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Uniform Civil Code: अदालती बोझ कम करेगी समान नागरिक संहिता, महिला सम्मान को लिए है ज़रूरी

Uniform Civil Code Importance: संविधान निर्माण के समय संविधान सभा के सदस्यों का यह मत था कि विवाह, तलाक, संपत्ति, दत्तक ग्रहण के विषय में सभी धर्म के लिए एक ही कानून होना चाहिए।

Surya Prakash Agrahari
Published on: 10 Nov 2023 2:38 PM IST
Uniform Civil Code Importance For Women
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Uniform Civil Code Importance For Women (Photo - Social Media)

Uniform Civil Code Importance: भारत विविधताओं से भरा हुआ भूभाग है, जो कई धर्मों, समुदायों, जातियों, विश्वास प्रणाली का एकीकरण है । इसलिए समान नागरिक संहिता का विषय भारत में बहस और विवाद का विषय है।औपनिवेशिक काल से ही भारत में समान नागरिक संहिता की बहस होती चली आ रही है। ब्रिटिश शासन से पूर्व ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा भारत की स्थानीय सामाजिक और पारंपरिक प्रथाओं में सुधार, बंगाल सती प्रथा अधिनियम-1829, लेक्स लोकी रिपोर्ट-1840 आदि के माध्यम से समान सामाजिक स्वरूप बनाने का प्रयास किया गया।

संविधान निर्माण के समय संविधान सभा के सदस्यों का यह मत था कि विवाह, तलाक, संपत्ति, दत्तक ग्रहण के विषय में सभी धर्म के लिए एक ही कानून होना चाहिए। एक समय समान नागरिक संहिता को मौलिक अधिकार में रखा जा रहा था परंतु 5:4 के बहुमत से यह प्रस्ताव गिर गया। इसके बाद भारत की संविधान सभा ने अनुच्छेद 44 को राज्य के नीति निदेशक तत्त्व के अंतर्गत शामिल किया। इसमें उल्लेखित है कि राज्य अपने नागरिकों के लिए पूरे भारत में एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा। इस अनुच्छेद ने धार्मिक विश्वासों, परंपराओं, प्रथागत प्रथाओं, मान्यताओं से जुड़े होने और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत के साथ इसका सामंजस्य बैठाने के कारण अधिक ध्यानाकर्षण किया।

समान नागरिक संहिता एक धर्मनिरपेक्ष कानून होता है, जो सभी धर्म के लोगों के लिए समान रूप से लागू होता है। इस अनुच्छेद के संबंध में एक तथ्य यह महत्त्वपूर्ण है कि इसे न्यायालय द्वारा लागू नहीं किया जा सकता। एक देश, एक कानून की तर्ज पर समान नागरिक संहिता को लागू करने की मांग समय-समय पर पुरजोर रूप से की जाती रही है। राष्ट्रीय स्तर पर इसको लागू करने की बात तो कई बार हुई । लेकिन इसके संबंध में कोई ठोस परिणाम नहीं आ सका है। समान नागरिक संहिता के लागू न होने से समता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है। देश की एकता की नींव भी कमजोर होती है। भारतीय संविधान सभा की सदस्य राजकुमारी अमृता कौर का कथन है कि, "धर्म आधारित निजी कानून जीवन के विभिन्न पहलुओं को जोड़कर देश में फूट डाल रहे हैं और इस प्रकार भारत को एक राष्ट्र बनने से रोक रहे हैं।"


फिलहाल हर धर्म के लोग इन विषयों का निपटारा अपने-अपने पर्सनल लॉ के अनुसार करते हैं। वर्तमान में मुस्लिम, ईसाई, पारसी समुदाय का अपना पर्सनल लॉ है जबकि हिंदू सिविल लॉ के तहत हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध सम्मिलित हैं। भारत में महिलाओं के विरासत संबंधी अधिकार उनके धर्म के आधार पर अलग-अलग हैं। वर्ष 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत हिंदू महिलाओं को अपने माता-पिता से संपत्ति प्राप्त करने का अधिकार पुरुषों के समान ही है। विवाहित और अविवाहित बेटियों के अधिकार समान हैं। महिलाओं को पैतृक संपत्ति विभाजन के लिए संयुक्त कानूनी उत्तराधिकारी के रूप में मान्यता दी गई है। वहीं, मुस्लिम पर्सनल ला द्वारा शासित मुस्लिम महिलाएं अपने पति की संपत्ति में हिस्सा पाने की हकदार हैं। ईसाइयों, पारसियों और यहूदियों के लिए 1925 का भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम लागू होता है। ईसाई महिलाओं को बच्चों या अन्य रिश्तेदारों के हिसाब से पूर्व निर्धारित हिस्सा मिलता है।


सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो केस (1985), सरल मुदगल केस (1995), जॉन बलवत्तम केस (2003), जोस पाउलो केस (2019), शायरा बानो केस (2016) मामलों के माध्यम से समान नागरिक संहिता पर अपने विचार प्रकट किया है। शाहबानो केस में सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में लिखा कि, "धार्मिक स्वतंत्रता हमारी संस्कृति की नींव है । लेकिन जो धार्मिक नीति मनुष्य की मर्यादा, मानवाधिकार का उल्लंघन करती हो वह स्वतंत्रता नहीं वरन उत्पीड़न है। इसलिए उत्पीड़ितों की रक्षा एवं राष्ट्र की एकता के विकास के लिए समान नागरिक संहिता परम आवश्यक है।"

समान नागरिक संहिता का पालन कई देशों में होता है। इन देशों में पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्किये, इंडोनेशिया, सूडान, मिस्र, अमेरिका, आयरलैंड, आदि शामिल हैं। समानता और न्याय से परिपूर्ण समान नागरिक संहिता को अनुशासनिक रूप से अपनाना चाहिए ताकि हर व्यक्ति को अपने अधिकारों का उपयोग करने का अधिकार और किसी भी रूप में उनकी सुरक्षा और विकास की गारंटी हो सके। इसमें समानता, मौलिक अधिकार और स्वतंत्रता के संरक्षण का महत्त्व होता है। यह समानता के आधार पर समाज में एकता, अखंडता और संगठन को बढ़ावा देती है। समाजिक विकास को सुनिश्चित करती है। समान नागरिक संहिता का औचित्य यह भी सुनिश्चित करता है कि बिना किसी भेदभाव के सभी व्यक्तियों को कानूनी, सामाजिक, और आर्थिक रूप से समानता मिले ताकि समाज में समृद्धि, विकास, और सामंजस्य बढ़ता रहे। यह सभी व्यक्तियों के अधिकारों और कर्तव्यों का समान रूप से पालन करने की मांग करता है।

भारत जैसे धर्मनिरपेक्ष देश में सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून होना चाहिए। कानून के निर्माण में धर्म के स्थान पर सामाजिक एवं आर्थिक हितों को ध्यान देना चाहिए। समान नागरिक संहिता समाज में विशेषता और असहिष्णुता के खिलाफ एक मजबूत दृष्टिकोण प्रदान करता है। एक ऐसे समाज की स्थापना करता है जो सभी के लिए समान अवसर और व्यावसायिक विकास की स्थापना करता है।

अलग-अलग धर्मों के पर्सनल लॉ के कारण न्यायपालिका पर भी बोझ पड़ता है , जिसके कारण अदालतों में वर्षों वर्ष तक फैसले लंबित पड़े रहते हैं। समान नागरिक संहिता लागू हो जाने से इस समस्या से निजात मिलेगी। सभी के लिए कानून में समानता से देश की एकता और अखंडता मजबूत होगी तथा देश विकास के पथ पर तीव्र गति से आगे बढ़ सकेगा।

