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पर्यावरण परिवर्तन: बढ़ते वाहन, कटते जंगल और बढ़ता अस्थमा

raghvendra
Published on: 6 April 2019 9:04 AM GMT
पर्यावरण परिवर्तन: बढ़ते वाहन, कटते जंगल और बढ़ता अस्थमा
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प्रदीप श्रीवास्तव

विगत कुछ दशकों में पर्यावरण परिवर्तन, तीव्र गति से होता शहरीकरण, बढ़ता प्रदूषण और उपेक्षित सरकारी व सामाजिक गतिविधियों के कारण अस्थमा के मरीजों की संख्या में कई गुना वृद्धि हुई है। अब गैर संक्रामक रोग महामारी की तरह फैल रहे हैं। वातावरण में बदलाव के कारण पुराने रोगों का स्वरूप बदल रहा है, जबकि कुछ नए प्रकार के रोग पैदा होने लगे हैं। अस्थमा, सांस संबंधी बीमारियां, सीओपीडी के अलावा ब्लड प्रेशर और मधुमेह का प्रकोप सबसे ज्यादा है। दिन प्रतिदिन जहरीली होती हवा और शहरों का गैस चेम्बर में तब्दील होना अस्थमा मरीजों की संख्या में भारी वृद्धि कर रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार देश में हर वर्ष वायु प्रदूषण से 35 लाख लोगों की मृत्यु होती है, जबकि एचआईवी, टीबी, और मलेरिया से मरने वालों की संख्या इससे कई गुना कम है। हालत यह है कि बुंदेलखंड जैसे पिछड़े व प्राकृतिक रूप से बेहतर इलाके भी इसमें पीछे नहीं हैं, विगत पांच सालों में अस्थमा के मरीजों की संख्या दोगुनी हो गई है। इसकी मुख्य वजह स्टोन क्रशर, वाहनों का प्रदूषण और जंगलों का कम होना है।

लैंसेट ग्लोबल हेल्थ की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में सबसे ज्यादा रोगी सांस की परेशानी के हैं। रिपोर्ट तैयार करने के लिए देश के 880 शहर और नगरों के मेडिकल कालेज या अस्पतलों में आने वाले मरीजों का डेटा एकत्र कर उनका विशलेषण किया गया। 2 माह से 102 वर्ष तक के मरीजों की बीमारियों को जांचा गया। सबसे ज्यादा मरीज सांस के पाए गए। सामान्य ओपीडी में करीब पचास प्रतिशत से ज्यादा रोगी सांस संबंधी बीमारी के आते हैं, जबकि ब्लड प्रेशर, एनीमिया, त्वचा रोग से पीडि़त रोगियों की संख्या सांस के रोगियों से काफी कम है। झांसी के महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कालेज के टीबी एवं चेस्ट रोग विभाग के ओपीडी में आने वाले मरीजों की संख्या के रिकार्ड के अनुसार विगत पांच सालों में अस्थमा के मरीजों की संख्या दोगुनी हो गई है। यह मेडिकल कालेज बुंदेलखंड के 13 जिलों के करीब एक करोड़ की आबादी को कवर करता है। पांच वर्ष पूर्व चेस्ट रोग के ओपीडी में प्रतिवर्ष करीब पांच से सात हजार अस्थमा के मरीज इलाज कराने आते थे, जबकि अब प्रतिवर्ष दस से बारह हजार मरीज इलाज के लिए आते हैं। विभाग के प्रोफेसर कहते हैं कि मरीजों की संख्या में वृद्धि होने की मुख्य वजह स्टोन क्रशर, वायु प्रदूषण और जंगलों का कम होना है। जानकारों के अनुसार बुंदेलखंड मात्र एक प्रतिनिधि इलाका है, उत्तर प्रदेश और कमोबेश देश के सभी इलाकों की यही स्थिति है।

रीच लिली फाउंडेशन की मीडिया फेलोशिप रिसर्च बुंदेलखंड में अस्थमा मरीजों के बढऩे के कारणों को बयां करती है। रिसर्च के अनुसार बुंदेलखंड का पूरा इलाका लंबे समय से वनों से आच्छादित रहा है। चित्रकूट में रामायण काल में घने जंगल थे। मध्यकाल में पन्ना के जंगलों में हाथियों के शिकार के संदर्भ मिलते हैं। अंग्रेजों के समय भी बुंदेलखंड के जिलों में कई प्रकार के जंगली जानवर जैसे बाघ, पैंथर, तेंदुआ, लकड़बग्घा, हिरण और मगरमच्छ व कछुआ जैस जलीय वन्य जीवों के निवास का जिक्र है। वक्त गुजरने के साथ जंगलों को इस कदर काटा गया है कि बुंदेलखंड के जिलों के तहसीलों से वन भूमि गायब हो गई। बुंदेलखंड में अब 8 प्रतिशत से कम वन भूमि है। वन क्षेत्र केवल ललितपुर और चित्रकूट जिलों के कुछ हिस्सों में बचा है।

