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Udasi Koi Bhav Nahin Hai: उदासी कोई भाव नहीं है

Udasi Koi Bhav Nahin Hai: कविता तभी बनती है जब बाहर की स्थितियाँ अंतर्मन की अनुभूतियों की आँच में धीरे धीरे सीझती हैं। कविताएँ संवेदनाओं से जन्म लेती है। संवेदना प्रस्तुत करती हैं। संवेदना जगाती हैं।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh Mishra
Published on: 30 Sept 2024 6:09 PM IST
Udasi Koi Bhav Nahin Hai
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Udasi Koi Bhav Nahin Hai

Udasi Koi Bhav Nahin Hai: राजकुमार सिंह एक पत्रकार हैं। पत्रकार कवि हैं। इसलिए बात पत्रकारिता से ही शुरु की जाये तो बेहतर होगा। हमें उनके साथ ज़िंदगी के कई पल व अनुभव साझा करने व पाने का अवसर भी मिला है। हम दोनों लोगों ने साथ काम किया है। इसलिए मैं अपनी बात कवि नहीं, पत्रकार राजकुमार सिंह जी से शुरु करता हूँ। बात 1992 की है। तब इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अर्थशास्त्र में डी फ़िल की डिग्री लेकर पत्रकारिता को हमने अपने आगे के जीवन के लिए चुना था। मेरे इस फ़ैसले से लोगों में रहस्य व नाराज़गी दोनों थी। पर मेरे कदम बढ़ चुके थे। पहले दिनों मैंने एक आदमी के एक्सीडेंट्स में मर जाने की खबर छापी तो हमें दो-तीन दिन तक परेशानी और बेचैनी रही।

मैं सोचता रहा- जानें कैसे होंगे उसके परिवार के लोग? कहीं यही अकेला कमाने वाला शख़्स रहा होगा तो कैसे जियेंगे लोग? शादी हो गई होगी तो बीबी का क्या होगा हाल? बच्चे छोटें होंगे तो कैसे उन्हें बताया गया होगा कि पापा नहीं रहे? बच्चों ने भगवान को कितना कोसा होगा? आदि इत्यादि । पर धीरे धीरे लोगों का मरना मेरे लिए सिंगल कॉलम, डबल कॉलम,लीड और बॉटल स्टोरी बन कर रह गया।गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है आत्मा अजर है। अमर है। आत्मा मरती नहीं है। मैं श्रीकृष्ण व गीता के इस कहे से इत्तफ़ाक़ नहीं रखता। मेरे मुताबिक़ आत्मा भी मरती हैं। मुद्दों मुद्दों, सवालों सवालों। पत्रकारिता की इतनी लंबी पारी खेलने के बाद भी अगर राजकुमार जी ने अपनी आत्मा को बचा कर जीवित रखा है, तो उन्हें बधाई।क्योंकि आत्मा जीवित नहीं होती तो वह कविता नहीं कर पाते। कविता नहीं लिख पाते। कविता के भाव को पकड़ नहीं पाते। उदासी के भाव को परख नहीं पाते। क्योंकि मेरा मानना है कि भाव का रिश्ता काया से नहीं आत्मा से ही है। जब आत्मा इस काया को छोड़ देती है तो सभी भाव ख़त्म हो जाते हैं। तिरोहित हो जाते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र: Photo- Newstrack

उदास शब्द का भाव वाचक संज्ञा है- उदासी। यह दिमाग़ के दाएं ओसी सीपिटल लोब, बाएँ इंसुला, बाएँ थैलेसेमिया, एमिग्डाला और हिप्पोकैंपस की बढ़ी हुई गतिविधि से जुड़ी है। यह संज्ञा या विशेषण के रुप में उदास मन के लिए प्रयुक्त शब्द है। उदासी का मतलब आप दुख से लिपटे हुए हैं।जिस देश व समाज में सनातन के साथ बौद्ध धर्म भी स्वीकार हो। बौद्ध धर्म का क्षणवाद जीवन व समाज का हिस्सा हो। वहाँ सचमुच उदासी क्षण तो हो सकता है। पल हो सकता है। भाव नहीं हो सकता है।

