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The Kashmir Files: आईने में उतरा एक स्याह चेहरा है 'द कश्मीर फाइल्स'
The Kashmir Files: 'द कश्मीर फाइल्स' को एक फिल्म कहना ठीक नहीं होगा, ये उन लोगों के दर्द का दस्तावेज है जिन लाखों लोगों को आधी रात को अपने घरों से बेघर कर दिया जाता है।
The Kashmir Files: कई दिनों से कई मित्र फ़िल्म देखने की सलाह (movie watching Advice) दे रहे थे। बीते काफ़ी सालों से मैंने फ़िल्में देखना बंद कर रखा था। क्योंकि फ़िल्मों में मनोरंजन भी बेहद भौंडा होता है। सच्चाई को कला के नाम पर दफ़न कर दिया जाता है। गानों में कानफोड़ू संगीत (Music in movie) होते हैं, कई बार तो संगीत की कानफोड़ू ध्वनि में गीत सुनने के लिए ठहरना पड़ता है। लंबे समय से कथा नायक, खलनायक व हिरोइन के इर्द गिर्द घूमती रहती है। खलनायक अंत में मारा जाता है।
मैं बहुत कम लोगों के जीवन के सुखद अंत लौकिक जगत में देख पाता हूँ। पर फ़िल्में सुखांत ही होती हैं, आदि इत्यादि। इन्हीं सब वजहों से मेरी रुचि फिल्मों से ज़्यादा फ़िल्मों के बनने की कहानी में होती है। मेरे मित्र संजय, घनश्याम व अनुपम ने बताया कि वे जिस फ़िल्म का टिकट ले आये हैं, उसके बनने की कहानी तभी समझी जा सकती है, जब फ़िल्म देखी जाये। नतीजतन, 'द कश्मीर फ़ाइल्स' (The Kashmir Files) देखी।
निर्देशक विवेक अग्निहोत्री की सबसे बड़ी मानव त्रासदी की एक ईमानदार पड़ताल
'द कश्मीर फाइल्स' घाटी में कश्मीर पंडितों के पलायन (exodus of kashmir pandits) और नरसंहार (Massacre) पर आधारित है। 14 अगस्त, 2019 को विवेक अग्निहोत्री ने अपने फर्स्ट लुक पोस्टर के साथ फिल्म बनाने की घोषणा की थी। विवेक ने कहा था कि उनकी "फिल्म सबसे बड़ी मानव त्रासदियों में से एक की ईमानदार पड़ताल होगी।" यह निर्देशक ताशकंद फाइल्स बनाकर भारतीय सिनेमा में एक नई शुरुआत कर चुका है।
फ़िल्म देखने के बाद इसके साथ चल रहे व चलाये जा रहे विवाद आँखों के सामने नाचने लगे। सोचने लगा कितने सहनशील थे हमारे भाई कश्मीरी पंडित। फिर ख़्याल आया भाई कैसे जब हम उनके किसी काम नहीं आ सके। ग़ुस्सा आया कि सहनशील किस बात के कायर थे। सोचने लगा उन्होंने एके -47 क्यों नहीं थाम ली। इस तरह के अनंत सवाल तैरने लगे। सोचा जिस तबाही को पर्दे पर देखकर 32 साल बाद भी लोग रो दिये, कल्पना करें उस वक्त कश्मीर में किस कदर बर्बरता मचाई गई होगी।
'द कश्मीर फाइल्स' कोई फिल्म नहीं, लोगों के दर्द का दस्तावेज
इस फिल्म को एक फिल्म कहना ठीक नहीं होगा, ये उन लोगों के दर्द का दस्तावेज है जिन लाखों लोगों को आधी रात को अपने घरों से बेघर कर दिया जाता है। जो तक़रीबन डेढ़ से दो लाख बताये जाते हैं। 2011 तक घाटी में सिर्फ तीन हजार पंडित बचे थे। जबकि अस्सी के दशक तक घाटी में पंडितों की संख्या कुल जनसंख्या की 5 फीसदी हुआ करती थी। इनकी कहानियां बहुत कम ही सामने आईं हैं। आज तो युवा जेनरेशन को उस मानव त्रासदी के बारे में पता तक नहीं है। दिल दहला देने वाली घटनाओं को ढंक कर रखा गया। दस्तावेजी वृतांत सामने नहीं लाये गए।
निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री (Director Vivek Ranjan Agnihotri) और उनकी पत्नी पल्लवी जोशी के अनुसार, उन्होंने लगभग 700 पीड़ितों के साथ बात की है। उन्होंने दो साल की अवधि में, हर कथा सुनी और दर्ज की। अग्निहोत्री ने हिमालय में किसी एक अज्ञात स्थान पर रह कर फ़िल्म की पटकथा लिखी। फ़िल्म का कथानक जेएनयू के एक छात्र दर्शन कुमार के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसे अपने बचपन के बारे में कुछ भी याद नहीं है। वह प्रो. राधिका मेनन (पल्लवी जोशी) (Pallavi Joshi) से प्रभावित होकर अपने ही लोगों के नरसंहार के बारे में जानता है।
फिल्म का भावनात्मक केंद्र पुष्कर नाथ पंडित
फिल्म का भावनात्मक केंद्र पुष्कर नाथ पंडित (अनुपम खेर) (Anupam Kher) है, जो एक शिक्षक है जिसे उसके बेटे की बेरहमी से हत्या के बाद उसके श्रीनगर घर से निकाल दिया जाता है। तीस साल बाद, उनका पोता कृष्ण (दर्शन कुमार) पुष्कर नाथ की राख को लेकर श्रीनगर वापस आता है। अपने दादा के सबसे करीबी दोस्तों -मिथुन चक्रवर्ती, पुनीत इस्सर, अतुल श्रीवास्तव की मदद से उन काले दिनों के बारे में सुनता समझता है।
ज़ी स्टूडियोज द्वारा निर्मित इस फिल्म में 14 करोड़ रुपये लगे। फ़िल्म 2 घण्टे 50 मिनट की है। फ़िल्म में अनुपम खेर की एक्टिंग की बहुत तारीफ की जा रही है। फ़िल्म में दर्शन कुमार, मिथुन चक्रवर्ती (Mithun Chakraborty) और पल्लवी जोशी ने एक्टिंग की है। फ़िल्म में पहले अभिनेता योगराज सिंह (Actor Yograj Singh) भी थे लेकिन किसान आंदोलन के दौरान भाषण देने के कारण उन्हें फ़िल्म से बाहर कर दिया और उनकी जगह पुनीत इस्सर (Puneet Issar) को लाया गया।
कश्मीर फाइल्स के निर्माण से कई दुखद घटनाएं भी जुड़ी हैं। इस फ़िल्म की लाइन प्रोड्यूसर सराहना ने बीते 30 जून को फांसी लगा कर आत्महत्या कर ली थी। सराहना अलीगढ़ की रहने वाली थी। इसके अलावा, मसूरी और देहरादून में फिल्म की शूटिंग के दौरान एक्टर मिथुन चक्रवर्ती की तबीयत खराब हो गई थी । जबकि फिल्म के डायरेक्टर विवेक रंजन अग्निहोत्री सेट पर चोटिल हो गए। उनके दाएं पैर में हेयर लाइन फ्रैक्चर हो गया।
फिल्म को कानूनी झंझटों से भी गुजरना पड़ा
सिनेमाघरों में आने से पहले फिल्म को कई कानूनी झंझटों से भी गुजरना पड़ा था। यूपी के एक बाशिंदे द्वारा एक जनहित याचिका दायर की गई। जिसमें कहा गया था कि फिल्म के ट्रेलर में यह दर्शाया गया है कि यह फिल्म मुस्लिमों द्वारा कश्मीरी पंडितों की हत्या के बारे में है, जिससे मुस्लिम समुदाय की भावनाओं को ठेस पहुंची है। हालांकि बॉम्बे हाईकोर्ट ने इसे खारिज कर दिया। इस के बाद एक और मुकदमा कश्मीर में शहीद हुए स्क्वाड्रन लीडर रवि खन्ना की पत्नी निर्मल खन्ना ने दर्ज कराया।
उन्होंने अदालत से उस दृश्य को हटाने या संशोधित करने की मांग की, जिसमें उनके पति का चित्रण किया गया था। आरोप था कि यह चित्रण तथ्यों के विपरीत है। रवि खन्ना 25 जनवरी , 1990 को श्रीनगर में कथित रूप से जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के प्रमुख यासीन मलिक के नेतृत्व वाले एक समूह द्वारा मारे गए 4 भारतीय वायुसेना कर्मियों में से एक थे।
बहरहाल, तारीफ इस फिल्म के निर्देशक विवेक रंजन अग्निहोत्री की भी जिन्होंने तमाम चुनौतियों को स्वीकारते हुए इस फिल्म को पूरा किया। फ़िल्म का फोकस चार प्रमुख पॉइंट्स पर है- पहला, जब 1989-90 में आतंकवाद ने कश्मीर को अपनी चपेट में ले लिया था तब स्थिति से निपटने में सरकार और प्रशासन की विफलता रही।दूसरा, कश्मीर में आतंकी मॉड्यूल के साथ राजनीतिक नेतृत्व का मौन सहयोग। तीसरा, कश्मीरी पंडित समुदाय का विस्थापन। चौथा, कश्मीर में उग्रवादियों के प्रति नरम शासन के साथ उदार-धर्मनिरपेक्ष मीडिया और बौद्धिक वर्ग का गहरा गठजोड़ और इसका उद्देश्य कश्मीर के बारे में सच्चाई को छुपाने के लिए एक गलत राजनीतिक नैरेटिव बनाना।
