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Swami Swaroopanand Saraswati: स्वघोषित कोई सन्यासी सनातन की सर्वोच्च पीठ का आचार्य नहीं हो सकता

Swami Swaroopanand Saraswati: यह अगम निगम के साक्षीभाव का प्रतिनिधित्व है जिसको किसी उत्तराधिकार या सामान्य परंपरा के रूप में नही चलाया जा सकता।

Sanjay Tiwari
Written By Sanjay Tiwari
Published on: 14 Sep 2022 7:01 AM GMT
Swami Swaroopanand Saraswati
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Swami Swaroopanand Saraswati (photo: social media ) 

Swami Swaroopanand Saraswati : भगवान शंकराचार्य द्वारा स्थापित पद्धति के इतर कोई पद्धति शंकराचार्य के लिए मान्य नही हो सकती। हजारों वर्षों की यह परंपरा किसी सामान्य मठ या मंदिर या पीठ की तरह नहीं है कि पीठाधीश्वर की देहत्याग के बाद कोई भी पीठ का अधिष्ठाता बना दिया जाय। इसमे कोई उत्तराधिकार नही चलता। यह अगम निगम के साक्षीभाव का प्रतिनिधित्व है जिसको किसी उत्तराधिकार या सामान्य परंपरा के रूप में नही चलाया जा सकता। बड़े कठोर नियम हैं। उन नियमो का पालन और उन अवस्थाओं से निवृत्त हुए बिना कोई स्वयं को इसलिए शंकराचार्य घोषित कर दे क्योकि वह उस शंकराचार्य का शिष्य है, यह भगवान आदि शंकराचार्य की पद्धति के विरुद्ध है। इस प्रक्रिया और उद्घोषणा को न तो स्वीकार किया जा सकता है और न ही उपेक्षित दृष्टि से चुप रह कर चलने देने की व्यवस्था उचित है। यह सनातन संस्कृति और इसकी महान परंपरा के अस्तित्व का प्रश्न है जिस पर समाज के सन्तानजीवी गंभीर महानुभावों को अवश्य सोचना भी होगा और सक्रिय होकर समाधान भी देना होगा। भारत की सनातन भूमि आज किसी ईसाई या मुगल के अधीन नहीं है कि चुपचाप परिस्थिति का हवाला देकर जो भी अनैतिक हो उसको देखते रहें। आज भारत विश्वगुरू बन रहा है जिसकी नींव में हमारी सनातन विरासत है। इसलिए तटस्थ होकर तमाशा देखने का समय तो बिल्कुल भी नहीं है। यह बहुत शुभ है कि गोवर्धन पीठ के शंकराचार्य महाभाग की ओर से बहुत स्पष्ट संदेश इस बार प्रसारित कर दिया गया है। किसी भी सनातन अनुयायी के लिए यह समय केवल तमाशा देखने का नहीं है। यह समय ठीक वैसा दिख रहा है जैसे भारत के भीतर कई स्वनामधन्य लोग खुद को प्रधानमंत्री घोषित कर लें, फिर देश का क्या हाल होगा? सनातन संस्कृति के लिए इस संत्रास के समय मे बहुत सतर्कता और सक्रियता का समय है।

photo: social media

भगवान आदि शंकराचार्य ने प्राचीन भारतीय सनातन परंपरा की रक्षा के लिए देश के चार कोनों में चार मठों की स्थापना की थी। पूर्व ओडिशा में गोवर्द्धन मठ (पुरी), पश्चिम गुजरात में शारदा मठ (द्वारिका), उत्तर उत्तराखंड में ज्योतिर्मठ (बद्रिकाश्रम) एवं दक्षिण रामेश्वर में श्रृंगेरी मठ। इन सभी पीठों पर आधिकारिक आचार्यों की सर्वसम्मति अवस्थापना ही सनातन की मूल आवश्यकता है ।

