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कहानी: पानी और पुल- मुझे लगा हमारी गाड़ी किसी गहरी...

raghvendra
Published on: 18 Oct 2018 10:57 AM GMT
कहानी: पानी और पुल- मुझे लगा हमारी गाड़ी किसी गहरी...
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महीप सिंह

गाड़ी ने लाहौर का स्टेशन छोड़ा तो एकबारगी मेरा मन काँप उठा। अब हम लोग उस ओर जा रहे थे जहाँ चौदह साल पहले आग लगी थी। जिसमें लाखों जल गए थे, और लाखों पर जलने के निशान आज तक बने हुए थे। मुझे लगा हमारी गाड़ी किसी गहरी, लम्बी अन्धकारमय गुफा में घुस रही है। और हम अपना सब-कुछ इस अन्धकार को सौंप दे रहे हैं।

हम सब लगभग तीन सौ यात्री थे। स्त्रियों और बच्चों की भी संख्या काफी थी। लाहौर में हमने सभी गुरुद्वारों के दर्शन किये। वहाँ हमें जैसा स्वागत मिला,उससे आगे अब पंजासाहिब की यात्रा में किसी प्रकार का अनिष्ट घट सकता है, ऐसी सम्भावना तो नहीं थी, परन्तु मनुष्य के अन्दर का पशु कब जागकर सभी सम्भावनाओं को डकार जाएगा, कौन जानता है?

यही सब सोचते-सोचते मैंने मां की ओर देखा, हथेली पर मुंह टिकाए, कोहनी को खिडक़ी का सहारा दिए वे निरन्तर बाहर की ओर देख रही थीं। खेत कट चुके थे। दूर-दूर तक सपाट धरती दिखाई दे रही थी। मुझे लगा, मां की आँखों में से उतरकर यह सपाटता मन में पूरी तरह छा गयी है। फिर मैंने अपने डिब्बे के दूसरे यात्रियों की तरफ देखा। उन पर भी गहरी उदासी छा गयी थी। समझ में नहीं आ रहा था कि एकाएक ऐसी उदासी सब पर क्यों छा गयी है?

‘तुम्हें तो रास्ता अच्छी तरह याद होगा।’ मैंने मां का ध्यान तोड़ते हुए पूछा, ‘सैकड़ों बार आना-जाना हुआ होगा तुम्हारा?’

मां मेरी ओर देखकर मुस्करायी। वह मुस्कराहट सब-कुछ खोकर पाई हुई मुस्कराहट थी। बोलीं, ‘मुझे तो रास्ते का एक-एक स्टेशन तक याद है। पर आज यह इलाका कितना बेगाना-बेगाना-सा लग रहा है। पहले भी ऐसी ही जाती थी। लाहौर पार करते ही अजीब-सी उमंग नस-नस में दौड़ी जाती थी।’ सराई (हमारा गांव) जैसे-जैसे निकट आता जाता, वहां की एक-एक शक्ल मेरे सामने दौड़ जाती, स्टेशन पर कितने लोग आये होते...’

मां की आंखों में चौदह साल पहले की याद तरल हो आई थी। पिताजी ने अपना रोजगार उत्तर प्रदेश में ही जमा लिया था। हम सब भाई-बहनों का जन्म पंजाब के बाहर ही हुआ था। मुझे याद है, पिताजी तो शायद साल में एकाध बार ही पंजाब आते हों, पर मां के दो-तीन चक्कर जरूर लग जाते थे। हममें जो छोटा होता वह मां के साथ जाता, और जबसे मुझे याद है, मेरी छोटी बहन ही उनके साथ जाया करती थी। उन दिनों, पंजाब का विभाजन घोषित हो चुका था, पंजाब की पांचों नदियों का जल उन्माद की तीखी शराब बन चुका था, मां ने फिर पंजाब जाने का फैसला किया था। सभी ने ऐसे विरोध किया जैसे वे जलती आग में कूदने जा रही हों। और वह सचमुच आग में कूदने जैसा ही तो था। परन्तु पिताजी सहित हम सब जानते थे कि मां को अपने निश्चय से डिगाना कोई आसान बात नहीं। उन्होंने सबकी बातों को हँसकर टाल दिया। बीस-बाइस दिनों में वह वापस आ गयीं। गाँव के घर का बहुत-सा सामान वे बुक करा आयी थीं। अपने साथ वे अपना पुराना चरखा और दही मथने की मथनी ले आयी थीं।

फिर सारे पंजाब में आग लग गयी। घर-के-घर, गाँव-के-गाँव और शहर-के-शहर उस आग में जलने लगा। आग रुकी तो लगा इधर तक सपाट फैली हुई जमीन अमृतसर और लाहौर के बीच से फट गयी है और उस पार का फटा हुआ हिस्सा बीच में गहरी खाई छोडक़र न जाने कितना उधर खिसक गया है। हम सब भूल-से गए कि उस गहरी खाई के उस पार हमारा अपना गाँव था, पक्की सडक़ के किनारे पीछे की ओर एक नहर थी, और पास की झेलम नदी, अल्हड़ लडक़ी की तरह उछलती-कूदती बहती थी !