यह एक ऐसे विषय पर फ़िल्म है जिसकी कोई आईकोनिक इमेज हमारे पास कभी न रही जबकि भोपाल गैस ट्रेजेडी पर है, असम के नरसंहार पर है, आर्मीनियाई नरसंहार पर है, रवांडा के नरसंहार पर है। लेकिन यह फ़िल्म उस घटना पर है जब इंसान ही नहीं, छवियों का भी संहार हुआ था।
यह फ़िल्म विवेक है, (मनो) रंजन नहीं
कश्मीर फ़ाइल्स चीख़ती हुई कश्मीरी पंडितों के नरसंहार की लोमहर्षक कथा कहती है। कश्मीर फ़ाइल में फ्लैश बैक बहुत है। यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा का एक बड़ा प्रस्थान बिंदु है। सिल्क स्मिता के शब्दों में 'एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट, एंटरटेनमेंट' के लिए होता आया है। यह फ़िल्म विवेक है,(मनो)रंजन नहीं है। एक तरह का अग्निहोत्र भी है। कथावस्तु की प्रत्यंचा पूरी तरह से कसी हुई है। फ़िल्म में कश्यप ऋषि, भरत मुनि, विष्णु शर्मा, अभिनव गुप्त आदि के नाम हैं। हमारी फ़िल्में न जेनोसाइड की बात करतीं हैं न exodus की। पहली बार कोई फ़िल्म ब्रेन-वाशिंग की मैकेनिक्स को इतने डिटेल्स में पकड़ती है।
विवेक अग्निहोत्री (Vivek Agnihotri) ने ऐसे विषय को ट्रीट करते हुए इसकी अनुतान शोक की रखी है, आतंक की नहीं।'सारांश' से शुरूआत करने वाले अनुपम खेर फिर उन्हीं ऊंचाइयों पर पहुँचे हैं। फ़िल्म को सांस रोके , निस्तब्ध हो कर देखना पड़ता है। यह एक भावनात्मक और क़ामयाब आख्यान बन गई है। फ़िल्म में कश्मीरी में कुछ गानों का इस्तेमाल अंग्रेजी कैप्शन के साथ किया गया है। सारे गीत दुख को द्विगुणित करते हैं। यातना और बेवतनी की विभीषिका को बांचते मिलते हैं।
गीतों की तासीर और मद्धम सुर अभी भी मन में मंदिर की घंटियों की तरह बज रहे हैं। जेहादियों का एक नारा , कश्मीरी पंडितों को संबोधित था और बार-बार कहा जाता रहा , 'रलिव गलिव चलिव !' यानी अपने को कनवर्ट करो , मर जाओ या भाग जाओ ! एक और नारा है , "असि गछि पाकिस्तान, बटव रोअस त बटनेव सान" यानी "हमें पाकिस्तान चाहिए और हिंदू औरतें भी । लेकिन अपने मर्दों के बग़ैर।" जेहादियों की यह धमकी आरे पर हमें लाकर लिटा देती है।
अनुपम खेर खुद कश्मीर की इस घटना के भुक्तभोगी रह चुके हैं
अनुपम खेर को देख कर कहीं ऐसा नहीं लग रहा कि वह अभिनय कर रहे हैं। लगता है मानो अपनी जिंदगी का एक हिस्सा इस फिल्म के जरिए दर्शकों से साझा कर रहे हैं। अनुपम खेर 1990 की कश्मीर की इस घटना के भुक्तभोगी रह चुके हैं। यह कह पाना मुश्किल है किसका अभिनय बेमिसाल है। जब इसके विरोध में उठे हाथ दिखते हैं, स्वर सुनायी पड़ते हैं। तब लगता है हमें शर्मिंदा होना चाहिए । माफ़ी माँगना चाहिये। काठ मार जाना चाहिए। पत्थर हो जाना चाहिए । पर हम हो क्या रहे हैं, हो क्या गये हैं?
हम फ़िल्म बनाने वाले के खिलाफ हैं, जबकि हमें घटना करने वाले जात व जमात के खिलाफ होना चाहिए । आतंक की कोई जात नहीं होती । फिर भी यदि इस फ़िल्म के खिलाफ जो खड़े हो रहे हैं, उन्हें आतंकी जाति का मान लेने में किसी को कोई एतराज़ नहीं होना चाहिए । हमें लगता है कि फ़िल्म दर्शन कुमार के भाषण पर ख़त्म होनी चाहिए और उसके बाद के दृश्य कथा में कहीं पिरो दिये जाते तो बेहतर होता। ताकि दर्शन कुमार की अंतिम लाइनें सबके नश्तर सी चुभती रहतीं।