यह अत्यंत महत्वपूर्ण पक्ष है कि मठों की स्थापना के साथ ही इनकी रक्षा के लिए अखाड़े भी बनाए गए। इनमें अलग-अलग मठों के लिए दशनामी संन्यासी भी तैयार किए गए। इसके तहत गोवर्द्धन पीठ के साथ वन एवं अरण्य, शारदा पीठ के साथ तीर्थ एवं आश्रम, श्रृंगेरी पीठ के साथ सरस्वती, भारती एवं पुरी और ज्योतिर्पीठ के साथ गिरि, पर्वत एवं सागर संन्यासी जुड़े। आदि शंकराचार्य ने इन पीठों की बागडोर अपने उन शिष्यों को सौंपी थी, जिनसे उन्होंने स्वयं शास्त्रार्थ किया था।शंकराचार्य ने इन पीठों की स्थापना कर गोवर्द्धन पीठ पर पदमपादाचार्य, श्रृंगेरीपीठ पर हस्तामलाकाचार्य, शारदापीठ पर सुरेश्वराचार्य एवं ज्योतिर्पीठ पर त्रोटकाचार्य को बैठाया था। उसके बाद से यह परंपरा लगातार कायम रही।

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इन पीठों की स्थापना के काफी दिनों के बाद तक शंकराचार्य द्वारा स्थापित दशनामी अखाड़े के प्रमुख एवं उनके आचार्य महामंडलेश्वर इन मठों के शंकराचार्य का चयन करते रहे थे, लेकिन बाद में यह परंपरा टूट गई। मठों के शंकराचार्य स्वयं ही अपने उत्तराधिकारी के नाम की घोषणा करने लगे। कई ने अपनी वसीयत में उत्तराधिकारी का उल्लेख कर दिया। उनके ब्रह्मलीन होने पर शंकराचार्य पद को लेकर विवाद होने लगा। कई नए पीठ स्थापित हो गए और कई ने अपने को स्वयं शंकराचार्य घोषित कर लिया। विवाद न्यायालय में पहुंचने लगे और कोर्ट को भी इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा।

शंकराचार्य पद के लिए चयन की वैधानिक पद्धत्ति

भगवान शंकराचार्य द्वारा रचित मठाम्नाय के अनुसार, शंकराचार्य बनने के लिए संन्यासी होना आवश्यक है। संन्यासी बनने के लिए गृहस्थ जीवन का त्याग, मुंडन, पूर्वजों का श्राद्ध, अपना पिंडदान, गेरुआ वस्त्र, विभूति, रुद्राक्ष की माला को धारण करना आवश्यक होगा। शंकराचार्य बनने के लिए ब्राह्मण होना अनिवार्य है। इसके अलावा, दंड धारण करने वाला, तन मन से पवित्र, जितेंद्रिय यानी जिसने अपनी इंद्रियों को जीत लिया हो, वाग्मी यानी शास्त्र-तर्क भाषण में निपुण हो, चारों वेद और छह वेदांगों का पारगामी विद्वान होना चाहिए। इसके बाद अखाड़ों के प्रमुखों, आचार्य महामंडलेश्वरों, प्रतिष्ठित संतों की सभा की सहमति और काशी विद्वत परिषद की मुहर के बाद शंकराचार्य की पदवी मिलती है।शंकराचार्य के चयन प्रक्रिया में संन्यासी को वेदांत के विद्वानों से बहस करनी पड़ती है। सनातन धर्म के 13 अखाड़ों के प्रमुख आचार्य महामंडलेश्वर और संतों की सभा शंकराचार्य के नाम पर सहमति जताती है। इसके बाद काशी विद्वतपरिषद की भी सहमति लेना होती है। इसके बाद संन्यासी शंकराचार्य बन जाता है। शंकराचार्य दशनामी संप्रदाय के किसी एक संप्रदाय की साधना करते हैं।

मठ और इसका महत्व

आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित चारों मठों का सनातन धर्म में काफी महत्व है। सनातन धर्म में गणित को धर्म और अध्यात्म की शिक्षा का सबसे बड़ा संस्थान मठ को कहा जाता है। मठों में गुरु-शिष्य परंपरा का पालन किया जाता है और इसी परंपरा के माध्यम से शिक्षा भी दी जाती है। साथ ही चार मठों के जरिए सामाजिक कार्य भी किए जाते हैं।

