय पर अवश्य ही गई होगी। हमारा तथाकथित सुसंस्कृत, सभ्य समाज हमेशा ही आदिवासी समाज और उसकी संस्कृति के प्रति अजूबा दृष्टिकोण रखता है। हमारे लिए यह हमेशा ही खोज का विषय रहा है कि इन आदिवासी समुदायों के जीवन में क्या अलग सा होता है। वे हमें अपनी अजीबोगरीब वेशभूषा, रीति-रिवाजों, खुले बदनों और अपने यौन जीवन के कारण हमेशा ही रहस्यमय भी लगते रहे हैं। हम उन्हें जादू-टोने वाला मानते हैं, एक अलग आदम नस्ल का मानते हैं। लेकिन कभी हमने उनकी दुरूह परिस्थितियों में संघर्षों को नहीं देखा है। उनके पारिवारिक व सामाजिक जीवन की व्यथा को हम नहीं समझ सके हैं।
उनकी अजनबी, अनगढ़ी दुनिया का भारतीय समाज से सामंजस्य आवश्यक है, क्योंकि वे अपने से बाहर की दुनिया को लुटेरा और अपने ऊपर आधिपत्य स्थापित करने वाला मानते हैं। यह जनजातीय समाज हमारे देश की आदि सभ्यता के अवशेष हैं। आज के वैज्ञानिक युग में उन्हें भी तकनीकी और विज्ञान की दुनिया से जोड़ने की आवश्यकता है। आदिवासियों का लोकाचार, उनकी संस्कृति उनके पुराने समय की दास्तां है, जो भले ही आज हमारे लिए जरूरी नहीं रह गए हों। लेकिन उनकी जिंदगी से पारस्परिक और पारंपरिक रिश्ता रखते हैं। किसी भी समाज के अतीत से, उसकी संस्कृति, सभ्यता से छेड़छाड़ करना गलत हो सकता है । क्योंकि यह उनके यथार्थ और भूत-भविष्य की रचना होती है। इसलिए उनकी संस्कृति और सभ्यता को जस का तस स्वीकार करना आवश्यक है।
आदिवासी मूलतः प्रकृति पूजक और उसके संरक्षक होते हैं। शिकार में माहिर और कुनबे में रहना इनकी खासियत है। जड़ी- बूटियों और औषधियों के ज्ञानी, अपनी संस्कृति, भूमि और भाषा की प्रेमी यह जाति आज भी अपने पूर्वजों द्वारा स्थापित परंपरा का पालन कर रही है। पारंपरिक कला और गीत-संगीत से प्रेम करने वाली यह जाति जंगलों, पेड़- पौधों और पशुओं से भी बेहद प्रेम करती है। लिखित पौराणिक साहित्य महाभारत, रामायण, रामचरितमानस आदि में भी आदिवासियों का चित्रण किया गया है। कोल, किरात, निषाद, हनुमान, जामवंत, सुग्रीव आदि वहां आदिवासियों के रूप में हीं उपस्थित हैं। भालू, जटायु, वानर सभी आदिवासी समुदायों से हैं, जिनमें नल- नील जैसे इंजीनियर और वैद्यराज के रूप में सुषेण जैसे वैद्य रामायण काल में थे। हमारे पौराणिक ग्रंथ बताते हैं कि मुंडा सैनिक कौरवों की तरफ से महाभारत के युद्ध में लड़े थे। इन आदिवासी जातियों से पांडवों के भी संबंध रहे। महाभारत काल में एकलव्य जो कि सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी था । उसने अपने अंगूठे का गुरु द्रोणाचार्य को दान कर दिया था, वह भी एक आदिवासी चरित्र ही था। आज भी आदिवासी समुदाय धनुष चलाने में अंगूठे का प्रयोग नहीं करता है। आदिवासी जनजातियों की स्वतंत्रता संग्राम में भी सक्रिय भूमिका रही। बिरसा मुंडा के नाम से कौन अपरिचित है? हम आज जिस भारतीय संस्कृति और भारतीय परंपरा की बात करते हैं, उसमें आदिवासियों का एक बहुत बड़ा योगदान है।
जब हम असम की बात करते हैं तो यहां आदिवासियों की कुल जनसंख्या चालीस लाख के आसपास है, जिसमें से ग्यारह लाख के करीब आदिवासी राज्य के चाय बागानों में काम करते हैं। सन 1860 में वर्तमान झारखंड, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा से गिरमिटिया मजदूरों को असम लाया गया था। वे यहां चाय श्रमिक समुदाय के रूप में काम करने लगे थे। उस समय का चाय प्रबंधन सक्रिय रूप से चाय श्रमिकों को स्थानीय आबादी के साथ घुलने- मिलने से रोकता था। यह प्रथा आज भी कमोबेश जीवित है। इसलिए आम असमिया के लिए चाय बागान श्रमिक बिल्कुल अछूता और अन्य बना हुआ है। कुछ संगठनों द्वारा आदिवासियों को सचेत करने का प्रयास किया जा रहा है कि वे भी असमिया राष्ट्रीयता के प्रमुख घटक हैं। आदिवासी समुदाय का एक बड़ा वर्ग भी खुद को असमिया राष्ट्रीयता का हिस्सा ही मानता है। ब्रिटिश शासन के दौरान चाय बागान जनजातियों को अलग-थलग रखा गया और उन्हें उसी तरह के जीवन को जीने के लिए मजबूर किया गया, यहां तक कि राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की हवा भी यहां तक नहीं पहुंचने दी गई। आजादी के बाद ट्रेड यूनियनों की शुरुआत के कारण असमिया चाय जनजाति में बदलाव की शुरुआत हुई। असम विधानसभा की 126 सीटों में से लगभग एक दर्जन सीटों पर आदिवासियों का बाहुल्य है। केंद्रीय सूची में आदिवासियों को पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी के रूप में वर्गीकृत किया गया है। वे अभी भी पिछड़े हैं। राजनीतिक प्रतिनिधित्व की दृष्टि से भी उनकी संख्या कम है। असम टी ट्राईबल्स स्टूडेंट्स एसोसिएशन राज्य के चाय बागान समुदाय को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा देने की मांग कर रही है।
