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विकास दुबे- वोहरा कमेटीः आखिर क्यों डर रही है सरकार, कहां दफन है रिपोर्ट
वोहरा कमेटी की सिफ़ारिशों का खुलासा करने से बचना है और किसी विकास दुबे के पनपने, बढ़ने और विस्तार पाने पर अंकुश लगाना है तो सेवा, जाँच व क़ानून व्यवस्था लागू करने वाली पुलिस को अलग करना ही पड़ेगा।
योगेश मिश्र
विकास दुबे की कथित मुठभेड़ में मौत। विकास दुबे के माफ़िया डॉन बनने की कहानी। विकास दुबे द्वारा आठ पुलिसकर्मियों को शहीद कर देने की दुस्साहसिक वारदात। इन सबमें तमाम सवाल छिपे हैं। ये तमाम सवाल लंबे समय से उत्तर की प्रतीक्षा में हैं।
यह उत्तर देना है- राजनेताओें को, राजनीतिक दलों को, पुलिस को, न्याय पालिका को, मीडिया को। क्योंकि विकास दुबे हो जाना एक दिन का खेल नहीं है। लेकिन लंबे समय से इन सवालों का उत्तर सिर्फ़ ‘ब्लेम गेम’ के मार्फ़त दिया जा रहा है।
आज भी यही हो रहा है। पर जो लोग विकास दुबे के राबिनहुड बन जाने, एनकाउंटर किये जाने, आठ पुलिसकर्मियों को मार दिये जाने, न्याय पालिका की अनदेखी किये जाने, विकास दुबे के पुलिस व राजनेता से गठजोड़ को लेकर चिंतित हैं, उन्हें इस यक्ष प्रश्न का स्थायी हल चाहिए। क्योंकि साल बदलते हैं। सरकारें बदलती हैं। पर ये सवाल ज्यों का त्यों खड़े रहते हैं।
आज कहा जा रहा है कि विकास दुबे का एनकाउंटर राज न खुले इसलिए कर दिया गया। पर हक़ीक़त यह है कि माफिया का अंत गोली से ही होता है। वह चाहे पुलिस की गोली हो या दूसरे माफिया की गोली। इसे अनदेखा कर सभी राजनेता एक दूसरे के राज खुलने की बात कह रहे हैं। पर हक़ीक़त है कि किसी के भी दबंग, बाहुबली और राबिनहुड बनने में दशकों लगते हैं।
ऐसे शुरू होती है यात्रा
सबसे पहले दबंग बनने की चाहत वाले लोग सरकारी संसाधन पर कुंडली मार कर बैठने से अपनी यात्रा की शुरुआत करते हैं। वह रियल इस्टेट हो, शराब हो, खनन हो, रेत, बालू, मोरंग हो या फिर सरकारी ठेके हों इस पर कुंडली मारकर अकूत काली कमाई कर लेते हैं। इस काली कमाई के लिए, तंत्र पर पकड़ मज़बूत रखने के लिए ख़ाकी व खादी का वरदहस्त चाहिए होता है। इसे वह धनबल व बाहुबल से हासिल करते हैं।
हमारे लोकतंत्र में केवल गणतंत्र है। गुणतंत्र के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए उस इलाक़े से जो भी चुनाव लड़ता है, उसकी मजबूरी होती है कि वह इनके शरण गहने को तथास्तु कह कर स्वीकार करे। माफ़ियाओं की पसंद हमेशा सत्तारूढ़ पार्टी होती है।
अधिकांश माफिया यह चाहते हैं कि यदि सत्तारूढ़ दल में जगह न मिल पाये तो अपने इलाक़े के जिताऊँ उम्मीदवार की नज़र ए इनायत हो जाये। जीतने जिताने के तमाम अचूक नुस्ख़े इनके पास भी होते है। ये अपने इलाक़े में अपनी जाति का चेहरा बन उठते हैं। राजनीतिक शरण पाने के बाद कई काम नेताओं से ज़्यादा जल्दी करा लेते हैं।विकास पर ६० मुक़दमे थे।
