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अमा जाने दो: मतलब पढ़ाई की कोई जरूरत ही नहीं!

raghvendra
Published on: 28 Dec 2018 5:36 PM IST
अमा जाने दो: मतलब पढ़ाई की कोई जरूरत ही नहीं!
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नवल कान्त सिन्हा

कसम से आज मुझको लगने लगा है कि मेरी माताजी और पिताजी ने मुझे मिसगाइड किया था। हालांकि उनकी भी गलती नहीं रही होगी क्योंकि उन्हें भी तो उनके पिताजी और माताजी ने मिसगाइड किया होगा। दरअसल ये ख्याल मुझे यूं ही नहीं आया बल्कि छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल सरकार के जिन नौ मंत्रियों को राज्यपाल आनंदीबेन पटेल ने शपथ दिलाई ली, उनमें से एक मंत्री को देखकर आया। हुआ यूं कि वहां सभी मंत्री हिन्दी में शपथ ले रहे थे, लेकिन लेकिन कोंटा के विधायक कवासी लखमा अपना शपथपत्र तक नहीं पढ़ पाए। वजह ये थी कि उन्हें पढऩा ही नहीं आता था। जब कवासी लखमा का नाम पुकारा गया तो वे शपथग्रहण के लिए आए, लेकिन खुद शपथ पढऩे की बजाय राज्यपाल ने पूरी शपथ पढ़ी और मंत्री ने उसे दोहराया।

दरअसल छत्तीसगढ़ सरकार में कवासी लखमा ऐसे मंत्री हैं, जिन्होंने कभी स्कूल का मुंह तक नहीं देखा। 1953 में सुकमा जिले के नागारास गांव में जन्मे लखमा छत्तीसगढ़ के गठन के बाद से ही लगातार चुनाव जीतते रहे और बस्तर की कोंटा सीट से विधायक हैं। अनुसूचित जाति के लखमा न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया और सिंगापुर जैसे कई देशों की सैर कर चुके हैं। वे अचानक मंत्री नहीं बने हैं बल्कि पहले वो दल के उपनेता थे। आप समझ सकते हैं कि जो व्यक्ति इतने साल विधायक रहा हो, अगर उसे पहले कभी लगा होता तो जरूर पढऩा सीख लेता।

कोई कुछ भी कहे, लेकिन सच तो यही है कि सियासत में आगे बढऩे के लिए पढ़ाई-लिखाई का कोई सीधा-सीधा नाता ही नहीं है। अब आप कहेंगे कि और नाम बताओ तो हम यही कहेंगे कि छोडि़ए क्योंकि इससे भक्त भी खफा हो सकते हैं और परिवारवाले भी और फिर जिस बात को सुनकर लोग खफा हों, उसको लेकर मैं अपनी स्मृति पर जोर क्यों दूं। फिर सियासत ही क्यों बड़े-बड़े विद्वान कौन ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी पढऩे गए थे। कबीरदास जी ने खुद ही कहा है-

मसि कागद छूऔं नहीं, कलम गहौं नहि हाथ,

चारों जुग कै महातम कबिरा मुखहिं जनाई बात।

मतलब कि मैंने कागज और स्याही छुआ नहीं और न ही कलम पकड़ी है। मैं चारों युगों के महात्मय की बात मुंहजबानी बताता हूं। चलिए गालिब की बात भी कर लेते हैं। गालिब कहते थे कि उन्होंने ग्यारह साल की उम्र उर्दू-फारसी में गद्य-पद्य लिखना शुरू कर दिया था। आप कहेंगे कि यानी कि वो बचपन में ही पढ़-लिख चुके थे, जवान होते-होते तो महाज्ञानी हो गए थे। चलिए मान लिया, लेकिन अब बताइये कि वो दारू क्यों पीते थे। किसी ने बताया नहीं, लेकिन मुझे लगता है कि उनको लगता होगा कि पूरा जीवन पढ़ाई-लिखाई, शेर-ओ-शायरी को देने के बावजूद कर्ज पीछा नहीं छोड़ रहा। गालिब चचा की बेगम उनसे जरूर कहती होंगी कि इतना पढऩे-लिखने का क्या फायदा, जो खाने-पीने का भी इंतजाम भी नहीं कर पा रहे हो। कपिल देव, सचिन तेंदुलकर, मेरीकॉम और इनके जैसे न जाने कितने खिलाडिय़ों ने कौन सा पीएचडी कर नाम कमाया है। धीरूभाई अंबानी, वाल्ट डिजनी कौन सी यूनिवर्सिटी गए थे।

इतिहास गवाह है कि बड़े-बड़े वैज्ञानिक पढ़ाई की वजह से नहीं बल्कि किसी खास घटना की वजह से महान वैज्ञानिक बन पाए। आइजक न्यूटन के मित्र स्ट्यूक्ली ने लिखा है कि 1660 के दशक के मध्य में न्यूटन को पेड़ से जब सेब गिरा तो गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत समझ में आया। इसी तरह जेम्स वाट को भी जब भाप से केतली का ढक्कन उड़ गया तो स्टीम इंजन का आविष्कार समझ में आया। अब आप इतना तो समझ ही गए होंगे कि महान बनने के लिए डिग्री की जरुरत नहीं होती। लेकिन हां, कोई जुगाड़ भी हो, तब भी दफ्तर का बाबू बनने के लिए डिग्री, सर्टिफिकेट की जरुरत तो होगी ही।



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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