अनुच्छेद 21 के अंतर्गत महिलाओं को प्रदत्त गरिमामय स्वतंत्र जीवन सुनिश्चित करने के लिए समान नागरिक संहिता आवश्यक है । क्योंकि इसके अभाव में तीन तलाक, मंदिर प्रवेश इत्यादि मामलों में महिलाओं के साथ लैंगिक भेदभाव किया जाता है।कुछ धर्मों के पर्सनल लॉ में महिलाओं के अधिकार सीमित कर दिए गए हैं । परन्तु समान नागरिक संहिता लागू होने से वैश्वीकरण के इस दौर में महिलाओं की स्थिति में भी सुधार आएगा तथा लैंगिक भेदभाव को भी कम करने में मदद मिलेगी। जनजाति की संस्कृति को बचाए रखने के नाम पर आज भी शिक्षित व सक्षम महिलाओं को विपरीत विचारधाराओं से जूझना पड़ता है। इस समाज की आटा-साटा, नाता प्रथा, बाल विवाह, कुकड़ी जैसी कुप्रथाएं बेटियों का शोषण कर रही हैं। इनके खिलाफ उन्हें कानूनी लड़ाई का अधिकार नहीं है और उन्हें पंच पटेलों के सामाजिक फैसलों को ही मानना पड़ता है। ऐसे में समान नागरिक संहिता लागू होने से आदिवासी महिलाओं की स्थिति में सुधार आएगा। संविधान सभा की बहस में केएम मुंशी ने तर्क दिया था कि, "यूनिफॉर्म सिविल कोड देश की एकता को कायम रखने और संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बनाए रखने के लिए जरूरी है। अभी तक की बहस मुसलमानों की भावना को केंद्र में रख कर हुई है, पर हिंदू भी समान नागरिक संहिता से असुरक्षित हैं। मैं इस संविधान सभा के सदस्यों से पूछता हूं कि हिंदू समाज में भी यूनिफॉर्म सिविल कोड के बिना सुधार कैसे संभव होगा, खास तौर पर महिलाओं के अधिकारों से जुड़े हुए मसलों में इसकी जरूरत है।"

इन सबसे अलग, 21वें विधि आयोग ने अगस्त 2018 में माना कि यूसीसी की जरूरत फिलहाल नहीं है। लेकिन कानूनों में भेदभाव और असमानता से निपटने के लिए सभी धर्मों के वर्तमान कानूनों को संशोधित करने की संस्तुति की। आयोग ने कहा था कि यह ध्यान में रखना होगा कि सांस्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता नहीं किया जा सकता कि एक समान कानून बनाने के क्रम में राष्ट्र की क्षेत्रीय अखंडता ही खतरे में आ जाए। लोगों में परस्पर विश्वास के निर्माण के लिए सरकार और समाज को कड़ी मेहनत करनी होगी, किंतु इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि धार्मिक रूढ़िवादियों के बजाय इसे लोकहित के रूप में स्थापित किया जाए।

समान नागरिक संहिता की अवधारणा है कि इससे सभी के लिए कानून में समानता और राष्ट्रीय एकता मजबूत होगी। इससे होने वाले फायदे की बात करें तो पहला इससे कानून का सरलीकरण होगा। इस संहिता का उद्देश्य महिलाओं और धार्मिक अल्पसंख्यकों सहित संवेदनशील वर्गों को सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना है जिससे देश में राष्ट्रवादी भावना को बल मिलेगा तथा समाज में एकरूपता आएगी। इतना ही नहीं, इसके कई अन्य लाभ भी हैं जो देश के पंथनिरपेक्ष ढांचे को मजबूती प्रदान कर सकते हैं। ऐसे में समान नागरिक संहिता का प्रारूप तैयार करते वक्त व्यापक विचार-विमर्श की जरूरत तो है ही, लोक-परंपराओं और मान्यताओं में समानताएं तलाशते हुए उन्हें भी विधिसम्मत एकरूपता में ढालने की जरूरत है। यदि ऐसा लचीलापन आता है। तो शायद निजी कानून और मान्यताओं के परिप्रेक्ष्य में अदालतों को जिन कानूनी पेचीदगियों का सामना करना पड़ता है, वे दूर हो जाएंगी। ऐसा होने से ही समान नागरिक संहिता सही रूप से पूरे देश में क्रियान्वित की जा सकेगी। वास्तव में हमारा सामाजिक तंत्र अन्याय, भेदभाव और भ्रष्टाचार से भरा हुआ है। हमारे मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष में है। इसलिए इसमें सुधार की जरूरत है। इसके लिए सभी व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध किया जाना आवश्यक है, ताकि उनमें से प्रत्येक में पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी पहलुओं को रेखांकित कर मौलिक अधिकारों के आधार पर उनका परीक्षण किया जा सके।

( लेखक स्तंभकार हैं।)

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