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तीन तलाक पर कानूनी रोक के मायने, राज्यसभा में सरकार की असली परीक्षा

raghvendra
Published on: 5 Jan 2018 1:46 PM IST
तीन तलाक पर कानूनी रोक के मायने, राज्यसभा में सरकार की असली परीक्षा
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तीन तलाक: सुप्रीम कोर्ट ने कहा- बहुविवाह और निकाह हलाला की भी होगी समीक्षा

राहुल लाल राहुल लाल

मुस्लिम महिलाओं के अधिकार की जंग सुप्रीम कोर्ट के बाद अब लोकसभा में भी जीत ली गई है। एक साथ तीन तलाक को गैरकानूनी ठहराने वाला विधेयक लोकसभा से ध्वनिमत से पारित हो गया। 1400 साल पुरानी प्रथा को खत्म करने के लिए बिल पारित करने में केवल 7 घंटे लगे। अब राज्यसभा में सरकार की असली परीक्षा होगी। दरअसल लोकसभा में सरकार के पास संख्या बल है, परंतु राज्यसभा में संख्याबल के मामले में सरकार की स्थिति थोड़ी सी कमजोर है। कांग्रेस ने राज्यसभा पलटी खाई और कहा कि हम इस बिल को पास कराना चाहते है मगर इस बिल के कुछ प्रावधान मुस्लिम महिलाओं के खिलाफ हैं। सुप्रीम कोर्ट की ओर से एक झटके में दिए जाने वाले तीन तलाक को अमान्य-असंवैधानिक करार दिए जाने के बाद भी इस तरह के मनमाने तलाक के मामले सामने आने पर इस संबंध में कानून बनाना जरूरी हो गया था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी तीन तलाक के मामले सामने आने से यही प्रकट हो रहा है कि तलाक की इस मनमानी प्रथा ने बहुत गहरी जड़े जमा ली हैं। ऐसे में इस नए विधेयक के महत्व को समझा जा सकता है। सरकार की ओर से पेश बिल पर एमआईएमआई अध्यक्ष असुदुद्दीन ओवैसी ने तीन संशोधन पेश किए।

ओवैसी का संशोधन जब ध्वनिमत से खारिज हो गया तब उन्होंने वोटिंग की मांग की। वोटिंग में ओवैसी के तीनों संशोधन लोकसभा में बुरी तरह खारिज हुए। ओवैसी के दोनों संशोधन के समर्थन में सिर्फ 2-2 वोट पड़े। ओवैसी के पहले एवं दूसरे संशोधन के खिलाफ 241 वोट पड़े जबकि तीसरे संशोधन के खिलाफ भी 248 वोट पड़े। ओवैसी के तीसरे संशोधन के समर्थन में केवल एकमात्र वोट पड़ा,वह भी स्वयं ओवैसी का ही। कांग्रेस ने बिल का विरोध नहीं किया,लेकिन इसमें सुधार के लिए इसे स्टैंडिंग कमेटी के पास भेजने की मांग की। लेकिन सरकार ने साफ कहा कि कांग्रेस को जो भी एतराज है,वो बहस में बताए। जो सुझाव सही होंगे, उन्हें स्वीकार कर लिया जाएगा।

मुस्लिम वुमेन प्रोटेक्शन ऑफ राइटस ऑन मैरेज जम्मू कश्मीर को छोडक़र पूरे देश में लागू होगा। यह एक महत्वपूर्ण बिल है जिससे एक साथ तीन तलाक देने के खिलाफ सजा का प्रावधान होगा,जो मुस्लिम पुरुषों को एक साथ तीन तलाक कहने से रोकता है। ऐसे बहुत से मामले हैं, जिनमें मुस्लिम महिलाओं को फोन या सिर्फ एसएमएस के जरिए तीन तलाक दे दिया गया है। इस बिल में तीन तलाक को दंडनीय अपराध का प्रस्ताव है। यह बिल तीन तलाक को संवैधानिक नैतिकता और लैंगिक समानता के खिलाफ मानता है। इस बिल के अनुसार दोषी पति को तीन वर्ष तक की कैद और जुर्माने की सजा का प्रावधान किया गया है, लेकिन जुर्माना कितना हो,यह फैसला केस की सुनवाई कर रहे न्यायाधीश तय करेंगे।

