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नेताजी को प्रथम प्रधानमंत्री माना जाये ?

लोकतांत्रिक भारत के इतिहास की वह कहानी जिसमें जवाहरलाल नेहरू नहीं सुभाष चंद्र बोस को कहा जा सकता है देश का प्रथम प्रधानमंत्री।

Bishwajeet Kumar
Published By Bishwajeet KumarWritten By K Vikram Rao
Published on: 25 Jan 2022 5:35 PM IST
नेताजी को प्रथम प्रधानमंत्री माना जाये ?
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Subhash Chandra Bose

सुभाष बाबू पर मेरे दोनों पोस्ट पर कई प्रतिक्रियायें आयीं, लिखित तथा फोन पर। नीक लगा। मेरी मान्यता है कि नेताजी स्वतंत्रता इतिहास के सर्वाधिक त्रासदपूर्ण नायक हैं। शेक्सपियर होते तो एक दुखांत नाटक लिख डालते। एक संघर्षशील जननायक जो स्वनिर्मित था। दुनियादारीभरे प्रपंची उन्हें गिराने में दशकों तक ओवरटाइम करते रहे। गौर करें, डा. पट्टाभि सीतारामय्या (रिश्ते में मेरे सगे ताऊ) को बहुमत से पराजित कर नेताजी कांग्रेस अध्यक्ष (त्रिपुरी अधिवेशन : 1939) चुने गये थे। पहला प्रत्याशी गांधीजी ने जवाहरलाल नेहरु (Jawaharlal Nehru) को सुझाया था। तभी यूरोप में लम्बे विश्राम के बाद नेहरु भारत लौटे थे। उन्होंने खुद मौलाना अबुल कलाम आजाद (Maulana Abul Kalam Azad) का प्रस्ताव रखा। मगर निश्चित परा​जय की आशंका से मौलाना ने भी किनारा कर लिया। सुभाष बाबू तब तक भारत के युवजन का सपना बन गये थे। नेहरु तब पचास के पार थे। नेताजी चालीस के थे। अजेय थे। आज्ञाबद्ध होकर पट्टाभि ने, जो साठ के करीब रहे, उम्मीदवारी हेतु हामी भर दी। मुझ जैसे गांधीवादी को अचरज होता है कि समभाव और मर्यादा के कठोर अनुयायी बापू को सुभाष से इतनी बेरुखी क्यों थी? शायद सुभाष की कार्ययोजना में हिंसा से वितृष्णा नहीं थी। खासकर चौरा-चौरी के बाद जनांदोलन को वापस लेने के कारण। मगर बापू को बोस ही ने सर्वप्रथम ''राष्ट्रपिता'' कहकर रंगून रेडियो से संबोधित किया था। फिर भी उनकी उपेक्षा क्यों?





अब सरदार पटेल, नेहरु आदि ने चतुराईभरी चाल चली। एक प्रस्ताव पारित कराया कि कांग्रेस की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को बापू की राय से गठित की जाये। पार्टी संविधान में स्पष्ट प्रावधान था कि नवनिर्वाचित अध्यक्ष अपनी टीम नामित करेगा। तैराक की टांगे बांध दे, तो वह खाक तैरेगा? नतीजन असहमत बोस ने त्यागपत्र दे दिया। यह कदम परा​जित गिरोह की सरासर बेईमानी थी। इज्जतदार आदमी के सामने विकल्प क्या था? केवल इस्तीफा। बोस ने तत्काल पद तज दिया। किन्तु राजनीतिशास्त्र के छात्र के नाते मुझे यह घटना अत्यंत हृदयस्पर्शी लगी। कारण यही था कि त्रिपुरी में सोशलिस्ट गुट के पुरोधाजन सभी बोस के खिलाफ थे। नेहरु की डुग्गी व ढोल बजा रहे थे। लोहिया, जेपी, नरेन्द्र देव आदि।

यही गौरतलब बात है कि अध्यक्षपद जीतते ही बोस द्वारा पहली घोषणा की थी कि राष्ट्रीय नियोजन बोर्ड गठित हो जो आजाद भारत में विकास को गतिशील बनाये। हालांकि बोस की इस अवधारणा को नेहरु ने स्वतंत्रता के बाद प्लानिंग कमीशन बनाकर साकार किया था। जैसे बोस के ''जय हिन्द'' वाले नारे को नेहरु आत्मसात कर लिया।

प्रस्तुत लेख का एक विशेष पहलू यह है कि ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने मांग की है की भारत का प्रथम प्रधानमंत्री बोस को माना जाये। यह बड़ा जोरदार विधि-सम्मत, तर्कपूर्ण प्रस्ताव है। नरेन्द्र मोदी को स्वीकारना चाहिये।

