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खुशबू आती नहीं कभी, कागज के फूलों से !

प्रधानमंत्री तो बड़ा होता ही रहा है, किन्तु योगी भी तेज इंजन लगे। अपने गोरखपुर में एक लाख वोटों से विजयी योगी ने मंडल की सारी सीटें भाजपा को दिलवायीं।

K Vikram Rao
Written By K Vikram RaoPublished By Shashi kant gautam
Published on: 12 March 2022 6:06 PM IST
The fragrance never comes from paper flowers!
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फोटो: उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव: पीएम मोदी-सीएम योगी-अखिलेश यादव

यूपी की अठारहवीं विधानसभा (2022) (UP Election 2022) में सारा कुछ मीठा नहीं रहा। सब जलेबीनुमा है, धुमावदार। तथ्य मरोड़ना, यथार्थ तथा मनोरचना में फर्क मिटा देना, विशेषकर एक एक्टिविस्ट मीडिया ग्रुप का छोटेमोटे वीडियो के आकार में प्रस्फुटित हो जाना। राजनेताओं (politicians) से पाये अर्थ से अनर्थ पेश करना। ऐसी अवां​छनीय प्रवृत्ति गैरपेशेवराना है। सच को हराती है। राष्ट्रमंत्र (सत्यमेव जयते) को नकारती है।

मगर पहले एक शुभवार्ता। विधानसभा के प्रमुख सचिव पं. प्रदीप दुबे से प्राप्त सूचना के अनुसार इस 403 सदस्यों वाले सदन के करीब दो सौ विधायक पिछले सदन में थे। पुनर्निर्वाचित हुए हैं। अर्थात जटिल विधायी प्रक्रिया से अवगत हैं। प्रशिक्षण की दरकार नहीं रहेगी।

अब सर्वाधिक भयावह बात। आज इस आम चुनाव में 1946 की भांति मुस्लिम मतदाताओं ने एक जुटता से एक ही मकसद लेकर वोट डाला है। तब मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग के पक्ष में। इस बार एक गठबंधन—विशेष हेतु। मजहबी ध्रुवीकरण सम्पूर्ण रहा। नतीजन जाति—आधारित मतदान क्षीण हुआ। दलित—केन्द्रित बहुजन समाज पार्टी का केवल एक सीट जीतना इसका परिचायक है। श्रेय भले ही कोई भी लेने का प्रयास करे। हास्य तो इस पर होगा कि बसपा के सांसद, दलितों के विप्र नेता महासचिव पं. सतीश चन्द्र मिश्र, ने बड़े आत्मविश्वास के साथ दावा पेश किया था कि मायावती पांचवीं बार मुख्यमंत्री की शपथ लेंगी। मगर व्यवधान पड़ा कि एक अकेली सीट ही मिली। करीब 202 विधायकों की कमी रह गयी।

आशंकायें जन्मती हैं कि अमेरिका में अश्वेतों की भांति और इस्लामी पाकिस्तान में शियाओं की तरह, भारत में भी वैसा ही जनसमूह न दिखने लगे। इसे अर्थतंत्र बर्दाश्त नहीं कर पायेगा।

तब अखिलेश ने पुरजोर विरोध किया था

यह विषय अखिलेश यादव के खासकर ध्यानार्थ है। याद कीजिये वर्ष 2012 को। तब इस युवा समाजवादी ने डा. लोहिया की विचारधारा से अनुप्राणित होकर, राजनीति में प्रवेश किया था। उनके पिताश्री ने पश्चिम यूपी के माफिया सरगना डीपी यादव को पार्टी का टिकट दिया था। अखिलेश ने पुरजोर विरोध किया था। जातभाई, माफिया यादव का नाम कटा। तो अब यह कैसी प्रगति है कि 2022 में यही अखिलेश यादव माफियापुत्र अब्बास अंसारी को मंच पर आहूत कर संदेश प्रसारित करते है कि आतंकी अब अवांछनीय नहीं है? कनिष्ट ओवरसियर से (धन की खान) नोएडा का चीफ इं​जीनियर बना यादव सिंह और रेपिस्ट मंत्री गायत्री प्रजापति भी अखिलेश यादव की सरकार के लाभार्थी रहे।

