स्वामी विवेकानंद के समाजवाद को समझने की है जरूरत

स्वामी विवेकानंद ने लिखा है, मैं समाजवादी हूं, इसलिए नहीं कि मैं इसे पूर्ण रूप से निर्दोष व्यवस्था समझता हूं।

Deepak Mishra
Published on: 4 July 2021 11:31 AM GMT
Swami Vivekananda
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स्वामी विवेकानंद की फाइल तस्वीर (फोटो साभार-सोशल मीडिया)

स्वामी विवेकानंद ने लिखा है, ''मैं समाजवादी हूं, इसलिए नहीं कि मैं इसे पूर्ण रूप से निर्दोष व्यवस्था समझता हूं, बल्कि इसलिए कि आधी रोटी अच्छी है, कुछ नहीं से।'' स्वामी विवेकानंद के समाजवाद को समझने के लिए उनकी पुस्तक, 'जाति, संस्कृति और समाजवाद' को पढ़ने की जरूरत है, और फिर पता चलेगा कि उनका समाजवाद, समाजवाद के नाम पर इस देश में राजनीति करने वालों से बिल्कुल भिन्न था। उनके समाजवाद में नर ही नारायण है।

विवेकानंद का समान अवसर सिद्धांत में विश्वास था

समाजशास्त्री डॉ. वीपी वर्मा के अनुसार, ''विवेकानंद समाजवादी इसलिए थे कि उन्होंने राष्ट्र के समस्त नागरिकों के लिए 'समान अवसर के सिद्धांत' का समर्थन किया था। उनमें यह समझने की ऐतिहासिक दृष्टि थी कि भारतीय इतिहास में दो उच्च जातियों- ब्राहृणों व क्षत्रियों का आधिपत्य रहा है। ब्राहृणों ने गरीब जनता को जटिल धार्मिक क्रियाकलापों व अनुष्ठानों में जकड़ रखा है और क्षत्रियों ने उनका आर्थिक व राजनीतिक रूप से शोषण किया है।''

आखिर क्यों आकर्षित हुए विवेकानंद समाजवाद की ओर

समाजशास्त्री के दामोदरन ने लिखा है, ''यूरोप में विकसित हो रहे पूंजीवाद की दुष्प्रकृति से विवेकानंद अत्यंत निराश हुए। वे नए क्रांतिकारी विचारों की ओर आकर्षित हुए, जो अभी निर्माण की अवस्था में थी। वे रूस के क्रांतिकारी विचारक प्रिंस क्रोपोटिलिन से मिले। समाजवादी विचारों ने उनके मन मस्तिष्क पर जबरदस्त प्रभाव डाला और उन्होंने स्वयं को समाजवादी कहना शुरू कर दिया।''

विवेकानंद के समाजवाद का स्वरूप

स्वामी विवेकानंद के हृदय में गरीबों एवं दलितों के प्रति असीम संवेदना थी। उन्होंने कहा, राष्ट्र का गौरव महलों में सुरक्षित नहीं रह सकता, झोंपडि़यों की दशा भी सुधारनी होगी। गरीबों यानी दरिद्रनारायण को उनके दीन हीन स्तर से ऊंचा उठाना होगा। यदि गरीबों एवं शूद्रों को दीन हीन रखा गया तो देश और समाज का कोई कल्याण नहीं हो सकता है। विवेकानंद के समाजवादी अंतरआत्मा ने चीत्कार कर कहा, ''मैं उस भगवान या धर्म पर विश्वास नहीं कर सकता जो न तो विधवाओं के आंसू पोंछ सकता है और न तो अनाथों के मुंह में एक टुकड़ा रोटी ही पहुंचा सकता है।''

दलित उत्थानयुक्त समाजवाद

विवेकानंद में श्रमिक वर्ग के प्रति जबरदस्त सहानुभूति थी। प्रो दामोदरन ने लिखा है, "उनके जीवन काल में भारत में श्रमिक वर्ग का संगठन मौजूद नहीं था, क्योंकि उस समय इस वर्ग की स्वयं रचना हो रही थी। लेकिन एम महान क्रांतिकारी के सदृश्य विवेकानंद ने श्रमिक वर्ग के प्रति अडिग आस्था प्रकट की और अपनी मातृभूमि के भविष्य के लिए न केवल स्वतंत्रता की, वरन समाजवाद की भविष्यवाणी की। वास्तव में इस अविस्मरणीय व्यक्ति ने भारत में समाजवाद का नारा रूस के समाजवादी क्रांति (1917 ई) के दो दशक पूर्व ही दे दिया था।''

दरअसल विवेकानंद ने एक भविष्यद्रष्टा की भांति यह देख चुके थे कि किसी न किसी रूप में समाजवाद निकट आ ही रहा है और वह दिन दूर नहीं जब शूद्रों के रूप में शूद्र शासन वर्ग बन जाएंगे। विवेकानंद के अनुसार, पहले तीन वर्णों का शासन हो चुका है और अब शूद्र राज्य (दलित राज्य) का युग आ गया है। वे (शूद्) अवश्य राज्य करेंगे उन्हें कोई नहीं रोक सकता है।

विवेकानंद को जनसाधारण की शक्ति में अटूट विश्वास था। वे इस बात को भांप गए थे कि सामान्य जनता में जब तक जागृति का संचार नहीं होगा तब तक समाज में घोर विषमता व्याप्त रहेगी और उच्च वर्ग निर्धनों का शोषण अविरल करते रहेंगे। निष्ठुर पूंजीपतियों और जमींदारों को उन्होंने चेतावनी देते हुए आगाह किया था, उन्होंने कहा था, ''जब जन साधारण जाग उठेगा तो वह तुम्हारे द्वारा किए गए दमन को समझ जाएगा। और उनके दारुण दुखों की एक आह तुम्हें पूर्णरूपेण नष्ट कर देगी।"

विवेकानंद समाजवाद के लिए वर्ग क्रांति नहीं, धर्म क्रांति के पक्षधर थे। विवेकानंद का विश्वास न तो कार्ल मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद में था और न ही मार्क्स के अनुयायियों की तरह वह वर्ग संघर्ष में विश्वास करते थे। वह मानते थे कि वेदांत पर आधारित सामाजिक दर्शन में वर्ग संघर्ष का कोई स्थान नहीं है। भारत के जाति व्यवस्था का विरोध करते हुए भी वे आदि काल के वर्ण व्यवस्था के पक्षधर थे। वो चाहते थे कि निम्न वर्ग को उच्च वर्ग तक उठने का अवसर मिले- यही वेदांत का मूल संदेश है।

स्वामी विवेकानंद का मानना था कि भारत में किसी भी सुधार के लिए सबसे पहले धर्म में एक क्रांति लाना आवश्यक है। उनका कहना था कि "हमें देश में समाजवादी विचारों की बाढ़ लाने से पहले यहां आध्यात्मिक विचारों की धारा प्रवाहित करनी चाहिए।"

(लेखक साहित्यकार हैं)

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

Raghvendra Prasad Mishra

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