वैसे इस किताब की सभी 142 कविताओं से गुजरा जाये तो यह कहना ज़्यादा समीचीन होगा कि इन कविताओं का केंद्रीय भाव उदासी नहीं है। बल्कि इसके केंद्रीय भाव में प्रेम व उम्मीद भी ठीक से गुथी हुई है। ये तीनों भाव कविताओं में समानांतर रुप से चलते, दिखते और मिलते हैं। यह भी कहा जाना चाहिए कि उम्मीद व प्रेम ही राजकुमार सिंह जी कविताओं का ऐंद्रिक पक्ष है। तभी तो उदासी, उम्मीद और प्यार शीर्षक की कविताएँ पाठक को पढ़ने को ज़्यादा मिलती हैं।

हालाँकि उदासी केवल चार कविताओं में ही सिमट गई है। जबकि उम्मीद भरी आधा दर्जन से दो ज़्यादा कविताएँ पाठकों के सामने राजकुमार सिंह जी ने परोसी हैं। जिनमें ज़िंदगी का उल्लास है। ज़िंदगी का सुर है। पर प्रेम पगी कविताएँ एक दर्जन से काफ़ी आगे निकल गई है। प्रेम को विषय बनाकर लिखी गई कविताओं में भी उदासी नहीं उम्मीद ज़्यादा है। प्रेम संबंधों में जीने का अहसास लिये एक अर्थवान ज़िंदगी जीने का संदेश है। सपाट प्रेम कहानी जैसा कुछ नहीं है। पर रिश्तों की चुभन तो है ही।

वैसे इन कविताओं में संकोच भरा पड़ा है, क्योंकि कवि ने बहुत प्रतीक चुने हैं, अपनी बात पूरी न कहने के लिए। शब्द भी इतने कम चुने है कि कई जगहों पर अखरते हैं- रंगत, मज़दूर, बिसाती, सावन बंद है, बिवाई, होंठ, मास्क कविताओं में इसे पाया जा सकता है। हालाँकि कविताएँ अपनी काया में पूरी हैं। पर पाठक को बेहद पठनीय चुप्पी से भर देती हैं।

कविताओं में सहेजा गया अतीत बहुत सहेज कर रखा गया है । क्योंकि वह कुरेदता नहीं है। वह अतीत की स्मृतियों से जोड़ता है। तभी तो वह अपनी एक कविता में कह उठते हैं-

बच्चे के बाल कटाने

मैं जाता हूँ बच्चे के साथ

पर लौटता हूँ पिता के साथ।

इसमें कहीं कुछ छूटने की कसक है। तो कहीं कुछ रीत जाने की यादें। मर्म भरे समय के स्मरण भी हैं। इनकी कविताओं में स्मृतियों का संकलन तो है ही। उनका आकलन भी है। कविता में साइलेंस का बड़ा महत्व है। शब्दों, वाक्यों, छंदों के बीच जो गैप होता है। पाठक के लिए वही जगह होती है, जहां वह खुद को जोड़ ले। राजकुमार जी ने अपने पाठकों को इसके लिए बहुत बहुत स्पेस दिया है। अपनी ओर से लिखे कुछ शब्दों में वह स्वीकारते हैं कि “ मुझे भरोसा है कि यह जो कुछ अपरिभाषित या छूटा है। वह पाठक अपनी तरह से परिभाषित करेंगे।और मुझसे बेहतर करेंगे।”

इनकी कविताओं में समकालीन जीवन के तार्किक व अतार्किक आधार बन चुके धारणाओं व निष्पतियों को नकारने की शक्ति दिखती है।

तभी उदासी शीर्षक कविता में वह कह उठते हैं-

और जो टपक रहे हैं रह रह कर

वो कोई घाव नहीं है

चटके हुए मन का

कोई स्वभाव है।

कविता तभी बनती है जब बाहर की स्थितियाँ अंतर्मन की अनुभूतियों की आँच में धीरे धीरे सीझती हैं। कविताएँ संवेदनाओं से जन्म लेती है। संवेदना प्रस्तुत करती हैं। संवेदना जगाती हैं। कल्पनाओं में हज़ारों हज़ार रंग खिलने लगते हैं। तब कविता गुनगुनाने लायक़ बनती है। इस हुनर में राजकुमार सिंह अपनी कविताओं में ख़ासे दक्ष दिखते हैं। क्योंकि कविताएँ उम्मीद बँधाती हैं। शब्दों की किसी बाज़ीगरी के बिना किसी पेचीदगी के वे अपना मिसरा तराशती हैं। जिसमें लय भी होती है और मायने भी। यही वजह है कि इन्हें शिल्प के नाम पर पच्चीकारी और रंग रोगन की ज़रूरत नहीं है।

