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सुभाष बोस की वापसी
अब बारी आ गयी नेताजी की। नेहरु वंश की हर कोशिश, बल्कि साजिश के बावजूद सुभाष चन्द्र बोस को नैसर्गिक अधिकार हासिल हो ही गया।
Subhas Chandra Bose: किताबों में दर्ज है कि अपनी रियासत के रक्त पिपासु राजेमहाराजे बेगैरत रीति से सम्राट के कृपापात्र बनने की होड़ में रहते थे। सन 1857 के गोरे हत्यारों की मिन्नत में।
अब बारी आ गयी नेताजी की। नेहरु वंश की हर कोशिश, बल्कि साजिश के बावजूद सुभाष चन्द्र बोस को नैसर्गिक अधिकार हासिल हो ही गया। हालांकि बोस की रहस्यात्मक मृत्यु की अभी तक गुत्थी सुलझी नहीं। नेताजी की मृत्यु के विषय में प्रधानमंत्री कार्यालय से सूचना कई बार मांगी गयी, पर कोई भी संतोषजनक जवाब नहीं मिला। जवाहरलाल नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह सरकारों से पूछा जा चुका है।
एक रपट के अनुसार ढाई दशक पूर्व (1995) में मास्को अभिलेखागार में तीन भारतीय शोधकर्ताओं ने चंद ऐसे दस्तावेज थे जिनसे अनुमान होता है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस कथित वायुयान दुर्घटना के दस वर्ष बाद तक जीवित थे। वे स्टालिन के कैदी के नाते साइबेरिया के श्रम शिविर में नजरबंद रहे होंगे। सुभाष बाबू के भतीजे सुब्रत बोस ने प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव से इसमें तफ्तीश की मांग भी की थी। इसी आधार पर टोक्यो के रेणकोटी मंदिर में नेताजी की अनुमानित अस्थियां कलकत्ता लाने का विरोध होता रहा।
सुभाषचंद्र बोस पर मिली इन अभिलेखागार वाली सूचनाओं पर खुले दिमाग से गौर करने की तलब होनी चाहिए थी। प्रधानमंत्री से राष्ट्र की मांग है। यह भारत के साथ द्रोह और इतिहास के साथ कपट होगा यदि नेहरू युग से चले आ रहे सुभाष के प्रति पूर्वाग्रहों और छलभरी नीतियों से मोदी सरकार के सदस्य और जननायक भी ग्रसित रहेंगे और निष्पक्ष जांच से कतराते रहेंगे। संभव है कि यदि विपरीत प्रमाण मिल गए तो जवाहलाल नेहरू का भारतीय इतिहास में स्थान बदल सकता है, पुनर्मूल्यांकन हो सकता है।
एक खोजपूर्ण दृष्टि तो अब भी डाली जा सकती है। भारत की स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों की राजनीतिक स्थिति और संघर्ष के दौरान की घटनाओं का विश्लेषण करें तो पूरा दृश्य कुछ स्पष्ट होता लगेगा। जैसे आजाद भारत के कांग्रेसी नेताओं का सुभाषचंद्र बोस की जीवित वापसी से बड़ा खतरा महसूस करना।
यह इस परिवेश में भी समचीन लगता है कि राज्य सत्ता हासिल करने की लिप्सा में तब के राष्ट्रीय कर्णधारों ने राष्ट्रपिता को ही दरकिनार कर जल्दबाजी में देश का विभाजन स्वीकार कर लिया था। फिर वे सत्ता में सुभाष बोस की भागीदारी कैसे बर्दाश्त करते? देश कृतज्ञ है नरेन्द्र मोदी का कि सरदार पटेल के बाद सुभाष बोस को राष्ट्र के समक्ष पेश कर, उनकी भव्य प्रतिमा लगवाकर एक परिवार द्वारा ढाये जुल्म का अंत हो रहा है। मूर्ति लगाने से नेताजी को न्याय दिलाने की प्रक्रिया की शुरुआत हो गयी है। अब इसका तार्किक अंत भी हो।