×

बाघों की गणना पर उठ रहे सवाल

raghvendra
Published on: 10 Aug 2018 3:40 PM IST
बाघों की गणना पर उठ रहे सवाल
X

प्रमोद भार्गव

भारत में इस समय 21 राज्यों में बाघों की गिनती का काम चल रहा है। 2018 में प्रथम चरण की हुई इस गिनती के आंकड़े बढ़ते क्रम में आ रहे है। यह गिनती चार चरणों में पूरी होगी। बाघ गणना बाघ की जंगल में प्रत्यक्ष उपस्थिति की बजाय उसकी कथित मौजूदगी के प्रमाणों के आधार पर की जा रही है। इसलिए इनकी गिनती की विश्वसनीयता पर सवाल उठने लगे हैं। वनाधिकारी बाघों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर बताकर एक तो अपनी पीठ थपथपाना चाहते हैं, दूसरे बाघों के सरंक्षण के लिए धनराशि बढ़ाने की मांग भी करने लगते हैं।

केंद्र सरकार के 2010 के आकलन के अनुसार यह संख्या 2226 हैं। जबकि 2006 की गणना में 1411 बाघ थे। इस गिनती में सुंदर वन के वे 70 बाघ शामिल नहीं थे, जो 2010 की गणना में शामिल कर लिए गए हैं। महाराष्ट्र, कर्नाटक, उत्तराखंड और असम में सबसे ज्यादा बाघ हैं। कर्नाटक में 400, उत्तराखंड में 340 और मध्यप्रदेश में 308 बाघ हैं। एक समय टाइगर स्टेट का दर्जा पाने वाले मध्यप्रदेश में बाघों की संख्या निरंतर घट रही है। मध्यप्रदेश में 2017 में 11 महीने के भीतर 23 बाघ विभिन्न कारणों से मारे भी गए हैं, इनमें 11 शावक थे। दुनियाभर में इस समय 3890 बाघ हैं, इनमें से 2226 भारत में बताए जाते हैं। जबकि विज्ञानसम्मत गणनाओं का अंदाजा है कि यह संख्या 1500 से 3000 के बीच हो सकती है। इतने अधिक अंतर ने प्रोजेक्ट टाइगर जैसी विश्वविख्यात परियोजना पर संदेह के सवाल खड़े कर दिए हैं। इससे यह भी आशंका उत्पन्न हुई है कि क्या वाकई यह परियोजना सफल है अथवा नहीं?

फिलहाल वन्य जीव विशेषज्ञ 2226 के आंकड़े पर सहमत नहीं है। दरअसल बाघों की संख्या की गणना के लिए अलग-अलग तकनीकों का इस्तेमाल होता है। भारतीय वन्य जीव संस्थान देहरादून के विशेषज्ञों का कहना है कि मध्य भारत में बाघों के आवास के लिहाज से सबसे उचित स्थान कान्हा राट्रीय उद्यान है। यहां नई तकनीक से गणना की जाए तो मौजूदा संख्या में 30 प्रतिशत तक की वृद्घि हो सकती है। डब्ल्यूआईआई के जाने-माने बाघ शोधकर्ता यादवेंद्र देवझाला ने एक शोध पत्र में लिखा है कि डीएनए फिंगर प्रिंट की तकनीक का इस्तेमाल करने वाले विशेषज्ञों ने आकलन किया है कि कान्हा में बाघों की संख्या 89 है। वहीं कैमरा ट्रेप पर आधारित एक अन्य वैज्ञानिक तकनीक यह संख्या 60 के करीब बताती है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि बाघों की गणना करना आसान नहीं है, लेकिन गणना में इतना अधिक अंतर दोनों ही तकनीकों के प्रति संदेह पैदा करता है।

भारत में 1973 में टाइगर प्रोजेक्ट परियोजना की शुरुआत तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने की थी। नौ बाघ संरक्षण वनों से शुरू हुए इस प्रोजेक्ट का विस्तार बाद में 49 उद्यानों में कर दिया गया। साझा प्रयासों का ही परिणाम है कि बाघों की संख्या 30 प्रतिशत तक ही बढ़ी हैं। 2010 में यह संख्या 1706 थी, जो 2014 में बढक़र 2226 हो गई हैं। लेकिन 2011 में जारी हुई इस बाघ गणना का तत्कालीन केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश ने जो प्रतिवेदन जारी किया था, उसमें भ्रामक तथ्य थे। इस गणना के अनुसार 2006 में बाघों की जो संख्या 1411 थी, वह 2010 में 1706 हो गई। जबकि 2006 की गणना में सुंदरवन के बाघ शामिल नहीं थे, वहीं 2010 की गणना में इनकी संख्या 70 बताई गई। दूसरे, बाघों की बढ़ी संख्या नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से आई थी। इसमें नक्सली भय से वन अमले का प्रवेश वर्जित हैं। जब वन अमला दूरांचल और बियावान जंगलों में पहुंचा ही नहीं तो गणना कैसे संभव हुई? जाहिर है यह गिनती अनुमान आधारित थी।

