मुसीबत बने बांग्लादेशी, ‘वास्तविक’ नागरिकों की सूची और हकीकत

raghvendra
Published on: 5 Jan 2018 7:34 AM GMT
मुसीबत बने बांग्लादेशी, ‘वास्तविक’ नागरिकों की सूची और हकीकत
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नीलमणि लाल

पाकिस्तान के दो टुकड़े होने के बाद 25 मार्च 1971 को बांग्लादेश बना था। बांग्लादेश बनने के पहले युद्ध हुआ, बांग्लादेशियों पर अत्याचार हुए और इस उथल-पुथल में अनगिनत बांग्लादेशी नागरिक सीमा पार करके भारत में आ गए। खास तौर पर असम में इनकी तादाद इतनी ज्यादा थी कि असम के बहुत से इलाकों की जनसांख्यिकीय यानी डेमोग्राफी ही बदल गयी। जहां खुले मैदान और हरे भरे जंगल हुआ करते थे वहां हजारों की बस्तियां और गांव के गांव बस गए।

राज्य में बांग्लादेशियों की घुसपैठ के खिलाफ 1979 से तकरीबन छह साल छात्र आन्दोलन चला जिसके बाद 1985 में भारत सरकार ने ऑल असम स्टूडेंट यूनियन (आसू) के साथ एक समझौता किया था। इसी समझौते की शर्त के अनुसार ‘वास्तविक’ नागरिकों की सूची को अपडेट होना था ताकि घुसपैठियों की पहचान करके उन्हें वापस भेजा जा सके। सूची को अपडेट करने के लिए सरकारों ने राजनीतिक कारणों से ढिलाई बरती और अंतत: यह काम भी अदालत के आदेश के बाद ही शुरू हो पाया है। 2005 तक इस मामले में कोई कारवाई नहीं हुई। सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू होने के बाद यह प्रक्रिया कुछ आगे बढ़ी। प्रदेश में भाजपा की सरकार बनने के बाद नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स के काम में काफी तेजी आई थी और 2015 से लोगों के नाम पंजीकृत करने का सिलसिला तेज हुआ था।

बहरहाल, नागरिकों की सूची यानी नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन्स (एनआरसी) को अपडेट करने के लिए 24 मार्च 1971 को आधार वर्ष बनाया गया है, यानी वह दिन जब बांग्लादेश बना था। घुसपैठियों के मामले पर लंबा संघर्ष करने वाले आसू का कहना है कि 1971 के बाद असम में आने वाले किसी भी बांग्लादेशी नागरिक को राज्य में रहने की इजा$जत नहीं दी जाएगी, चाहे वह हिन्दू हो या मुसलमान। पिछले लंबे समय से आसू एक त्रुटिमुक्त एनआरसी की मांग करता आ रहा है जिसमें केवल भारतीय नागरिकों के नाम ही दर्ज किए जाएंगे।

अब स्थिति यह है कि असम सरकार ने 31 दिसंबर की रात राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण (एनआरसी) का पहला ड्राफ्ट जारी कर दिया है। सूची में नाम जुड़वाने के लिए 3.29 करोड़ लोगों ने आवेदन किया था और दस्तावेज जमा किये थे और इन लोगों में से 1.29 करोड़ लोगों के नाम पहली ड्राफ्ट सूची से नदारद हैं। नागरिकों की इस नई सूची में उन्हीं लोगों के नाम शामिल हैं जिन्होंने 25 मार्च 1971 के पहले की भारतीय नागरिकता से जुड़े सरकारी दस्तावेज जमा करवाए हैं। हालांकि यह एक संपूर्ण अपडेट एनआरसी नहीं होगी, क्योंकि अभी दस्तावेजों के सत्यापन का काम खत्म नहीं हुआ है।

वर्तमान में असम की कुल आबादी का एक तिहाई हिस्सा मुसलमानों का है और इसमें भी 90 प्रतिशत मुसलमान प्रवासी हैं और बांग्लाभाषी हैं। स्थानीय निवासी उन्हें बांग्लादेशी मानते हैं। असम में ऐसे लाखों लोग हैं जो बांग्लादेश से यहंा आए थे। उनकी नागरिकता को लेकर दावा किया जाता है कि उनके पूर्वज यहीं के थे। इस प्रक्रिया से प्रदेश में इस दशकों पुराने मुद्दे को हल करने में मदद मिलने की उम्मीद है, लेकिन सवाल ये है कि क्या यह मसला इतना आसान है जितना दिख रहा है?