आज मैं मां के साथ खाई पर राजकीय औपचारिकता के बांधे हुए पुल से गुजरकर उसी ओर जा रहा था जो कल कितना अपना था, आज कितना पराया है!

मैं एक पुस्तक के पन्ने उलट रहा था, मां ने पूछा, ‘यह गाड़ी सराई स्टेशन पर रुकेगी?’

‘हां रुकेगी शायद। पर पहुँचेगी रात के एक-दो बजे। हम लोग गहरी नींद में सो रहे होंगे। स्टेशन कब आकर निकल जाएगा, पता भी नहीं लगेगा। और अब अपना रखा ही क्या है वहाँ?’

मां के चेहरे पर खिसियाहट-सी दौड़ गयी। बोलीं, ‘तुम्हारे लिए पहले भी वहाँ क्या रखा था?’

मेरी बात से मां को चोट पहुँची थी। बिना और कुछ बोले मैं सिर झुकाकर अपनी पुस्तक के पन्नों में उलझ गया।

धीरे-धीरे अँधेरा छाने लगा। मां ने पोटली खोलकर खाने के लिए कुछ निकाला। मेरे एक दूर के मामाजी हमारे साथ थे। तीनों ने मिलकर कुछ खाया और सोने की तैयारी करने लगे। मामाजी तो दस मिनट में ही खर्राटे भरने लगे। मैं भी एक ओर लुढक़ गया। मां वैसी ही बैठी रहीं।

कुछ देर बाद एकाएक मेरी आँख खुली, देखा मां, वैसे ही बाहर फैले हुए अँधेरे की ओर निष्पलक देखती हुई बैठी हैं। घड़ी देखी, साढ़े दस बज गये थे। मैंने कहा, ‘मां तुम भी लेट जाओ न।’

‘अच्छा!’ उनके मुंह से निकला और वे अधलेटी-सी हो गयी।

उस अधनींदी अवस्था में मैंने कोई स्वप्न देखा, ऐसा तो मुझे याद नहीं आता, पर उस नींद में भी कुछ घबराहट अवश्य होती रही थी। मुझे लग रहा था उस लाल-लाल गाढ़ी-सी चीज पर मेरे पैर फच-फच पड़ रहे हैं। फिर एकाएक मैं हड़बड़ा कर उठा। मां मुझे झकझोर रही थीं और अजीब-सी घबराहट और उत्तेजना से उनके हाथ काँप रहे थे।

‘क्या है?’

‘देखो यह बाहर शोर कैसा है?’

मैंने बाहर झाँककर देखा। हमारी गाड़ी छोटे-से स्टेशन पर खड़ी थी। प्लेटफार्म पर अजीब-सा कोलाहल वहाँ छाया हुआ था। चौदह साल पहले की अनेक सुनी-सुनायी घटनाएं बिजली बनकर कौंध गयी, जब दंगाइयों ने कितनी गाडिय़ों को जहां-तहां रोककर लोगों को गाजर-मूली की तरह काट डाला था। मामाजी जागकर मेरा कन्धा हिला रहे थे।

‘अरे क्या बात है?’

भीड़ में से कोई चिल्ला रहा था, ‘अरे इस गाड़ी में कोई सराई का है?’

‘यह कौन-सा स्टेशन है?’ मैंने मां से पूछा।

मां ने कहा, ‘सराई-अपने गाँव का स्टेशन।’

बाहर से फिर आवाज आयी, ‘अरे इस गाड़ी में कोई सराई का है?’

मैंने मां की ओर देखा। उनके चेहरे पर पूर्ण आश्वस्तता थी।

‘पूछो इनसे, क्या बात है?’

मैंने खिडक़ी से गरदन निकाली। बहुत-से लोग घूमते हुए पुकार रहे थे, ‘अरे कोई सराई का है?’

एक आदमी को बुलाकर मैंने पूछा, ‘क्या बात है जी?’

‘आपमें कोई इस गाँव का है?’

‘हां, हम हैं इस गाँव के...’ मां आगे आकर बोली।

‘तुम सराई की हो?’ उस आदमी ने जोर देकर पूछा।

‘हां, जी।’

मां के इतना कहते ही स्टेशन पर चारों ओर शोर मच गया। बहुत-से आदमी हमारे डिब्बे के सामने जमा हो गये।

‘हम सराई के ही हैं...’ मां ने जोर देकर कहा।

किसी की आवांज आयी, ‘तुम किसके घर से हो?’

मां ने मेरी ओर देखा। मैंने कहा, ‘मेरे पिताजी का नाम सरदार मूलासिंह है। ये मेरी मां हैं!’

