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कहानी: एक थैला सीमेंट... उसके केशों और मूछों पर एक मोटी पपड़ी जम गयी थी

raghvendra
Published on: 23 Nov 2018 4:47 PM IST
कहानी: एक थैला सीमेंट... उसके केशों और मूछों पर एक मोटी पपड़ी जम गयी थी
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याशिकी हायामा

योशिजो सीमेंट के थैले खाली कर रहा था। अपने शरीर के अधिकतर अंगों को वह किसी तरह सीमेंट की धूल से बचाए हुए था, लेकिन उसके केशों और मूछों पर एक मोटी पपड़ी जम गयी थी। वह अपनी नाक साफ करके सिमेंट की उस पपड़ी को निकालने के लिए अकुल रहा था, जिसके कारण नासापुटों के भीतर बाल सलाख-से कड़े हो गए थे; लेकिन सीमेंट घोलने का यन्त्र हर मिनट में दस खेप तैयार करके फेंक रहा था और उसे भरते रहने में ढील की कोई गुंजाइश नहीं थी।

योशिजो का काम का दिन 11 घंटे का था। इसके दौरान उसे एक बार भी ढंग से नाम साफ करने का अवसर न मिलता। जब थोड़ी देर की दोपहर की छुट्टी में उसे भूख लगी होती तो वह जल्दी-जल्दी किसी तरह कौर निगलता रहता। उसे आशा थी कि तीसरे पहर के कुछ देर के विश्राम में उसे अवसर मिलेगा, लेकिन जब उसका समय आया तो उसने पाया कि उस बीच सीमेंट घोलने के यन्त्र को खोलना है। तीसरे पहर तक उसे लगने लगा था कि उसकी समूची नाक सीमेंट घोलने के यन्त्र को खोलना है। तीसरे पहर तक उसे लगने लगा था कि उसकी समूची नाक सीमेंट बन गई है। थकान से उसकी बाहें शिथिल हो चुकीं थीं और थैले ढोने के लिए उसे पूरा जोर लगाना पड़ रहा था। एकाएक थैला उठाते समय उसने देखा, सीमेंट में एक छोटा-सा लकड़ी का डिब्बा है।

‘क्या हो सकता है यह?’ उसे कुतूहल हुआ, लेकिन कौतूहल शान्त करने के लिए काम की गति धीमी नहीं की जा सकती थी। मन-ही-मन डिब्बा उठाया और अपने लबादे की जेब में डाल लिया।

‘अरे मारो गोली, वजन तो कुछ नहीं है। उसमें और जो हो सो हो, पैसा तो ज्यादा नहीं होगा।’ इस तनिक-सी देर से भी वह अपने काम में पिछड़ गया था और अब उसे दुगुनी तेजी से सीमेंट ढोकर मशीन में डालना पड़ा। यन्त्र की तरह उसने एक और थैला खाली किया और नपाई के नये खांचे में सीमेंट भरने लगा।

अंत में मशीन की रफ्तार कुछ धीमी हुई और फिर वह रुक गयी। योशिजो के उस दिन की छुट्टी का समय आ गया। यन्त्र से लगी हुई रबर की नली को उसने उठाया और मुंह-हाथ धोने का हल्का-सा उपक्रम किया। फिर उसने अपने नाश्ते का डिब्बा गले में टांग लिया और अपनी कोठरी की ओर चल पड़ा। एक ही विचार उसके मन पर छाया हुआ था: पेट में कुछ भोजन पडऩा चाहिए और उससे भी जरूरी यह कि तेज साके शराब का गिलास मिल जाना चाहिए।

वह बिजलीघर की इमारत के सामने से गुजरा। उसका निर्माण-कार्य लगभग पूरा हो गया था और अब जल्दी ही उन्हें बिजली मिलने लगेगी। जिस रास्ते वह चल रहा था, उसके किनारे-किनारे किसी नदी बह रही थी। दूधिया झाग के नीचे से एक घरघराहट उसकी तेज गति का संकेत दे रही थी।

‘ऐसी की तैसी’ योशिजो ने सोचा, ‘हद है, बस हद है! उस औरत के फिर बच्चा होने वाला है!’

उसका ध्यान कोठरी में कुलबुलाते छ: बच्चों की ओर जाड़ों का अंत होते-न होते जन्म लेने वाले सातवें बच्चे की ओर अपनी घरवाली की ओर गया, जो धड़ाधड़ एक के बाद एक बच्चा जनती चली जा रही है। एक गहरी उदासी उस पर छा गयी।

एकाएक उसे जेब में पड़े डिब्बे की याद आयी। डिब्बा निकालकर उसने अपनी पतलून की पिछाड़ी पर रगडक़र उसका सीमेंट साफ किया। डिब्बे पर कुछ लिखा नहीं था, लेकिन वह सावधानी से मुहरबन्द किया गया था।

‘भला ऐसे डिब्बे को कोई मुहरबन्द क्यों करना चाहेगा? वह जो भी हो, बुझौवल का शौकीन जान पड़ता है।’

