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Outsider Candidate: बंद हो किसी भी भारतवासी को ‘बाहरी’ उम्मीदवार बताना

Outsider Candidate: 2014 के लोकसभा चुनाव के समय जब नरेन्द्र मोदी ने वाराणसी से चुनाव लड़ने का फैसला किया था तो कांग्रेस के नेता उन्हें 'बाहरी' बताने में लगे थे।

RK Sinha
Written By RK Sinha
Published on: 5 April 2024 10:21 PM IST
Stop calling any Indian an outsider candidate
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 पीएम नरेन्द्र मोदी ने वाराणसी से Photo- Social Media

Outsider Candidate: आगामी लोकसभा चुनावों के लिए नामांकन पत्र भरने और चुनाव प्रचार का काम प्रतिदिन गति पकड़ता जा रहा है। इसके साथ ही सभी दल अपने उम्मीदवारों के नामों की घोषणा भी करते जा रहे हैं। संयोग से अभी तक किसी प्रत्याशी पर ‘बाहरी’ उम्मीदवार होने का आरोप अभी तक नहीं लगा है। हालांकि, हमारे यहां किसी को भी बिना किसी कारण के बाहरी उम्मीदवार बता दिया जाता है। याद करें 2014 के लोकसभा चुनाव के समय जब नरेन्द्र मोदी ने वाराणसी से चुनाव लड़ने का फैसला किया था तो कांग्रेस के नेता उन्हें ‘बाहरी’ बताने में लगे थे। इसी तरह अरुण जेटली के 2014 में अमृतसर से चुनाव लड़ने पर विवाद खड़ा हो गया था। उन्हें भी कांग्रेस ने बाहरी उम्मीदवार कहा था। यह आरोप उस कांग्रेस के नेताओं ने लगाए थे जिस पार्टी ने देश के 1952 में हुए पहले लोकसभा चुनाव में बाहरी दिल्ली सीट से मलयाली सज्जन सी.कृष्ण नायर को अपना उम्मीदवार बनाया था। दिल्ली उन्हें गांवों का गांधी कहती थी। सी.कृष्ण नायर की दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) को स्थापित करने में अहम भूमिका रही थी। वे लोकसभा के 1957 में हुए चुनाव में भी जीते थे। जिस कांग्रेस ने नायर साहब को टिकट दिया था उसी ने 1957 के लोकसभा चुनाव में अंबाला में जन्मी बांग्ला परिवार से संबंध रखने वाली सुचेता कृपलानी को नई दिल्ली सीट से अपना उम्मीदवार बनाया। सुचेता जी आगे चलकर उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री भी बनीं।

सच में अपने ही देश में कोई बाहरी उम्मीदवार कैसे हो सकता है। सारा भारत हम सबका है। यहाँ हरेक भारतवासी नागरिक को कहीं भी रहने या कहीं से भी चुनाव लड़ने का पूरा अधिकार है। तब किसी को बाहरी कहना हर लिहाज से निंदनीय है। सुचेता जी के पति और प्रख्यात स्वाधीनता सेनानी आचार्य कृपलानी बिहार के भागलपुर और सीतामढ़ी से सांसद रहे। यानी एक सिंधी बिहार से सांसद बना।

जार्ज फर्नांडीज: Photo- Social Media

अब जार्ज फर्नांडीज को लें। जार्ज साहब भले ही दक्षिण भारत से आते थे, पर बिहार उन्हें अपना मानता था और वे बिहार को अपना मानते थे। बिहार ने उन्हें तहेदिल से आदर भी दिया। उन्होंने भी बिहार को पूरी तरह अपना लिया था। वे भोजपुरी भाषा और मैथली भाषा भी मजेकी बोल लिया करते थे। जॉर्ज साहब को बिहार की जनता ने कई बार लोकसभा में भेजा। वह मुंबई से भी लोकसभा का चुनाव जीते। बिखरे बाल, बिना प्रेस किया हुआ खादी का कुर्ता-पायजामा, मामूली सी चप्पल पहनने वाले जार्ज साहब जैसा मजदूर नेता, प्रखर वक्ता, उसूलों की राजनीति करने वाले इंसान अब फिर से देश शायद ही देखेगा। वे चिर बागी थे। उनका कोई चुनावी जातीय समीकरण भी नहीं था । उनका कोई संगठित काडर भी नहीं था, फिर भी वह अंतरराष्ट्रीय हैसियत के नेता थे।

