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Defamation Law: भावनाओं को समझो, क्यों बड़े लोगों की ही होती है मानहानि
Defamation Law: मान वाकई अजीब चीज है। किसी 60 प्लस महिला को भी गलती से कोई ‘आंटी’ कह दे तो भी मान टुकड़े टुकड़े हो जाता है। दूकानदार इस मामले में बड़े होशियार होते हैं, किसी उम्र की महिला हो, बहन जी ही कहेंगे ताकि मान की हानि न होने पाए और दुकानदारी फलती-फूलती रहे।
Defamation Law: बुरा किसी को लग सकता है और कभी भी, कहीं भी किसी भी मौके पर लग सकता है। मान की हानि भी ऐसी ही चीज है जो कहीं भी कभी हो सकती है। अब देखिये, शादी ब्याह में दूल्हे के जीजा, फूफा, ताऊ, मौसी, बुआ वगैरह को बुरा भी ऐसी ऐसी बातों पर लगता है कि सोच कर भी इंसान चक्कर में पड़ जाये। बुरा ही नहीं, इन रिश्तेदारों का मान भी बहुत नाज़ुक होता है, क्षणभंगुर होता है जो किसी भी बात पर चूर-चूर हो कर बिखर जाता है और उस छिन्नभिन्न मान की भरपाई सात पुश्तों तक नहीं हो पाती।
मान वाकई अजीब चीज है। किसी 60 प्लस महिला को भी गलती से कोई ‘आंटी’ कह दे तो भी मान टुकड़े टुकड़े हो जाता है। दूकानदार इस मामले में बड़े होशियार होते हैं, किसी उम्र की महिला हो, बहन जी ही कहेंगे ताकि मान की हानि न होने पाए और दुकानदारी फलती-फूलती रहे। वैसे मिडिल एजेड पुरुष भी अब अंकल कहलाये जाने से परेशान होने लगे हैं। जब हेयर डाई लगा है तो भी अंकल कहने की जुर्रत क्यों की?
मान जगह जगह मिट्टी में मिला जा रहा है। आप सब्जी वाले से 200 रुपये किलो वाला टमाटर खरीद नहीं पा रहे लेकिन पड़ोसन ने शान से खरीद क्या लिया, आपका मान गया रसातल में। ये बात दूसरी है कि शामत पति की आती है।
मान की क्या कहें, बापू को गोरों ने ट्रेन से उतार कर उनका मान न गिराया होता तो शायद आज इतिहास कुछ और ही होता। मान की हानि हानि ने ही पूरा महाभारत करवा दिया था। ये तो गनीमत मानिये कि जीजा-फूफा, पड़ोसी, अंकल, आंटी वगैरह कोर्ट में मानहानि की नालिश नहीं करते नहीं तो मुकदमों के पहाड़ तले दबी अदालतों में तो मुकदमों का एवरेस्ट बन जाता।
भावनाओं को समझते नहीं
लेकिन बहुतेरे लोग ऐसे भी हैं जो ढूंढते रहते हैं कि मान को ठेस पहुंचे और अदालत की और दौड़ें। बात किसी और की हुई हो लेकिन धक्का किसी और को लग जाता है। भावनाओं को ठेस पहुँच जाती है। लोग भावनाओं को या तो समझते नहीं या फिर बहुत ज्यादा ही समझ जाते हैं। बात पुलिस, गिरफ्तारी और अदालत तक चली जाती है। भावनाओं की क्या कहें, 140 करोड़ की आबादी में किसी एक बन्दे ने किन्हीं भावनाओं में गोता लगा कर कुछ भी किसी के बारे में लिख दिया तो फिर जान लीजिये कि 140 करोड़ में किसी भी एक बन्दे के मान को धक्का लग सकता है या भावनाएं आहत हो सकती हैं वह बन्दा पुलिस में शिकायत कर सकता है। जिसने झोंक में आ कर लिखा और जो आहत हुआ उन दोनों का उस बन्दे से कोई लेना देना नहीं जिसके बारे में लिखा गया है लेकिन भावनाएं, उनका क्या ही कहना। बन्दा जेल की चक्की पिसवाने पर ही तुल जाता है। ये भी अजीब बात है, किसी को सजा दिलवा कर मान दुरुस्त भी हो जाता है तो पहले चूर-चूर हो चुका था।
