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ये भारतीय चीन के साथ, देश के अंदर बैठे ऐसे शत्रुओं की पहचान जरूरी

वैसे अब कम्युनिस्ट पार्टियां देश में हाशिये पर हैं। अब चीन समर्थक भिन्न भिन्न भूमिकाओं में नजर आयेंगे। कहीं कोई पत्रकार, ऐंकर तो कहीं कही बुद्धिजीवी व किसी विश्वविद्यालय का प्रोफेसर, कहीं कोई एनजीओ कर्मी। भारत के समोबल को तोडने के साथ साथ चीन के महिमागान करने वाले यहीं लोग देश के अंदरुनी दुश्मन हैं।

राम केवी
Published on: 18 Jun 2020 7:08 PM IST
ये भारतीय चीन के साथ, देश के अंदर बैठे ऐसे शत्रुओं की पहचान जरूरी
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डा. समन्वय नंद

वर्तमान में देश एक अभूतपूर्व समय के बीच गति कर रहा है। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारतीय सेना जवाबी कार्रवाई में चीनी सेना के साथ लोहा ले रही है। अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के लिए लड़ाई लड़ते हुए 20 भारतीय जवानों ने सर्वोच्च बलिदान दे दिया है। इसलिए स्वाभाविक रूप से युद्ध काल के इस वक्त में नागरिकों को अधिक सचेत रहने की आवश्यकता है।

इस युद्ध काल में विदेशी शत्रु सीमा पर बैठा ही है। साथ ही देश के अंदर भी शत्रु के एजेंट बैठे हैं। इस युद्ध काल में भारत में चीन समर्थक लाबी भी सक्रिय हो चुकी है। वह भारतीय सेना व भारत सरकार के मनोबल को गिराने का प्रयास प्रारंभ कर चुकी है। इसके लिए ‘फेक नैरेटिव’ तैयार किया जा रहा है। इसलिए देश के भीतर बैठे इन शत्रुओं की पहचान करना अत्यंत जरूरी है।

लंबा इतिहास है इन शत्रुओं का

चीन समर्थक व देश के अंदर बैठे इन शत्रुओं का भारत के खिलाफ कार्य करने का एक लंबा इतिहास रहा है। आज के परिप्रेक्ष्य में उनके इस भारत विरोधी कार्यों की चर्चा करना समीचिन होगा।

चीन ने भारत पर हमला तो 1962 में किया था लेकिन 1950 के बाद से ही चीन ने भारत की भूमि पर कब्जा करना शुरू कर दिया था। स्वाभाविक है भारत के नेता चीन के इस कृत्य के खिलाफ मुखर हो कर बोल रहे थे तथा तत्कालीन भारत सरकार के नेतृत्व को कठघरे में खड़ा करते थे। लेकिन सीपीआई उन दिनों भारत के साथ नहीं बल्कि चीन के साथ थी।

सीपीआई कैसे चीन के साथ खड़ी थी इस संबंध में पार्टी एक नेता रमेश सिन्हा ने अपनी पुस्तक ‘जीवन संघर्ष’ इस बात का उल्लेख किया है। उन्होंने लिखा “मेरठ में सीपीआई की राष्ट्रीय परिषद की बैठक हुई। तमाम भाषण हुए।

साबित कर रहे थे हमला भारतीयों ने किया

कामरेड पी. सुंदरैया जैसे बड़े नेता ने सामने दीवार पर एक बड़ा नक्शा लगा कर एक लंबी स्केल की सहायता से यह बताने की चेष्टा की थी कि हमला चीनियों ने नहीं बल्कि भारतीय सैनिकों ने किया है।”

एक और विशिष्ट कम्युनिस्ट नेता मोहित सेन उनकी पुस्तक ‘ए ट्रावेलर एंड दी रोड, द जर्नी आफ एन इंडियन कम्युनिस्ट’ में भी इस समान बात का उल्लेख किया है।

उन्होंने इस पुस्तक में लिखा – “भारत भूमि पर चीनी दावे की वैधता को उचित ठहराने के लिए सुंदरैया काफी संख्या में मानचित्र व अभिलेखागारीय सामग्री एकत्रित की थी और इस बात पर जोर दे रहे थे कम्युनिस्ट चीन कभी हमला कर ही नहीं सकता।

बुर्जुआवादी भारत सरकार ही यह कर सकती है ताकि वह अपने साम्राज्यवादी आकाओं से लाभ ले सके।”

लांगजु घटना

25 अगस्त,1959 को लांगजु की घटना हुई। अरुणाचल प्रदेश के लांगजु में चीनी सेना घुस आई व वहां उसन असम राइफल्स के तीन जवानों को मार दिया। इसके कारण देश में असंतोष दिखा व भारत के नेताओं ने चीन को कठघरे में खडा किया। लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी भारत के साथ नहीं बल्कि चीन के साथ खडी थी।