असम का दूसरा सबसे बड़ा आदिवासी समुदाय मिसिंग (दि मिसिंग) है। यह एक इंडो मंगोलॉयड समूह है, जिसे पहले मिरिस कहा जाता था। मिसिंग आदिवासी समुदाय के लंबे संघर्ष के बाद 1985 में असम सरकार ने मिसिंग बहुसंख्यक क्षेत्रों में तीसरी और चौथी कक्षा के छात्रों के लिए मिसिंग भाषा को एक अतिरिक्त विषय के रूप में पढ़ाने के लिए अधिसूचना जारी की थी। इसके साथ ही इसे प्राथमिक शिक्षा के लिए भी शिक्षण का माध्यम बनाया गया । लेकिन उसके बाद यह प्रक्रिया पूरी तरह ठप पड़ गई।
एक पुराना झूमुर गीत है-
' चल रे मिनी असम जाबो
देशेबारोदुख रे
असम देशेरे मिनी
चा बागान हरियाल'
भारत के विभिन्न हिस्सों से असम के चाय बागानों में विस्थापित मजदूरों की जटिल मानसिकता का पता इस झूमुर गीत से लगाया जा सकता है कि आदिवासी लोग असम तक पैदल चलकर आकर अपनी स्थिति पर पश्चाताप कर रहे हैं। वे असम जाने की इच्छा रखते हैं। असम के आदिवासी समुदायों से जुड़ी चिंताएं और संचेतना असम में राष्ट्रवाद, बंगाली पहचान और शुद्ध भारतीय होने के बीच के संघर्ष में दबकर रह जाती है। टी ट्राइब आदिवासी समुदाय का एक विरोध यह भी है कि किसी वस्तु के नाम पर क्या किसी समुदाय का नाम रखा जाना चाहिए? ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रभुत्व के बाद अब उनकी पहचान की प्रकृति को लेकर इस समुदाय के अंदर अंतरद्वंद चल रहा है। क्योंकि वे कहते हैं कि वे वृहद् आदिवासी राष्ट्रीयता का ही एक अंग है और उनकी पहचान वर्तमान असमिया पहचान के निर्माण के साथ जुड़ी है। इसलिए उन्हें वृहद असमिया समाज के निर्माण में योगदान देने वाले सबसे महत्वपूर्ण समुदाय में से एक के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए। वे स्वयं को आदिवासी या असमिया आदिवासी कहलाना अधिक पसंद करते हैं। खुद को चाय जनजाति कहलाने पर वे अपनी सांस्कृतिक पहचान के लिए आंदोलन भी करते रहे हैं।
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इसी तरह कार्बी-आंगलोंग के अधिकांश आदिवासी बच्चे ऊंची जाति के घरों में काम करते रहे हैं । कार्बी आंगलोंग की गरीबी पर जिस तरह से बात की जाती है, उस तरह से उनकी रोजमर्रा से जुड़ी वास्तविकताओं और उनके आर्थिक पहलूओं को समझने पर भी चर्चा की जानी चाहिए। ऊंची जातियों और आदिवासी समुदाय के बीच संरचनात्मक खाई और समाधान की भी बात की जानी चाहिए। जब हम राज्य में बंगला भाषी मुसलमानों की चर्चा कर सकते हैं, तो हम असमिया आदिवासी समुदायों की चर्चा क्यों नहीं करते हैं, जो कि देश के आदि लोगों के प्रतीक के रूप में हैं। वे जब अपनी संप्रभुता का मुद्दा उठाते हैं या उनके साथ किसी भी तरीके के हिंसा या दुराचार की घटनाएं सामने आती हैं तो उनकी असमिया पहचान पर तुरंत सवाल खड़े कर दिए जाते हैं। हिंसा से जुड़ी रिपोर्टों में क्यों उनकी जाति को हमेशा चिन्हित किया जाता रहा है? क्या हम आदिवासियों के प्रति अमानवीय हैं ? क्या हम उनकी संपूर्ण ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को समझने के इच्छुक नहीं है? क्या हमारे असम के साहित्यकार , इतिहासकार, लेखक, कवि, कलाकार और असम की मीडिया असम के आदिवासियों के इतिहास को और उनके औपनिवेशिक शोषण, सांप्रदायिकता और जातिवाद के खिलाफ प्रतिरोध के उनके इतिहास को समझने की कोशिश नहीं कर सकती है? आदिवासी समुदायों के पीड़ितों के साथ घटने वाली घटनाओं में क्या हम उस समुदाय की प्रथाओं पर अधिक ध्यान देते हैं? राज्य के आदिवासियों की समृद्ध और विविध संस्कृति पर पर्याप्त गंभीर अध्ययन नहीं हुए हैं।
यहां तक कि इस बात पर भी अध्ययन नहीं किया गया है कि किस तरह से आदिवासी संस्कृति राज्य की संस्कृति के समीप आ सकती है और एक दूसरे को क्या योगदान दे सकती है। उनके पारस्परिक योगदान के तत्वों का पता लगाना आवश्यक है । क्योंकि आदिवासियों के सांस्कृतिक तत्वों के योगदान से ही राज्य की संस्कृति को और समृद्ध किया जा सकता है। 9 अगस्त को जब विश्व आदिवासी दिवस मनाया जाएगा, हमें उनके प्रति अधिक मानवीय होने की आवश्यकता है।