बीती सदी में जब बाघों की संख्या कम हो गई तब मध्य प्रदेश के कान्हा राष्ट्रीय उद्यान में पैरों के निशान के आधार पर बाघ गणना प्रणाली को शुरुआती मान्यता दी गई थी। ऐसा माना जाता है कि हर बाघ के पंजे का निशान अलग होता है। कान्हा के निदेशक एचएस पवार ने इसे एक वैज्ञानिक तकनीक माना था, लेकिन यह तकनीक उस समय मुश्किल में आ गई जब साइंस इन एशिया के मौजूदा निदेशक के उल्लास कारंत ने बंगलुरु की वन्य जीव सरंक्षण संस्था के लिए विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों में बंधक बनाए गए बाघों के पंजों के निशान लिए और विशेषज्ञों से इनमें अंतर करने के लिए कहा। इसके बाद पंजों के निशान की तकनीक की कमजोरी उजागार हो गई और इसे नकार दिया गया।

इसके बाद कैमरा ट्रैपिंग का एक नया तरीका सामने आया जिसेे कारंत की टीम ने शुरुआत में दक्षिण भारत में लागू किया। इसमें जंगली बाघों की तस्वीरें लेकर उनकी गणना की जाती थी। यह बाघों के पैरों के निशान लेने की तकनीक से कहीं ज्यादा सटीक थी। इस तकनीक द्वारा गिनती सामने आने पर बाघों की संख्या नाटकीय ढंग से घट गई। इसी गणना से यह आशंका सामने आई कि इस सदी के अंत तक बाघ लुप्त हो जाएंगे।

2008 में वन विभाग ने बताया था कि पन्ना में 16 से लेकर 32 बाघ हैं। इस गणना में 50 प्रतिशत का लोच है जबकि यह गणना आधुनिकतम तकनीकी तरकीब से की गई थी। मसलन जब हम एक उद्यान की गिनती नहीं कर सकते तो देश के जंगलों में रह रहे बाघों की सटीक गिनती कैसे कर पांएगे? बाघों की मौजूदा गिनती को यदि पन्ना की बाघ गणना से तुलना करें तो देश में बाघों की अनुमानित संख्या 853 से लेकर 1706 तक भी हो सकती है। बाघों की हाल में हुई गिनती में तकनीक भले ही नई रही है, लेकिन गिनती करने वाला अमला वही था जिसने 2008 में पन्ना क्षेत्र में बाघों की गिनती की थी।

बढ़ते क्रम में बाघों की गणना इसलिए भी नामुमकिन व अविश्वसनीय है क्योंकि बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्राकृतिक संपदा के दोहन की छूट जिस तरह से दी जा रही है, उसी अनुपात में बाघ के प्राकृतिक आवास भी प्रभावित हो रहे हैं। विकास परियोजनाओं ने भी बाघों की वंश वृद्घि पर अंकुश लगाया है। इन परियोजनाओं से चार गुना मानव बसाहटें बाघ आरक्षित क्षेत्रों में बढ़ी हैं। यही कारण है कि बाघों की संख्या में लगातार कमी आ रही है जबकि राष्ट्रीय उद्यानों, वनकर्मियों और वन आंवटन में निरंतर वृद्घि हो रही है। प्रत्येक आरक्षित उद्यान को 20 से 26 करोड़ रुपए दिए जाते हैं। आशंकाएं तो यहां तक हैं कि बाघों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर इसलिए बताई जाती है ताकि इनके संरक्षण के बहाने बरस रही देशी-विदेशी धनराशि नौकरशाही का हिस्सा बनती रहे। बीते चार सालों में एक अरब 96 करोड़ का पैकेज बाघों के संरक्षण के लिए जारी किया जा चुका है।

अप्रत्यक्ष तौर से यह सत्य सामने आ चुका है कि बाघों के शिकार में कई वनाधिकारी शामिल हैं। इसके बावजूद जंगल महकमा और कुलीन वन्य जीव प्रेमी भोले-भाले आदिवासियों पर झूठे मुकदमे लादने और उन्हें वनों से बेदखल करने में लगे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि सदियों से वनों में आदिवासियों का बाहुल्य, उनकी प्रकृति और प्राणी से सह-अस्तित्व की जीवन शैली ही ईमानदारी से वन और वन्य जीवों का सुरक्षा व संरक्षण का मजबूत तंत्र साबित हो सकती है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

raghvendra

raghvendra

राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

Next Story