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बेरोजगारी दूर करने के लिए बनें ठोस योजनाएं
दीपक गिरकर
मौजूदा दौर में हमारे देश को रोजगार सृजन की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है। देश में बेरोजगारी दर 46 साल के उच्च स्तर 8.5 फीसदी पर पहुंच गई है। देश के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि बेरोजगारी दर रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गई है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के मुताबिक ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में बेरोजगारी लगातार बढ़ रही है। सीएमआईई के डाटा के अनुसार 2016 से 2018 के बीच सिर्फ 2 सालों में 1.1 करोड़ लोगों को नौकरी से हाथ धोना पड़ा और वर्ष 2018 से 2019 के बीच करीब 60 लाख लोग बेरोजगार हो गए। एक रिपोर्ट में कहा गया है कि चालू वित्तीय वर्ष 2019-20 में इससे पिछले वित्तीय वर्ष 2018-19 की तुलना में 16 लाख कम नौकरियों का सृजन हुआ है। देश के लगभग 80 फीसदी घरों में नियमित आय का कोई साधन नहीं है।
डिजिटल होती दुनिया में रोजगार का स्वरूप बदल रहा है जिसमें फ्रीलान्स कार्य एक निश्चित अवधि तक लोगों को मिल रहा है। इसे गिग इकोनॉमी का नाम दिया गया है। गिग इकोनॉमी अनौपचारिक श्रम क्षेत्र का ही विस्तार है जिसमें श्रमिकों, काम करने वाले लोगों को बहुत कम भुगतान होता है और सामाजिक सुरक्षा, बीमा इत्यादि सुविधा भी नहीं है। गिग इकोनॉमी में कंपनी द्वारा तय समय में प्रोजेक्ट पूरा करने के एवज में भुगतान किया जाता है। इस अर्थव्यवस्था में कंपनी का काम करने वाला व्यक्ति कंपनी का कर्मचारी नहीं होता है। गिग इकोनॉमी को बढ़ावा देने के लिए देश में कुछ स्टार्टअप और कुछ कंपनियां कार्य करने लग गई हैं। स्विगी, जोमैटो, उबर और ओला जैसी कंपनियां गिग इकोनॉमी के तहत ही काम कर रही हैं।
मोदी सरकार ने बड़े जोर-शोर से स्टार्टअप इंडिया शुरू किया, लेकिन स्टार्टअप इंडिया का लाभ सिर्फ 18 फीसदी स्टार्टअप्स को ही मिल रहा है। नौकरशाही की वजह से नए उद्यमी परेशान हैं। प्रधानमंत्री रोजगार सृजन कार्यक्रम और मुद्रा लोन योजना सहित विभिन्न सरकारी योजनाओं की असफलता का ठीकरा बैंकों पर फोड़ा जाता है। सही मार्गदर्शन, प्रशिक्षण और पर्यवेक्षण के अभाव में अधिकतर सरकारी योजनाएं रोजगार की दृष्टि से असफल रही हैं। जिला उद्योग केन्द्र और अन्य सरकारी संस्थाओं में सबंधित अधिकारी अनुचित तत्परता के कारण ऋण प्रपोजल का यथोचित मूल्यांकन नहीं कर पाते हैं। सरकारी अधिकारी सिर्फ कागजी कार्यवाही करके सरकारी योजनाओं की प्रगति और रोजगार के आंकड़े जारी कर देते है जबकि जमीनी हकीकत कुछ और ही होती है।
सरकार प्रत्येक बजट में नई स्वरोजगार योजना ले आती है, लेकिन सरकारी मशीनरी द्वारा किसी भी सरकारी योजना का सही क्रियान्वयन नहीं किया जा रहा है। सरकार रोजगार सृजन के जो आंकड़े प्रस्तुत करती है, वे सिर्फ कागजी आंकड़े होते हैं। मेक इन इंडिया योजना से भी रोजगार सृजन में बढ़ोतरी नहीं हुई है। एक नया कारोबार या नया स्टार्टअप शुरू करने के मामले में आवश्यक परमिटों एवं निबंधनों की एक लम्बी-चौड़ी सूची से पाला पड़ता है और उस सूची का अनुपालन एक जटिल और बोझिल प्रक्रिया। भारतीय अर्थव्यवस्था की सभी समीक्षाओं और रिपोट्र्स के अनुसार नोटबंदी और जीएसटी लागू होने से भारी तादाद में बेरोजगारी बढ़ी है और नए रोजगार भी सृजित नहीं हुए हैं।
रोजगार में कमी से अर्थव्यवस्था को नुकसान हुआ है। भारतीय अर्थव्यवस्था में विकास दर और रोजगार दर में हमेशा असंतुलन रहा है। आर्थिक सुधार की विसंगतियों और सरकारी मशीनरी के लुंज-पुंज रवैये का परिणाम है बेरोजगारी। आर्थिक नव उदारवाद के नाम पर औद्योगिक घरानों के हित साधकर और निजीकरण को बढ़ावा देकर लघु और कुटीर उद्योगों पर कुठाराघात किया गया है। इससे सभी क्षेत्रों में रोजगार का भयावह संकट पैदा हुआ है। रोजगार सृजन आज देश की सबसे बड़ी चुनौती है। इस बजट में सरकार का पूरा ध्यान आर्थिक सुस्ती को दूर करने पर होगा। आर्थिक सुस्ती दूर होने के लिए मांग बढऩी चाहिए और मांग तभी बढ़ेगी जब युवाओं के पास रोजगार होगा। बजट में बेरोजगार युवाओं के हितों को ध्यान में रखकर ठोस योजनाओं का जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन सुनिश्चित किया जाना चाहिए। तभी हमारे देश की अर्थव्यवस्था मजबूत होगी और हम रोजगार सृजन की चुनौती से निपट सकेंगे।
(लेखका स्वतंत्र पत्रकार हैं)