अखिलेश ने शायद व्यंग में कहा होगा कि समाजवादी पार्टी ने भाजपा सरकार के विधायकों की संख्या घटाई है। भाजपा के 17वीं विधानसभा में 325 सदस्य थे। अब 270 हैं। मगर सपा तो 203 न जीत पायी और केवल 111 पर ही सिमट गयी। अर्थात 92 विधायक न जिता पा कर सरकार बनाने में अक्षम रही। अखिलेश घोषित तौर से चार सौ पार करने वाले थे ! त्रिशंकु बन गये।

सामाजिक विग्रह जन्मानेवाली बसपा का सूपड़ा ही साफ हो जाना इस चुनाव की आह्लादकारी विशिष्टता है। राज्य के 18 मंडलों में मायावती ने 18 जनसभायें की। बसपा की हार जबरदस्त हुयी। खुद उनके पैतृक गांव बदलापुर (दादरी, गौतमबुद्ध नगर) में ही बसपा हार गयी। मगर चर्चा है कि मायावती ने अपने पार्टीजनों को हिदायत दी थी कि सपा को हराओ। अप्रत्यक्ष रुप से योगी को जिताओ। परिणाम सामने है। पिछली दफा मायावती का नारा था कि ''चढ़ गुण्डन की छाती पर, बटन दबावो हाथी पर।'' इस बार बदल कर कमल का बटन दबवाया।

संघर्ष का जायका ही नहीं लिया

यहां भारत की सबसे पुरानी पार्टी (कांग्रेस) का जिक्र हो। प्रियंका वाड्रा ने 1989 से मृतप्राय पार्टी में स्पन्दन ला दिया। अभी तक पार्टी आईसीयू में थी। वेन्टिलेटर पर। अब सांसे लौट रहीं हैं। शायद 2027 के विधानसभा का यह रिहर्सल था। मगर दु:ख रहेगा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष विधायक अजय कुमार लल्लू की पराजय का। वह संघर्ष के प्रतीक हैं। उनका एक पैर जेल में रहता है। तुलना में देखें। लोहियावादी अखिलेश यादव आज तक कभी भी जेल नहीं गये। संघर्ष का जायका ही नहीं लिया। सुकुमार ही रहे। शायद यही कारण रहा कि यादव भूमि कहलाने वाले मध्य यूपी के आठ जनपदों के 29 सीटों पर यदुवंशी शिकस्त खा गये। करहल से नामांकन के दिन अखिलेश ने कहा था कि वे केवल परिणाम ​के दिन प्रमाणपत्र लेने आयेंगे। जल्दी आना पड़ा। हालत कुछ ऐसे बने। स्वयं पिताश्री मुलायम सिंह यादव को भी अभियान हेतु आना पड़ा।

मोदी—योगी

अब आयें मोदी—योगी पर। प्रधानमंत्री तो बड़ा होता ही रहा है, किन्तु योगी भी तेज इंजन लगे। अपने गोरखपुर में एक लाख वोटों से विजयी योगी ने मंडल की सारी सीटें भाजपा को दिलवायीं। यह इस​लिये अचरज पैदा करता है क्योंकि एक माहौल दिखाया गया था कि पार्टीजन, खासकर विधायक, मुख्यमंत्री से असंतुष्ट है। क्षत्रिय योगी सजातीयों को ज्यादा पसंद करते है। इसी कारण विप्रवर्ग उनसे दूर हो गया है। पारंपरिक रुप से भाजपा ''ब्राह्मण—बनिया'' की पार्टी रही है। मगर अंतत: योगी ने समन्वय सर्जाया। विजय दिलवा दी।

अब कुछ हमारे व्यवसाय के बारे में। कतिपय कलमकार वीडियो रपट के माध्यम से फैला रहे थे कि समाजवादी गठबंधन द्वारा भाजपा का सूपड़ा साफ हो रहा है। श्रोता यकीन करने लगे। संदेह भी था कि समाजवादीगण इस योजना के मूल में है। विशेष मुनाफे की पेशकश भी हुयी थी। अब सच तो निखर आता ही है। कलम के ऐसे फर्जी लोग 10 मार्च को शर्म के मारे तिरोभूत हो गयें। मगर वे अत्यंत घृणित, जलील तथा ​अविश्विसनीय वातावरण बना गये। भला हुआ कि वोटरों तथा जनता ने ऐसे मीडिया कर्मियों को लोकदृष्टि में हेय बना डाला। पानी दूध से अलग कर दिया गया। पत्रकारिता का आधार ''वास्तविकता'' होती है। वह जीती। ''फेक न्यूज'' के उत्पादक फिर हारे।

Shashi kant gautam

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