अब उन वकील साहब को देखिये, बड़ी उम्मीद से सबसे ऊँची अदालत में बताने लगे कि किस तरह सोशल मीडिया में चल रहे एक वीडियो में शीर्ष अदालत की तुलना कोठे से की गयी है और जजों को भ्रष्ट बताया गया है। वकील साहेब को विडियो से तकलीफ पहुंची थी। उन्होंने चीफ जस्टिस समेत तीन-तीन न्यायमूर्तियों के सामने इस विडियो का जिक्र किया और इसे अत्यधिक महत्वपूर्ण मसला करार दिया।
चीफ जस्टिस वाई.वी. चंद्रचूड़ ने जो कहा वह बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा – कोई दिक्कत नहीं, इसके बारे में तनिक भी परेशान न हों। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
ये बहुत बड़ी बात है। कोर्ट कोई भी कदम उठा सकता था लेकिन उसने इस मसले को कोई तरजीह ही नहीं दी। इसे कुछ भी मान सकते हैं। खुली सोच, अनावश्यक मुद्दों पर ध्यान न देना या फिर ये सोच कि हम अच्छे हैं तो दुनिया कुछ भी कहे हमें क्या लेना देना। बात अदलत के भीतर हुई है सो इसपर हम भी ज्यादा कुछ कमेन्ट नहीं करेंगे।
लेकिन हमारी भावनाएं अपने स्वयं के बारे में किये गए कमेन्ट या किसी हरकत से बुरी तरह जख्मी होती ही हैं, जिनसे हमारा कोई ताल्लुक नहीं है उनके बारे में किये गए बयानों या टिप्पणी से भी आहत हो जाती हैं। हम जैसे नामालूम लोगों पर तो कोई न मीम बनाएगा न सोशल मीडिया पर मजाकिया फोटो डालेगा सो हम किसी महानुभाव के बारे में डाली गयी फोटो से इतना आहत हो जाते हैं कि रातों की नींद उड़ जाती है। खासतौर पर अपने पसंदीदा नेताओं के बारे में कही गयी किसी बात पर बहुत जल्दी मन खराब हो जाता है। नेताओं – अफसरों पर टिप्पणी, उनके मीम, उनकी फोटो पर व्यंग्य क्या इतना बुरा है? पुलिस बड़े बड़े क्राइम छोड़ कर आहत भावनाओं पर मलहम लगाने के लिए आनन फानन में गिरफ्तारी कर लेती है, अदालतें चक्कर लगवा कर जूते घिसवा देती हैं। क्या सार्वजनिक जीवन में सार्वजानिक काम करने वाले इसे प्रोफेशनल जोखिम नहीं मानते? लोकतंत्र तो अमेरिका, इंग्लैंड में भी है लेकिन क्या वहां भी किसी नेता के बारे में कुछ बोल दिया तो किसी तीसरे को बुरा लग जाता है?
रोज़ रोज़ की मान – हानियों के लिए क्या करें
क्या हम लोगों के पास इससे बड़ा कोई काम नहीं है? क्या हमारी सोशल स्टैंडिंग, स्टेटस इतना कमजोर है कि एक मीम या कार्टून से धराशाई हो जाता है? किसी तीसरे शख्स के बारे में की गई टिप्पणी, किसी मीम, किसी फोटो से किसी अन्य एक व्यक्ति को बहुत धक्का लगता है लेकिन उसी इंसान की भावनाएं तब आहत नहीं होतीं जब वह सड़क पर पुलिसवालों को किसी गरीब, मजदूर को धाराप्रवाह गलियां देते सुनता है, जब किसी ट्रेन के ‘अमीर’ डिब्बे में घुसने की कोशिश कर रहे मजलूम को टीटी से लतियाये हुए देखता है, जब थाने में फ़रियाद ले कर कर गए आम आदमी से सिपाही-थानेदार की गटर छाप भाषा वाली बातें सुनता है। किसी जनप्रतिनिधि या किसी सरकारी अफसर से गुहार लगा रहे, या अपने अधिकार की बात कर रहे आम इंसान को जब बेहूदा बातें सुननी पड़ती हैं, दुत्कार मिलती है तब भावनाएं आहत नहीं होतीं। ये वह तीर होते हैं जो किसी की मनोदशा को हमेशा के लिए बर्बाद कर देते हैं, और लोग डिप्रेशन में क्या क्या नहीं कर लेते। लेकिन इनके खिलाफ कोई अपने मान, अपनी भावनाओं की रक्षा कैसे करे? कौन खड़ा होगा इन रोज़ रोज़ की मान – हानियों के लिए? कोई जवाब हो तो जरूर शेयर करिएगा, ज़रा हम भी जान लें।