सडक़ के किनारे के पत्थर पर पटकने पर भी डिब्बे का ढक्कन नहीं खुला। गुस्से में योशिजो ने उसे सडक़ पर डाल कर एडिय़ों से कुचलना शुरू किया। अन्त में डिब्बा टूट गया। कपड़े के चिथड़े में लिपटा हुआ एक कागज देखकर योशिजो ने उठा लिया और पढऩे लगा।

‘मैं नूमुरा सीमेंट कम्पनी में मजदूरी करती हूं। मेरा काम सीमेंट के थैले सीना है। जिस नौजवान से मेरी सगाई हुई थी, वह भी उसी कम्पनी में काम करता था। उसका काम था पिसाई की मशीन में पत्थर झोंकना। 7 अक्तूबर की सुबह जब वह एक बड़ा ढोका मशीन में डालने की कोशिश कर रहा था, उसका पैर कीचड़ में फिसला और पत्थर के साथ ही वह मशीन में गिर गया। उसके साथियों ने उसे खिंचकर निकालने की कोशिश की, लेकिन कोई नतीजा न निकला। पत्थरों के साथ ही उसका शरीर भी मशीन में पिस गया और दूसरी तरफ चूरा बाहर फेंकने के लिए पाइप में से गुलाबी चूरा बनकर निकला। यह चूरा भी ढुलाईवाली पेटी के सहारे महीन पीसनेवाली चक्की में पहुंच गया और उसके इस्पात के पाटों के नीचे चला गया। वहां से चूरा भट्टी में पहुंचा और पक कर सीमेंट के रूप में तैयार होकर निकल आया। हां, मेरा पति थोड़ा-सा सीमेंट-भर बनकर रह गया था। बचा था सिर्फ उसकी पोशाक का एक चिथड़ा। आज दिन-भर मैं वे थैले सीती रही हूं, जिनमें उस खेप का सीमेंट भरा जाएगा।’

‘उसके सीमेंट बनने के दूसरे ही दिन मैं यह चिट्ठी लिख रहीं हूं। इसे पूरा करके मैं इस खेप के एक थैले में डाल दूंगी।’

‘क्या तुम जो भी इस देखोगे, मजदूर हो? अगर तो मेहरबानी करकह मुझे जवाब देना। इस थैले का सीमेंट कहां काम आ रहा है? मैं जानना चाहती हूं। कुल कितना सीमेंट उससे बना और सब-का-सब एक ही जगह काम आया या अलग-अलग?’

‘मैं नहीं चाहती कि वह किसी थियेटर के गलियारे या किसी बड़े भवन की दीवार का हिस्सा बन जाए। लेकिन ऐसा होना रोकने के लिए मैं कर क्या सकती हूं! अगर तुम मजदूर हो तो यह सीमेंट किसी ऐसी जगह में मत लगाना। लेकिन फिर सोचती हूं इससे क्या फर्क पड़ेगा! जहां चाहो, यह सीमेंट लगा देना। जहां भी वह लगया जाएगा, लगन से अपना काम पूरा करेगा। वह था ही नेक और इमानदार और जहां भी उसका भाग्य उसे ले जायेगा, वहां अपना काम पूरे मन से करेगा।’

‘उसका दिल बहुत नरम था, लेकिन साथ ही वह तगड़ा और साहसी भी था। अभी बिलकुल जवान था—25वां साल लगा ही था। मुझे यह भी जानने का अवसर नहीं मिला कि वह मुझसे कितना प्रेम करता है और अब मैं उसके लिए कफन सी रही हूं। कफन क्या, सीमेंट का थैला सी रही हूं। मैं चाहती हूं कि तुम इस चिट्ठी का जबाब जरूर देना। उसके बदले में मैं उसकी पोशाक के कपड़े का एक टुकड़ा तुम्हें देती हूं—हां यही टुकड़ा है, जिसमें चिट्ठी लपेटी गयी है। उसके पत्थर का चूरा, उसके शरीर का पसीना—सब इसी कपड़े में है। जो पोशाक पहनकर वह मुझे सीने से लगाता था—ओह कितनी कड़ी होती थी उसकी कौली!—उसका कुल यह टुकड़ा ही बचा है?’

‘मेरे लिए इतना तो कर दोगे न? मैं जानती हूं कि मैं तुम्हारे ऊपर बहुत बोझ डाल रही हूं, लेकिन मेरी विनती है कि मुझे यह जरूर बता देना कि यह सीमेंट किस दिन काम आया, कैसी जगह लगाया गया और उसका ठीक पता क्या है। और अपना नाम-पता भी लिख देना। और तुम भी सावधानी से रहना—अपना खयाल रखना—रखोगे न? नमस्कार।’

बच्चों का हुड़दंग एक बार फिर योशिजो के आस-पास घिर आया था। एक बार फिर उसने चिट्ठी के अंत में दिया हुआ नाम और पता पढ़ा और फिर एक ही घूंट में चाय का वह प्याला खाली कर गया, जिसमें उसने अभी-अभी साके शराब भरी थी।

‘मैं नशे में धुत्त हो आऊंगा!’

उसकी घरवाली ने कहा, ‘तो आपके पास नशा करने की सहूलियत है? और बच्चों का क्या होगा?’

योशिजो ने घरवाली के बढ़े हुए पेट की तरफ देखा और उसे सातवें बच्चे की बात याद हो आयी।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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