इस घटना की सीपीआई के पोलित ब्यूरो सदस्य मोहित सेन ने निम्न प्रकार से व्याख्या की। ”भारत जिस मैकमोहन रेखा को (भारत - तिब्बत के बीच) वैधानिक सीमा बता रही है उसकी कभी भी निशान देही नहीं हुई। वैसे भी उसकी रचना मनमाने तरीके से हुई है। इसलिए लांगजु की घटना के लिए चीन सरकार उत्तरदायी नहीं है।”

कम्युनिस्ट पार्टी के अन्य नेता ए.के गोपालन व पी. राममूर्ति यहीं तक नहीं रुके। इन दो नेताओं ने सारी सीमाएं लांघ दी। उन्होंने कहा कि ‘हमें इस लांगजु की घटना पर विश्वास नहीं है। यह भारत सरकार ने गढी है।‘

10 दिसंबर को किया था खुला समर्थन

10 दिसंबर 1959 को सीपीआई ने कोलकाता में एक जनसभा की जिसमें खुलमखुल्ला चीन का समर्थन किया गया। ज्योति बसु ने इस सभा में अध्यक्षता की। ज्योति बसु ने इस अवसर पर कहा कि चीन को आक्रमणकारी नहीं कहा जा सकता। कम्युनिस्ट कार्यकर्ता नारे लगा रहे थे कि चीन आक्रमणकारी नहीं थे। इसे उस समय के समाचार पत्रों में पढ़ा जा सकता है।

इसके बाद 1962 में चीन ने भारत पर हमला कर दिया। उस युद्धकाल में देश व सेना लड़ रही थी लेकिन कम्युनिस्टों की लाबी सारा दोष भारत पर डाल कर चीन के निर्दोष होने का प्रमाण पत्र जारी करने में व्यस्त थी। भारत के जिन इलाकों को चीन ने जीते थे उसका वर्णन कम्युनिस्ट इस प्रकार करते थे मानो वे चीनी क्षेत्र हों, जिन्हें चीनी सेना ने भारतीय कब्जे से खाली कराया हो।

इन्हें है चीन के लाभ की चिंता

कम्युनिस्ट केवल तर्कों से ही चीन का साथ नहीं दे रहे थे बल्कि युद्ध में चीन को कैसे लाभ मिले इस बात का भी पूरा ध्यान रखते थे।

इस युद्ध के दौरान बांग्लादेश (उस समय के पूर्वी पाकिस्तान) और नेपाल के बीच दस मील का एक तंग गलियारा ऐसा स्थान था, जिसके एक मात्र रेलवे मार्ग से भारतीय सेना को आवश्यक सामग्री आपूर्ति हो सकती थी।

चीन के दलालों ने उसी रेलवे मार्ग को उडाने का प्रयास किया। सत्य नारायण सिन्हा ने अपनी पुस्तक ‘एड्रिफ्ट आन द गंगा’ में इस बात का उल्लेख किया है।

ये आज भी है चीन के साथ

ऐसे अनेक उदाहरण हैं जिन्हें यहां दिया जा सकता है। अभी गलवान घाटी की घटना के बाद से माकपा, भाकपा, भाकपा (माले) जैसी पार्टियों को जो बयान आया है वह भी उसी तरह की जैसे भारत को शांति से काम लेना होगा, आदि आदि । माकपा के लंबे चौड़े बयान में तो भारत सरकार को नसीहत दी गई है लेकिन एक बार चीन का नाम तक नहीं लिया गया है।

वैसे अब कम्युनिस्ट पार्टियां देश में हाशिये पर हैं। अब चीन समर्थक भिन्न भिन्न भूमिकाओं में नजर आयेंगे। कहीं कोई पत्रकार, ऐंकर तो कहीं कही बुद्धिजीवी व किसी विश्वविद्यालय का प्रोफेसर, कहीं कोई एनजीओ कर्मी। भारत के समोबल को तोडने के साथ साथ चीन के महिमागान करने वाले यहीं लोग देश के अंदरुनी दुश्मन हैं।

इस दौरान देश में एक टुकडे टुकडे गैंग भी उभरा है जो चीन की हितों की पूर्ति में लगा है। इसमें किसी को संदेह होना नहीं चाहिए कि भारत की सेना चीनी सेना को निपट लेगी। लेकिन देश के अंदर बैठे इन दुश्मनों की पहचान व उन पर नजर रखने का कार्य भारत के लोगों को करना होगा।



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राम केवी

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