इससे पूर्व भी 1962 और 1967 में बिहार ने मराठी मधु लिमये को लोकसभा में बार-बार भेजा। वह जब संसद में होते थे, तो सत्तापक्ष को डर सताता रहता था कि कब उनपर तीखे सवालों की बौछार हो जाएगी। बिहार की राजनीति की बात मधु लिमये के ज़िक्र के बिना पूरी नहीं हो सकती। वह मूल रूप से पुणे के थे। एक मराठी व्यक्ति का बिहार से चार बार चुनाव जीतना अपने आप में अनोखा है। राज्यसभा में ऐसे कई दूसरे नेता हुए हैं, लेकिन लोकसभा में ऐसे उदाहरण कम ही देखे गए हैं। लिमये का बचपन महाराष्ट्र में बीता, उनकी पूरी पढ़ाई भी वहीं से हुई, वो महाराष्ट्र की राजनीति में भी सक्रिय थे। उन्होंने जब राष्ट्रीय राजनीति में क़दम रखा तो चुनाव लड़ने के लिए बिहार ही चुना। पहली बार वो 1962 में मुंगेर से चुनाव जीतकर संसद पहुंचे थे। 1964 में, सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का विलय हुआ और यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी बनी थी। मधु लिमये पहली बार यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर लोकसभा गए थे। 1967 के चुनावों में, लिमये ने यूनाइटेड सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर मुंगेर से जीत हासिल की। 1973 में, लिमये ने बिहार के बांका से चुनाव जीता। किसी को अपने ही देश में बाहरी कह कर अपमानित करना सही नहीं है। कानपुर से एस.एम.बैनर्जी लंबे समय तक सांसद बनते रहे। वह बांग्लाभाषी थे और बंगाल से कानपुर में आकर बसे थे। वह मजदूर नेता थे।

फिजी के पूर्व प्रधानमंत्री महेंद्र चौधरी: Photo- Social Media

अजीब विडंबना है कि हमारे यहां कुछ तंग दिल लोग जिसको चाहते हैं बाहरी बता देते हैं। यह स्थिति तब है जब हम भारतीय करीब एक-डेढ़ दर्जन देशों में सांसद से लेकर प्रधानमंत्री, उप राष्ट्रपति और राष्ट्रपति तक बन गए। इनमें मलेशिया, मारीशस, त्रिनिडाड, ग्याना, केन्या, फीजी, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा वगैरह देश शामिल हैं। कैरिबियाई देश ग्याना में 1960 के दशक में भारतीय मूल के छेदी जगन राष्ट्रपति बन गए थे। उसके बाद तो शिवसागर राम गुलाम (मारीशस), नवीन राम गुलाम (मारीशस), महेन्द्र चौधरी(फीजी), वासदेव पांडे (त्रिनिडाड), एस.रामनाथन (सिंगापुऱ), श्रषि सुनक ( ब्रिटेन), कमला हैरिस ( अमेरिका) सरीखे भारतवंशी विभिन्न देशों के प्रधानमंत्री, उप राष्ट्रपति और राष्ट्रपति बनते रहे। अभी हाल में ही एक भारतीय मूल के नागरिक भी थरमन षणमुखरत्नम को भारी बहुमत से सिंगापुर का राष्ट्रपति चुना गया।

बेशक, हम भारतीयों को अपना नजरिया बदलना होगा। अपनी सोच के दायरे का विस्तार करना होगा। हमें जाति, भाषा, मजहब, लिंग आदि के बंधनों को तोड़ना होगा। आपको वर्तमान में भारतवंशी सांसद अफ्रीका से लेकर यूरोप, अमेरिका और न्यूजीलैंड की संसद में मिलेंगे। मतलब यह है कि रोजगार की तलाश में दूर देश जाने वाले भारतीय अब वहां की किस्मत ही लिखने लगे।

अगर बात साउथ अफ्रीका की करें तो वहां पर मेवा रामगोंविद सांसद हैं। उनसे पहले भी कुछ और भारतवंशी सांसद रहे हैं। परमिंदर सिंह मारवाह युगांडा की पार्लियामेंट में थे। वह चाहते हैं कि भारत के निवेशक युगांडा के कृषि क्षेत्र में आएं। उनके परिवार ने 1970 के दशक में भी युगांडा को नहीं छोड़ा था जब ईदी अमीन भारतीयों पर जुल्म ढा रहे थे। उनके दादा युगांडा में बसे थे। उनके दादा रेलवे में थे। उन्होंने 1930 और 1940 के दशक में ईस्टअफ्रीकी देशों में रेल लाइनेंबिछाईं थीं। अब बात केन्या की। इधर कुछ साल पहले तक एक सरदारनी सांसद थीं। उनका नाम है सोनिया विरदी। सोनिया केन्या में महिलाओं के अधिकारो के लिए लड़ती हैं। दरअसल वह पहली एशियाई मूल की महिला सांसद हैं केन्या में।

सियासत में नाम कमाने के लिहाज से भारतवंशियों के लिए कनाडा बहुत उर्वरा भूमि है। वहां कई भारतीय मूल के सांसद हैं। कुल मिलाकर बात यह है कि हमारे यहां किसी को अपने सियासी स्वार्थों के लिए बाहरी कहना बंद होना चाहिए। देश अब बदल रहा है। हवा के रूख को पहचानें।

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)



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Shashi kant gautam

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