बांग्लादेशी घुसपैठियों का मसला सिर्फ असम तक सीमित नहीं है बल्कि पूरे देश से जुड़ा हुआ है। आज पूरे भारत में दो करोड़ से ज्यादा बांग्लादेशी अवैध रूप से रह रहे हैं। यह आंकड़ा खुद सरकार द्वारा 2016 में संसद में दिया गया था। इसके पहले 2004 में सरकार ने संसद को सूचित किया था कि 1 करोड़ 20 लाख अवैध बांग्लादेशी भारत में हैं यानी 13 साल में इनकी तादाद 67 फीसदी बढ़ चुकी है। दो करोड़ का आंकड़ा भी एक अनुमान ही कहा जाना चाहिए क्योंकि फर्जी दस्तावेज बनाकर कितने घुसपैठिये रह रहे हैं इसकी गिनती हो भी तो कैसे? जानकारों का तो कहना है कि इनकी संख्या निश्चित रूप से इससे ज्यादा ही होगी। दिल्ली हो या लखनऊ, सब जगह कबाड़ और कूड़े के काम में बांग्लादेशियों की बड़ी संख्या लगी हुई है। कहा तो यहां तक जाता है कि इनमें से काफी लोगों ने आधार कार्ड व मतदाता पहचान पत्र तक बनवा लिए हैं। इस कारण भी इन्हें लेकर खूब राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। कहने को ये सब अपने को असम में बारपेटा से आया हुआ बताते हैं, लेकिन भाषाई समझ रखने वाले इनको झट पहचान लेते हैं।

असल में अवैध बांग्लादेशियों में हिन्दू-मुस्लिम का भी मसला है। भाजपा ने असम चुनाव के पहले वादा किया था कि बांग्लादेश से आए हिन्दुओं को भारत की नागरिकता दी जाएगी। इसके पीछे तर्क यह दिया गया कि हिन्दुओं पर बांग्लादेश में अत्याचार होते हैं। वैसे, स्थानीय निवासियों में बांग्ला बोलने वाले हिन्दुओं के असम में आने को लेकर कोई विवाद नहीं है। लेकिन इस मसले पर अलग ही राजनीति चल रही है जो असामान्य नहीं है। असम में अल्पसंख्यकों का ‘प्रतिनिधित्व’ करने का दावा करने वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) के अध्यक्ष मौलाना बदरूद्दीन नागरिकता संशोधन बिल के कट्टर विरोधी हैं। उनकी धमकी है कि इस बिल के पास होने से असम बांग्लादेश में बदल जायेगा।

खैर, असम में अब एनआरसी के पहले ड्राफ्ट में 1.29 करोड़ लोगों के नाम नहीं हैं। फाइनल सूची में जिनके नाम नहीं होंगे उनका क्या किया जाना चाहिए यह बड़ा सवाल है। लेकिन इसका जवाब सिर्फ एक ही है-अवैध रूप से भारत में घुसे लोगों को वापस उनके देश भेज दिया जाना चाहिए। वजह सा$फ है, भारत स्वयं जनसंख्या के बोझ तले दबा जा रहा है, संसाधनों पर जबरदस्त दबाव है, शहर चरमरा रहे हैं। इसके अलावा सुरक्षा और सामाजिक सद्भाव का सवाल भी है। कितने ही बंगलादेशी नागरिक आतंकी गतिविधियों में पकड़े जा चुके हैं। यह भी सही है कि आतंकी और सामाजिक तानेबाने को तोडऩे वाले तत्व धाॢमक आधार पर इन घुसपैठयों का इस्तेमाल करते आए हैं और आगे भी करते रहेंगे। इसलिए बात चाहे असम की हो या पूरे हिन्दुस्तान की, अवैध निवासियों की समस्या को जल्द से जल्द सुलझाना ही होगा। इसके लिए दृढ़ कदम उठाए जाने की आवश्यकता है।

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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