TRENDING TAGS :
....आखिर अभीतक लोकपाल की नियुक्ति क्यों नहीं !
अनूप भटनागर
भ्रष्टाचार ने हमारी समूची व्यवस्था की जड़ों को दीमक की तरह चाट कर ऐसा खोखला कर दिया है कि अब इस समस्या से निजात पाना सरकारों के लिये बहुत बड़ी चुनौती बनती जा रही है। इसकी एक वजह उच्च पदों पर आसीन राजनीतिक व्यक्तियों और नौकरशाही के एक वर्ग की अनैतिक तरीके से काम करने और कराने वालों के साथ किसी न किसी तरह की साठगांठ है। यूं तो देश के आजाद होने के बाद से ही भ्रष्टाचार अपनी जडें फैलाने लगा था कि लेकिन पिछले करीब तीन दशक के दौरान इसने व्यवस्था के लगभग सभी हिस्सों को अपनी चपेट में ले लिया। हाल के वर्षों में 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन कांड और कोयला खदान आवंटन प्रकरण इसके ज्वलंत उदाहरण हैं जिसमें मंत्री से लेकर व्यावसायी तक सभी इसकी चपेट में आये।
समाज में उपर से लेकर नीचे तक तेजी से पांव पसार चुके भ्रष्टाचार से निपटने के लिये अन्ना हजारे सहित अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं ने ऐसे मामलों की जांच के लिये लोकपाल की संस्था की स्थापना करने की मांग को लेकर देशव्यापी आन्दोलन किया। यह इसी आन्दोलन का नतीजा था कि उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों और उनसे संबंधित मामलों में भ्रष्टाचार के आरोपों की शिकायतों की जांच के लिये संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने 2013 में लोकपाल और लोकायुक्त कानून बनाया। उम्मीद थी कि यह कानून शीघ्र ही लागू होगा और सरकार लोकपाल संस्था स्थापित करने की दिशा में ठोस कदम उठायेगी लेकिन 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद हुए सत्ता परिवर्तन और बदली हुयी राजनीतिक परिस्थितियों में एक तकनीकी मुद्दे की आड़ लेकर केन्द्र सरकार इस व्यवस्था को मूर्तरूप देने से अब तक बचती रही।
लोकपाल और इसके सदस्यों के चयन की प्रक्रिया के लिये चयन समिति में प्रतिपक्ष का नेता भी शामिल होने के कानूनी प्रावधान का सहारा लेकर सरकार कहती रही कि अब कानून में संशोधन करके लोकसभा में विपक्ष के सबसे बड़े दल के नेता को इसमें शामिल करने का प्रावधान करना होगा। लेकिन ढाई साल से भी अधिक समय बीत जाने के बावजूद जब ऐसा नहीं हुआ तो उच्चतम न्यायालय को सख्त कदम उठाना पड़ा।
लोकपाल संस्था की स्थापना में विलंब के बारे में केन्द्र सरकार की तमाम दलीलों और तर्कों को दरकिनार करते हुये उच्चतम न्यायालय ने दो टूक शब्दों में कहा कि मौजूदा कानून के प्रावधानों के अंतर्गत चयन समिति में प्रतिपक्ष के नेता के बगैर भी लोकपाल और इसके सदस्यों के चयन की प्रक्रिया पूरी तरह वैध होगी। अकेन्द्रीय स्तर पर लोकपाल ने राज्यों में लोकायुक्तों की नियुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। लोकपाल और लोकायुक्त कानून, 2013 के तहत लोकपाल और इसके आठ सदस्यों की नियुक्ति के लिये चयनित नामों की राष्ट्रपति से सिफारिश करने वाली चयन समिति के सदस्यों में प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, देश के प्रधान न्यायाधीश या उनके द्वारा मनोनीत व्यक्ति, प्रतिपक्ष के नेता और एक प्रबुद्ध व्यक्ति शामिल है।
2014 के आम चुनाव के नतीजों के बाद चूंकि लोकसभा में कोई भी विपक्ष दल प्रतिपक्ष के नेता के लिये अनिवार्य औपचारिकता को पूरा नहीं करता था, इसलिए सरकार ने इसी प्रावधान की आड़ लेते हुये लोकपाल की नियुक्ति में विलंब किया। हालांकि इस कानून की धारा 4 में यह प्रावधान भी किया गया था कि चयन समिति में कोई रिक्त स्थान होने की वजह से लोकपाल और इसके सदस्योंं की नियुक्तियां अवैध नहीं होंगी।
इस कानून के प्रावधानों के तहत लोकपाल संस्था का अध्यक्ष देश का प्रधान न्यायाधीश या पूर्व प्रधान न्यायाधीश या फिर उच्चतम न्यायालय का कोई न्यायाधीश अथवा कोई ऐसा व्यक्ति जो इसके लिये निर्धारित योग्यता को पूरा करता है। लोकपाल संस्था के अध्यक्ष का कार्यकाल पांच साल या फिर 70 वर्ष की आयु, जो भी पहले हो, का है। इस प्रावधान के तहत इस समय चार पूर्व प्रधान न्यायाधीश लोकपाल के अध्यक्ष के लिये निर्धारित पात्रता रखते हैं। इनमें न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम, जो केरल के राज्यपाल हैं, न्यायमूर्ति आरएम लोढा, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति एचएल दत्तू और हाल ही में सेवानिवृत्त हुये न्यायमूर्ति तीरथ सिंह ठाकुर शामिल हैं।
लोकपाल संस्था में अध्यक्ष के अलावा आठ सदस्य होंगे। इनमें से 50 फीसदी न्यायिक सदस्य होंगे। इसका मतलब यह हुआ कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश या फिर उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ही इनके न्यायिक सदस्य होंगे। यही नहीं, इन आठ सदस्यों में कम से 50 फीसदी सदस्य अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक और महिलाओं के वर्ग से होंगे।
लोकपाल संस्था के अध्यक्ष का चयन आसान हो सकता है लेकिन आठ सदस्यों में से अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग, अल्पसंख्यक और महिलाओं के वर्ग से चार सदस्यों का चयन करना इस उच्च स्तरीय चयन समिति के लिये चुनौती भरा काम होगा।
इस सबसे पहले, केन्द्रीय स्तर पर देश की राजधानी में लोकपाल संस्था का कार्यालय स्थापित करना और इसमें अपेक्षित संख्या में अधिकारियों तथा कर्मचारियों की नियुक्ति करनी होगी। यही नहीं, इस संस्था को हर प्रकार की बुनियादी सुविधायें मुहैया करानी होगी ताकि लोकपाल संख्या सुचारू ढंग से अपना काम कर सके।
अब देखना यह है कि देश की शीर्ष अदालत की व्यवस्था के बाद प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधान न्यायाधीश और एक नामचीन व्यक्ति वाली चयन समिति कब लोकपाल संस्था के अध्यक्ष और इसके सदस्यों के चयन का काम शुरू करती है और इस संस्था में ये नियुक्तियां होती हैं। देशवासियों की निगाहें इस पर भी रहेंगी कि उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगने की स्थिति में लोकपाल और इसके सदस्य किस तरह की कार्रवाई करते हैं और ऐसे मामलों का कितने समय में निस्तारण करते हैं।
(लेखक स्तंभकार हैं)
Next Story