चारों मठ के नाम व उनका महत्व

ज्योतिर्मठ

उत्तराखंड के बद्रीनाथ स्थित ज्योतिर्मठ के अंतर्गत दीक्षा लेने वाले सन्यासियों के नाम के बाद 'गिरि', 'पर्वत' और 'सागर' संप्रदाय के नाम विशेषण हैं। ज्योतिर्मठ का महावाक्य 'अयात्मा ब्रह्म' है। त्रोतकाचार्य इस मठ के पहले मठाधीश थे। स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को 44वां मठाधीश बनाया गया था जबकि वह पहले ही शारदा पीठ के शंकराचार्य बन चुके थे। यह चयन विवादित हो गया । यह वस्तुतः एक स्वनामधन्य घोषणा ही थी जिसको सुधारने में बहुत ऊर्जा नष्ट करनी पड़ी। इस मठ के अंतर्गत अथर्ववेद का अध्ययन किया जाता है। इस मठ के शंकराचार्य को लेकर विवाद हुआ और मामला न्यायालय तक गया। इस समय स्वामी वासुदेवानंद सरस्वती जी महाभाग इस पीठ के शंकराचार्य हैं।

श्रृंगेरी मठ

श्रृंगेरी मठ के तहत 'सरस्वती', 'भारती' और 'पुरी' विशेषण लगाए जाते हैं। दक्षिण भारत के चिकमंगलूर में श्रृंगेरी मठ है। इस मठ का महावाक्य 'अहं ब्रह्मास्मि' है। इस मठ के अंतर्गत यजुर्वेद को रखा गया है। इस मठ के पहले मठाधीश आचार्य सुरेश्वराचार्य थे। फिलहाल स्वामी भारती कृष्ण तीर्थ जी महाभाग इसके शंकराचार्य हैं, जो 36वें मठाधीश हैं।

गोवर्धन मठ

गोवर्धन मठ ओडिशा के जगन्नाथ पुरी में है। गोवर्धन मठ के तहत दीक्षा लेने वाले भिक्षुओं के नाम के बाद 'वन' और 'अरण्य' विशेषण लगाया जाता है। गोवर्धन मठ का महावाक्य 'प्रज्ञानं ब्रह्म' है और इसके अंतर्गत 'ऋग्वेद' रखा गया है। गोवर्धन मठ के पहले मठाधीश आदि शंकराचार्य के पहले शिष्य पद्मपादाचार्य थे। वर्तमान में स्वामी निश्चलानंद सरस्वती जी महाभाग इस मठ के शंकराचार्य हैं, जो 145वें मठाधीश हैं।

शारदा मठ

गुजरात के द्वारका शारदा मठ है और इस मठ के तहत दीक्षा लेने वाले सन्यासियों के नाम के बाद 'तीर्थ' और 'आश्रम' विशेषण रखे जाते हैं। इस मठ का महावाक्य 'तत्वमसि' है और इसके अंतर्गत 'सामवेद' का अध्ययन किया जाता है। शारदा मठ के पहले मठाधीश हस्तामलक थे। वे आदि शंकराचार्य के चार प्रमुख शिष्यों में से एक थे। स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती जी महाभाग इस मठ के भी प्रमुख थे, उन्हें 79वां शंकराचार्य बनाया गया था। स्वामी स्वरूपानंद जी के ब्रह्मलीन होने के दूसरे ही दिन दो लोगों ने उनके उत्तराधिकारी के रूप में जिस तरह सनातन समाज और परंपराओं को दरकिनार कर के स्वयं को शंकराचार्य घोषित कर लिए ,यह चिंताजनक है। यह सनातन की मूल परंपरा पर अनावश्यक कब्जा करने का प्रयास है। गोवर्धन पीठ और अन्य कई स्थानों से इस उद्घोषणा को अनावश्यक एवं परंपरा के विपरीत बताया गया है। इसको लेकर सनातन समाज की सक्रियता बहुत आवश्यक है।

Monika

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Content Writer

पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझे 4 सालों का अनुभव हैं. जिसमें मैंने मनोरंजन, लाइफस्टाइल से लेकर नेशनल और इंटरनेशनल ख़बरें लिखी. साथ ही साथ वायस ओवर का भी काम किया. मैंने बीए जर्नलिज्म के बाद MJMC किया है

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