विधेयक सिर्फ एक साथ तीन तलाक पर ही लागू होगा और इसमें पीडि़त को यह अधिकार होगा कि वह मजिस्ट्रेट से गुजारिश कर अपने और अपने नाबालिग बच्चे के लिए गुजारा भत्ते की मांग करे। इसके अलावा महिला मजिस्ट्रेट से अपने नाबालिग बच्चे को अपने पास रखने की भी मांग कर सकती हैं। अंतिम फैसला मजिस्ट्रेट का ही होगा। तीन तलाक का हर रूप चाहे वह लिखित हो या बोला गया हो या इलेक्ट्रोनिक रूप में हो, गैरकानूनी होगा। सुप्रीम कोर्ट ने 22 अगस्त 2017 को तीन तलाक को अवैध घोषित किया था। इसके बाद माना जा रहा था कि तीन तलाक पर रोक लगेगी,लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कोर्ट के फैसले के बाद करीब 100 मामले सामने आए हैं। उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा मामले आए हैं। 2001 से 2011 के बीच मुस्लिम महिलाओं को तलाक देने में 40' की वृद्धि हुई थी।

निस्संदेह मनमाने तीन तलाक के खिलाफ कानून बन जाने मात्र से यह कुरीति समाप्त नहीं होगी, लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि महिलाओं को असहाय बनाने वाले कुरीतियों को खत्म करने के लिए कानून का सहारा नहीं लिया जाना चाहिए। अतीत में भी सती प्रथा, दहेज कुरीति और बाल विवाह के विरूद्ध कानून बनाए गए। इन कानूनों ने इन प्रथाओं पर रोक लगाने का काम किया तो इसमें भी महत्वपूर्ण कारण समाज की जागरूकता थी। इसलिए तीन तलाक वाले कानून के क्रियान्वयन के लिए मुस्लिम समाज में जागरूकता आवश्यक है। बेहतर हो कि इस मामले में राजनीतिक और धार्मिक नेता सकारात्मक भूमिका निभाएं। उन्हें मुस्लिम समाज की उन महिलाओं से सीख लेनी चाहिए जिन्होंने तमाम मुसीबतों के बावजूद अपने हक की आवाज बुलंद की। यही कारण है कि ये महिलाएं अब आगे बहुविवाह और हलाला के खिलाफ अभियान चलाने के मूड में हैं।

इसी के साथ इस पर भी विचार होना चाहिए कि तीन तलाक के खिलाफ बनने जा रहा कानून कहीं आवश्यकता से अधिक कठोर तो नहीं और इसके वांछित नतीजे मिलेंगे या नहीं? कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि पति के जेल चले जाने के बाद पत्नी और बच्चों के भरण-पोषण की समस्या पैदा हो जाएगी। पति अगर नौकरी में हुआ तो जेल जाते ही वह बर्खास्त हो जाएगा और उसका वेतन रुक जाएगा। अगर वह कारोबारी हुआ तो भी उसकी आमदनी पर असर पड़ेगा। ऐसे में पीडि़ता और उसके बच्चे का जीवन कैसे चलेगा?

महिला पति की संपत्ति से गुजारा भत्ता ले सकती है या नहीं, इस बारे में प्रस्तावित कानून में कोई प्रावधान नहीं है। इस मामले में तलाक अधिकार संरक्षण कानून,1986 भी लागू नहीं होगा क्योंकि वह तलाक के बाद की स्थिति में गुजारा भत्ते के लिए बनाया गया था। हां, महिला सीआरपीसी की धारा-125 के तहत भरण-पोषण के लिए अदालत का दरवाजा खटखटा सकती है,लेकिन पति अगर जेल में होगा और उसकी आमदनी ही रुकी होगी तो वह गुजारा भत्ता कैसे देगा? दूसरी तरफ बुनियादी सवाल है कि सजा के खौफ के बिना फौरन तीन तलाक का सिलसिला रुकेगा कैसे? मामले की गंभीरता को देखते हुए सभी पक्षों पर विचार होना चाहिए। बेहतर हो कि संसद की अंतिम मुहर लगने तक यह प्रस्तावित कानून ऐसे सवालों का समुचित जवाब देने में सक्षम हो जाए।

वास्तव में इस समस्या के समाधान के लिए मुस्लिम महिलाओं को कानूनी संबल के अतिरिक्त उनको आत्मनिर्भर बनाने के लिए विशिष्ट कदम उठाने की आवश्यकता है। इसके लिए सरकार को उनकी उत्कृष्ट तालीम के साथ ही उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए कुछ विशेष योजनाओं को लागू करना चाहिए।

(लेखक कूटनीतिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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