अंतर्राष्ट्रीय कानून भी इसी प्रावधान की पुष्टि करता है कि राष्ट्र के लिये निश्चित भूभाग, स्वायत प्रशासन और वित्तीय तथा सैन्य व्यवस्था हो। अंत: सुभाष बोस ने 29 दिसम्बर 1943 के दिन शहीद तथा स्वराज द्वीप घोषित कर दिया था। अण्डमान फिर उपविनेश नहीं रहा। मुक्त हो गया था। जबकि गुलाम भारत 15 अगस्त 1947 को स्वाधीन हुआ था। नेहरु ने लालकिले पर तब तिरंगा लहराया था। द्वितीय विश्वयुद्ध में ब्रिटिश सरकार तो भागकर लंदन आये, पनाह पाये फ्रेंच, नार्वे, डेनमार्क आदि राष्ट्रों के समानान्तर अस्तित्व को कानूनी मान्यता दे दी थी। इन्हीं सब के देश पर हिटलर का कब्जा हो गया था। अत: मुक्त अण्डमान भी वैसा ही था, तो उसे अधिमान्यता क्यों नहीं ?

इससे भी ज्यादा अहम बात यह हे कि दिल्ली में शासक-ब्रिटेन ने अपनी संसद में अधिनियम पारित कर दिल्ली का राज कांग्रेस को हस्तांतरित किया था। दूसरा भूभाग जिन्ना को सौंप दिया। बोस ने सैन्य शक्ति के बल साम्राज्यवादियों को शिकस्त देकर अण्डमान छीना था। स्वयं बोस कहा करते थे कि वे भीख में स्वतंत्रता नहीं लेंगे। वायसराय लुई माउंटबेटन ने नेहरु को स्वतंत्रता बख्श दी थी। वैधानिक स्थिति यहीं है। अर्थात आजाद हिन्द की सरकार ही प्रथम स्वयं चालित स्वतंत्र शासन था। पर बोस के असामयिक निधन से स्थिति बदल गयी।

भारतीय संविधान सभा का सोशलिस्टों ने 1947 में बहिष्कार किया था। उनका नारा था ''यह आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी है।'' पर नेहरु को जल्दी थी। मुकुट धारण करने की बेसब्री थी। इसीलिये विभाजन मान लिया। जिन्ना को बिना संघर्ष किये, बिना जेल गये इस्लामी सल्तनत मिल गयी। कराची पहुंचते ही जिल्ले इलाही वे बन गये। न वोट, न चुनाव। वाह!! यूं भी कितने है इस्लामी राष्ट्र हैं जहां सत्ता विरासत में, न कि मतदान द्वारा, प्रदत्त होती है।

इस विधिसम्मत तर्क के समर्थन में ''हिन्दुस्तानी'' नाम के एक ग्रुप का विस्तृत विवरण नीचे पेश है

''सिंगापुर में 21 अक्टूबर 1943 को अस्थायी भारत सरकार 'आजाद हिन्द सरकार' हुयी थी। इस अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री व विदेशमंत्री का जिम्मा संभाला। जापान के अलावा नौ देशों की सरकारों ने आजाद हिंद सरकार को अपनी मान्यता दी थी, जिसमें जर्मनी, फिलीपींस, थाईलैंड, मंचूरिया और क्रोएशिया आदि देश शामिल थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर के कैथी सिनेमा हॉल में आजाद हिंद सरकार की स्थापना की घोषणा की थी. वहां पर नेताजी स्वतंत्र भारत की अंतरिम सरकार के प्रधानमंत्री, युद्ध और विदेशी मामलों के मंत्री और सेना के सर्वोच्च सेनापति चुने गए थे। वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया। बाद में अय्यर साहब स्वाधीन भारत सरकार के सूचना विभाग के निदेशक बने थे। इसके साथ ही सुभाष चंद्र बोस ने जापान-जर्मनी की मदद से आजाद हिंद सरकार के नोट छपवाने का प्रबंधन किया और डाक टिकट भी तैयार करवाए। जुलाई, 1943 में बोस पनडुब्बी से जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुंचे। वहां उन्होंने ''दिल्ली चलो'' (Delhi Chalo) का प्रसिद्ध नारा दिया। फिर 4 जुलाई 1943 को बोस ने 'आजाद हिन्द फौज' (Aazad Hindi Fauz) और 'इंडियन लीग' (Indian League) की कमान को संभाला। उसके बाद उन्होंने सिंगापुर में ही 21 अक्टूबर 1943 में सिंगापुर में अस्थायी भारत सरकार 'आजाद हिन्द सरकार' (Aazad Hind Sarkar) की स्थापना की तथा दिसंबर 1943 को ही अंडमान निकोबार में पहली बार सुभाष चंद्र बोस (Subhash Chandra Bose) ने तिरंगा फहराया था। ये तिरंगा आजाद हिंद सरकार का था।'' तर्क और प्रमाण वाजिब हैं। तो फिर हिचक क्यों ?

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