कविताएँ भावनाओं से खेलती नहीं, भावनाओं का आदर करना सिखाती हैं।इच्छा कविता में वह कहते हैं-

मेरे मन में

वैसी ही तुम्हारी

इच्छा रहती है

जैसे उदासी को

अच्छे मौसम की

प्रतीक्षा रहती है।

इनमें मनुष्यता संबंधों के प्रति संवेदनाओं व वर्तमान विसंगति को व्यक्त करने की कोशिश है।

कविताओं की व्याप्ति एक ओर अनंत रूपात्मक जगत के नाना रंगों और उनकी अपनी जटिलताएँ और विसंगतियों तक है। दूसरी ओर मन की तल गहराइयों और इसके अंतरे कोनों तक भी। इन कविताओं में वसंत और पतझड़ के आने का कोई क्रम नहीं है। ये बेतरतीब हैं, कई बार बसंत जाने का नाम नहीं लेता , तो पतझड़ आने का नाम नहीं लेता है। कभी पलक झपकते बसंत और पतझड़ अग़ल बग़ल की कविताओं में आ जाते हैं।इनकी कविताओं में चुनौतियाँ व बेचैनी भी है। एक अच्छी कविता वह है, जिसमें कथा हो, एक अच्छी कथा वह है, जिसमें कविता भी हो। राजकुमार जी की कविताओं मे ग़ज़ब का कथा धैर्य है। इसलिए इन्हें संघर्ष व संवेदना के बेचैन कवि नहीं कह सकते ।

एक ऐसे समय जहां सारे जीवन मूल्य और भाषा बाज़ार के आक्रमण के सामने बार बार पराजित होते महसूस हो रहे हों वहाँ नई भाषा व नये शब्दों की इन कविताओं के बारे में कहा जा सकता है कि राजकुमार सिंह जी की कलम की निब स्टेथसकोप की तरह समय की नब्ज पर टिकी है। अपने समय का प्रतिमान गढ़ती ये कविताएँ नज़र आती है। तभी तो 'गरम सड़कें', 'बिवाई' , 'लौटने की तैयारी' व 'चादर' सरीखे अहसास जी पाते हैं।

पत्रकार राजकुमार सिंह: Photo- Newstrack

अभी हमारे संचालक अरुण सिंह जी ने कहा है कि राजकुमार जी लंबी कविताएँ नहीं लिखते। वह कविता में उलझते व उलझाते नहीं हैं। कई बार लंबी कविता लिखने वाले कवि अपनी ही कविता भूल जाते हैं। पर हमें एक पाठक तौर पर राजकुमार सिंह जी की कविताओं से गुजरने के बाद यह अभाव खटकता है कि राजकुमार जी पाठक के सामने खुद को खोल कर नहीं रखते। जबकि आज पाठक अपने कवि को क़रीब से देखना चाहता है। वह कवि के बारे में काफ़ी कुछ जानना चाहता है। क्योंकि बहुतेरे पाठक कविताओं से ही जुड़े रहने तक को ही अपना धर्म नहीं समझते हैं, बल्कि वे लेखक से भी कविताओं के मानिंद ही जुड़ना चाहते हैं। इसके लिए ज़रूरी है कि लेखक खुद को लपेट कर न सामने लाये। यदि राजकुमार जी खुद को लपेट कर व प्रतीकों में सामने नही रखने के आदि होते तो शायद डॉ सर्वेद्र विक्रम सिंह जी का न तो सवाल अनुत्तरित रह जाता और न ही अनुज अरविंद सिंह गोप जी को राजकुमार जी और अपने रिश्तों का पोशीदा सच कहना पड़ता। हमें उम्मीद है राजकुमार जी अपनी अगली किताब में पाठकों के सामने नये रुप में आयेंगे।

(राष्ट्रीय पुस्तक मेले में 29 सितंबर, 2024 को राजकुमार सिंह जी की किताब के उद्घाटन के अवसर पर संबोधन। लेखक पत्रकार हैं।)



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Shashi kant gautam

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