‘तुम मूलासिंह के बेटे हो?’ कई लोग एक-साथ चिल्लाए, ‘तुम मूलासिंह की बीवी हो...रवेलसिंह की भाभी? कैसे हैं सब लोग...?’ कहते-कहते कितने ही हाथ हमारी ओर बढऩे लगे। लोग हमारे सम्बन्धियों में सबकी कुशल-क्षेम पूछते हुए अपने हाथ की पोटलियाँ मुझे और मां को थमाते जा रहे थे। मैं और मां गुमसुम से उन्हें ले-लेकर अपनी सीट पर रखते जा रहे थे। देखते-देखते हमारी बर्थ कपड़ों की छोटी-छोटी पोटलियों से भर गयी।

मैं हक्का-बक्का-सा यह देख रहा था। मां अपने सिर का कपड़ा बार-बार संभालती हुई हाथ जोड़ रही थीं। खुशी से उनके होंठ फडफ़ड़ा रहे थे। मुंह से निकल कुछ भी न रहा था और लगता था आँखें अभी चू पड़ेंगी।

वहीं खड़े गार्ड ने हरी लालटेन ऊपर उठायी और कोट की जेब से सीटी निकाली। मैंने देखा तीन-चार आदमियों ने उसे पकड़-सा लिया।

‘अरे बाबू, दो-चार मिनट और खड़ी रहने दे गाड़ी को। देखता नहीं, ये बीवी इसी गाँव की हैं...!’ और एक ने उसका लालटेन वाला हाथ पकडक़र नीचे कर दिया।

‘भरजाई, सरदारजी कैसे हैं? उन्हें क्यों नहीं लायी, पंजे साहब के दरशन कराने?’ एक बूढ़ा-सा मुसलमान पूछ रहा था।

मां ने दोनों हाथों से सिर का कपड़ा और आगे कर लिया, उनके मुंह से धीरे से निकला, ‘सरदारजी नहीं रहे...!’

‘ओह, बड़े ही नेक बन्दे थे, खुदा उन्हें अपनी दरगाह में जगह दे।’ उनमें से एक ने अफसोस प्रकट करते हुए कहा। कुछ क्षण के लिए सबमें खामोशी छा गयी।

‘भरजाई, तेरे बच्चे कैसे हैं?’

‘वाहे गुरु जी की किरपा है, सब अच्छे हैं।’ मां ने धीरे से कहा।

‘अल्लाह, उनकी उम्र दराज करे।’ कई आवाज एक-साथ आईं।

‘भरजाई, तुम लोग वापस आ जाओ...वापस आ जाओ।’ प्लेटफॉर्म पर खड़ी कितनी आवाजें कह रही थीं : ‘वापस आ जाओ!’

मैंने सुना, मेरे पीछे खड़े मामाजी कुढ़ते हुए कह रहे थे, ‘हूं...बदमाश कहीं के! पहले तो मार-मारकर यहाँ से निकाल दिया, अब कहते हैं वापस आ जाओ। लुच्चे!’

पर प्लेटफॉर्म पर खड़े लोगों ने उनकी बात नहीं सुनी थी। वे कहे जा रहे थे-‘भरजाई, तुम अपने बच्चों को लेकर वापस आ जाओ! बोलो भरजाई, कब आओगी। अपना गाँव तो तुम्हें याद आता है? भरजाई वापस आ जाओ...’

मां के मुंह से कुछ नहीं निकल रहा था। वे सिर का कपड़ा संभालते हुए हाथ जोड़े जा रही थीं।

दूर खड़ा गार्ड हरी लालटेन दिखाता हुआ सीटी बजा रहा था।

इंजन ने सीटी दी। गाड़ी फकफक करती हुई चल दी। भीड़-की-भीड़ हमारे डिब्बे के साथ चल दी।

‘अच्छा, भरजाई सलाम...अच्छा बेटे सलाम...रवेलसिंह को मेरा सलाम देना...सबको हमारा सलाम देना...’

धीरे-धीरे गाड़ी कुछ तेज हो गयी। हम दोनों खिडक़ी से सिर निकाले हाथ जोड़े रहे। भीड़ के लोग वहीं खड़े हाथ ऊपर उठाए चिल्लाते रहे।

गाड़ी स्टेशन के बाहर निकल आयी तो मैंने बर्थ से पोटलियाँ हटाकर एक ओर कीं और मां से कुछ कहने के लिए उनकी ओर देखा। मां की आँखों से आँसुओं की अविरल धार बह रही थी,बांध का पानी बहता ही जा रहा था।

हमारी गाड़ी जेहलम के पुल पर आ गयी थी। रात्रि की उस नीरवता में खडर...खडर....खडर...की आवाज आ रही थी। मैं खिडक़ी से झांककर जेहलम का पुल देखने लगा। मैंने सुना था जेहलम का पुल बहुत मजबूत है। पत्थर और लोहे के बने उस मंजबूत पुल को अँधेरे में मैं देख रहा था। मेरी दृष्टि और नीचे की ओर जा रही थी, वहाँ घुप्प अँधेरा था, पर मैं जानता था वहाँ पानी है, जेहलम नदी का कल-कल करता हुआ स्वच्छ और निर्मल पानी, जो उस पत्थर और लोहे के बने हुए पुल के नीचे से बह रहा था।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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