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कोई ये कैसे बताये जिन्दगी दरस्त-ए-गम थी और कुछ नहीं
अड़ताल्लीस घंटे बीतते ना बीतते वक्त इस वाकये, नाम को भी भूला देगा और फिर चंद दिनों, महीनों या कहे साल बाद फिर ऐसे ही कोई नाम अवसाद फिल्म इंडस्ट्री में काॅमन पाए जाने वाली बीमारी, के नाम पर मौत की आगोश में सुकून पाने चला जाएगा, दूसरों के लिए एक प्रश्नवाचक चिह्न छोड़कर।
रेखा पंकज
सुशांत सिंह राजपूत की 2 फिल्मों को मैंने कई बार देखा- काय पो छे और एमएस धोनी एक में जिद्दी अहमक क्रिकेट ट्रेनर और दूसरे में जुनूनी क्रिकेटर. दोनों को देखकर मुझे हमेशा से यही लगा कि ये स्टारों वाली अदाओं से अलग कलाकार को अगर कोई सही परख रखने वाला जौहरी मतलब निर्देशक मिल जाए तो ये कई स्टार्स की छुट्टी कर देगा... लेकिन हाय रे दुर्भाग्य!...
है और था का अंतर
जिन्दगी जब मौत को गले लगाती है तो है और था के बीच का अंतर पलक झपकते हीे नाप देती है। आप भौचक से खड़े उस पल को समझने की कोशिश में कई प्रश्नों के चक्रव्यूह में फंसे उनके जवाब की तलाश में अगले-बगले झांकते फिरते हो। 34 साल का छोटा सा जीवन फंदे में झूलते हुए एक बड़ा सा शून्य छोड़ जाता है ये सोचने को मजबूर करते हुए कि ऐसा क्या था कि उसे यही करना उचित लगा और अचानक ही मौत जीवन पर भारी पड़ गई... जरा सोचिए किस कदर मानसिक तनाव की स्थिति में सुशांत सिंह राजपूत उस वक्त रहा होगा?
रैस्ट इन पीस
इस उम्र मे किसी भी स्वस्थ परिपक्व जीवन जीते आदमी की मौत पर रैस्ट इन पीस लिखना भी किसी ज्यादती से कम नहीं लगता। यकीनन कोरोना से हो रही मौतों के सदमे के बीच ये मौत ब्लॉक ब्लास्टर फिल्में देने वाली मायानगरी का कुरूप चेहरा दिखाती है।
अभी तक आत्महत्या की वजह का पता नहीं लगा है। हालांकि, उसका कहना है कि अभिनेता बीते छह महीने से डिप्रेशन से गुजर रहे थे। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में यह भी कहा गया है कि सुशांत डिप्रेशन को कम करने के लिए श्री श्री रविशंकर के ‘आर्ट ऑफ लिविंग’ की मदद ले रहे थे।
अब जितने मुंह उतनी बातें... कौन बताए आखिर उनको यही राह चुनना क्यों श्रेयस्कर लगा। संभवतः पत्थर दिल इस नगरी में सुशान्त सिंह राजपूत भावनाओं से भरा दिल लेकर जी रहे थे। स्टार तो बन रहे थे परस्टारडम वाला अंदाज खुद पर नहीं चढ़ा पा रहे थे। तभी तो दूसरों का जीवन अजाब बनाने के बजाय खुद का जीवन ले बैठे। अपने बालीवुड सीनियर्स से ऐसी दीक्षा लेने में वे पीछे रह गए।
कोई स्टारडम नहीं
निश्चित तौर पर सुशांत कोई खान या रणवीर टाइप बड़े स्टारडम वाले हीरो नहीं रहे, लेकिन वो राजकुमार राव और आयुष्मान खुराना श्रेणी में बेहतरीन कलाकार थे। बॉलीवुड इंडस्ट्री में जहां स्टारपुत्रों का नित नया परिचय मिल रहा था ऐसे में सुशांत जैसे सामान्य टी वी कलाकार का बिना किसी गॉडफादर के अपने अभिनय के बूते यहां तक पहुंच जाना वाकई प्रशंसनीय रहा।
उज्ज्वल भविष्य था उनका पर होनी को कौन टाल सका। कौन जाने किस तकलीफ से उनको दो चार होना पड़ा। रंग रोगन से लिपि पोती बॉलीवुडी दुनिया में वैसे भी सच कौन जीता है। झूठ का मास्क पहने हर कोई खुद को बेहद खुश और जिंदादिल दिखाता है।
यहां बनावटी व्यवहार, बनावटी दोस्तों के बीच हर आदमी तन्हा होता है। इंडस्ट्री की कब्रें खोदी जाएं तो एक नहीं अनेकों तन्हा किस्से खाक ए सिपुर्द मिल जाएंगे। फातेह वास्ती के लफ्जों में कहूं तो किस किस का जिक्र कीजिए किस किस को रोइए... यहां की रौनके महफिल के पीछे छुपे काले स्याह चेहरे अंधेरे बंद कमरों में सिसकते देखे जा सकते है जिनका अंजाम यूं ही सामने आता है।
अड़ताल्लीस घंटे बीतते ना बीतते वक्त इस वाकये, नाम को भी भूला देगा और फिर चंद दिनों, महीनों या कहे साल बाद फिर ऐसे ही कोई नाम अवसाद फिल्म इंडस्ट्री में काॅमन पाए जाने वाली बीमारी, के नाम पर मौत की आगोश में सुकून पाने चला जाएगा, दूसरों के लिए एक प्रश्नवाचक चिह्न छोड़कर।
और अंत में तुम्हारे लिए सिर्फ इतना ही सुशान्त सिंह राजपूत -
जिन्दगी दरस्त-ए-गम थी और कुछ नहीं,
ये मेरा (तेरा) ही हौंसला है की दरम्यां से गुजर गया.