हालांकि, अधिसूचित वन वास्तविक जंगल से काफी कम हैं। इसकी मुख्य वजह आंकड़ों का पुराना होना है। विगत वर्षों में खनन, अतिक्रमण और अवैध कटाई के कारण जंगल सिकुड़ते जा रहे हैं, जिससे पेड़ों की संख्या कम हुई है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कहना है कि बुंदेलखंड में लगभग 345 स्टोन क्रशर धूल और धुएं से प्रदूषण फैला रहे हैं। रसूख वालों के इन क्रशरों में तमाम मानक ठेंगे पर हैं। यह क्रशर सिर्फ पत्थर की धूल ही नहीं बल्कि मानकों की धज्जियां भी उड़ा रहे हैं। झांसी, महोबा, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, बांदा और चित्रकूट में कुल 345 स्टोन क्रशर हैं। इनमें सिर्फ सात बंद हैं। इनसे रात दिन उड़ती धूल आसपास के लगभग एक किलोमीटर दायरे में खेतों और आबादी को भारी नुकसान पहुंचा रही है। खेत सफेद धूल से पट गए हैं। इस दायरे में रहने वाले लोगों और पत्थरों की खदानों तथा क्रशरों में काम करने वाले लोग अस्थमा रोगी बन रहे हैं। क्रशर का सबसे ज्यादा प्रदूषण महोबा जिले में हैं। यहां डहर्रा, पथरा, पचपहरा, गुगौरा आदि गांवों के पास जीवन दूभर हो गया है। पेड़ पौधों को भारी नुकसान पहुंच रहा है। बुंदेलखंड में छोटे-बड़े वाहन भी खूब प्रदूषण फैला रहे हैं। इनकी तादाद लगभग 6 लाख का आंकड़ा पार कर गई है। बांदा जिले मेें 95,331, महोबा में 70,967, हमीरपुर में 61,657, चित्रकूट में 48,434, झांसी में 1,20,580, ललितपुर में 80,970 और जालौन में 71,650 छोटे-बड़े वाहनों से दिन रात निकल रहा धुआं फिजा में जहर घोल रहा है। डीजल और पेट्रोल के धुएं से अस्थमा रोगी तेजी से बढ़ रहे हैं।

वाहनों का प्रदूषण नापकर प्रमाणपत्र जारी करने वाले प्रदूषण केंद्र (गायत्री नगर) संचालक जागेश्वर शुक्ला का कहना है कि अधिकांश वाहनों का धुआं मानक से ज्यादा पाया जा रहा है। डीजल वाहनों में 45 के बजाए 60 से 70 हर्टेज स्मोक यूनिट धुआं पाया जा रहा है। पेट्रोल का धुआं ज्यादा नुकसानदेह है। इसमें नाइट्रेट, सल्फर और लेड शामिल है। यह श्वांस आरै आंखों को प्रभावित करती है। कमोबेश यही हाल उत्तर प्रदेश के अधिकतर शहरों का हैं। अधिकतर जिलों का तेजी से शहरीकरण हो रहा है, जिस कारण यहां पर वाहनों की संख्या बढ़ रही है। बढ़ते वाहनों से निकलने वाला हानिकारण धुंआ लोगों को बीमार बना रहा है। सबसे हैरत की बात यह है कि प्रदूषण के प्रति लोगों में तो जागरूकता की भीषण कमी है। प्रदूषण से पैदा होने वाली बीमारियां मौत का सबसे बड़ा कारण बन रही हैं लेकिन इसकी चिंता किसी को नहीं है। एक बार फिर चुनावी मौसम है।

पहले की तरह इस बार भी प्रदूषण, बीमारियां, जंगल, स्वच्छ हवा, पर्यावरण सुरक्षा वगैरह कोई मुद्दा नहीं हैं। कहीं से इस बारे में कोई न तो मांग उठती है और न किसी तरह के बादे-इरादे किसी नेता या दल के मैनीफेस्टो में नजर आते हैं। जरूरत है कि लोग किसी और के भरोसे न बैठ कर स्वयं पर्यावरण की चिंता करें। न खुद प्रदूषण फैलाने में में योगदान करें और न किसी को करने दें।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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