छुट्टी पाने से ज्यादा थी निकटता की होड़
आज भले ही विकास से छुट्टी पाने की होड़ मची हो पर हक़ीक़त यह है कि विकास दुबे के रहते यही होड़ उससे निकटता पाने की भी देखी जा सकती थी। नहीं तो पुलिस उसके लिए मुखबिरों का काम नहीं करती। सपा, बसपा, भाजपा और कांग्रेस कोई ऐसा दल न रहा जिसके नेता से विकास की निकटता वहाँ के लोगों ने न देखी हो।
यह सवाल किसी दल व किसी राजनेता तक सीमित नहीं है। यह हमारे तंत्र का बड़ा हिस्सा बन बैठा है। आज विकास दुबे के मारे जाने के बाद सब कुछ सामने लाने की बेचैनी लोगों में देखी जा रही है। इससे अधिक बेचैनी मुंबई बम ब्लास्ट के समय देखी गयी थी। यह विकास दुबे का एक बहुत बड़ा एक्सटेंशन था।
बहुत दबाव के बाद अपराधियों, नेताओं व नौकरशाही के गठजोड़ को उजागर करने के लिए वोहरा कमेटी बनी। समित के सदस्य रॉ और आईबी के सचिव, सीबीआई के निदेशक, केंद्रीय गृह मंत्रालय के स्पेशल सेक्रेटरी भी थे। इस समिति ने सौ पेज की रिपोर्ट सौंपी। इसके केवल 12 पन्ने आज तक सार्वजनिक किये गये।
कहां दफन है रिपोर्ट
किसी के नाम को उजागर नहीं किया गया। 1997 में रिपोर्ट सार्वजनिक करने का दबाव पड़ा तो केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट चली गयी। हमारी सर्वोच्च अदालत ने कहा,”रिपोर्ट सार्वजनिक करने को बाध्य नहीं किया जा सकता।” इस पूरे साल देवगौडा व इंद्र कुमार गुजराल की सरकार थी।
फिर कांग्रेस नीत यूपीए तथा भाजपा नीत एनडीए की सरकारें भी आईं व गयीं। इन दोनों गठबंधनों में देश का हर क्षेत्रीय दल कहीं न कहीं, कभी न कभी, किसी न किसी रूप में ज़रूर रहा है। आप का अस्तित्व बाद का है। इसलिए वह बच निकलने में कामयाब रहा। पर राजनेताओें, पुलिस, नौकरशाही का चोली दामन का साथ है। इससे कोई दल अछूता नहीं है।
वोहरा कमेटी की सिफ़ारिश पर हर राजनीतिक दलों के स्टैंड व अदालत की मुहर यह बताती है कि कहे चाहे कोई कुछ भी पर सबके सच एक ही हैं। हद तो यह है कि किसी राजनीतिक दल के लिए बिना बाहुबलियों के सरकार बनाना मुश्किल हो गया है।बाहुबलियों की मदद लेना तो छोटी बात हो गयी।
करना होगा ये
वोहरा कमेटी की रिपोर्ट भले सार्वजनिक न करके सभी दलों ने राजनीति के अपराधीकरण पर अपने दृष्टिकोण साफ़ कर दिये हों, इसे भले ही जनता समझ न पा रही हो। पर अगर सचमुच इससे निजात पाना है तो हमें पुलिस का चाल, चरित्र व चेहरा बदलना होगा। जिसे पुलिसिया रिफार्म भी कह सकते है।
इस रिफार्म में आधुनिक असलहे ख़रीदने, तैनाती के निश्चित टेन्योर, पुलिस को पीपल सेंट्रिक बनाने की जगह कुछ और आगे करना व सोचना होगा। जो पुलिस माननीयों की सुरक्षा में लगाई जाती है। उसे आम पुलिस से अलग करना पड़ेगा। क्योंकि माननीय की सुरक्षा में लगे पुलिसकर्मी सुरक्षा की जगह सेवा करने लगते हैं। इसे कभी भी देखा जा सकता है। जो पुलिसकर्मी माननीय का सेवादार रह चुका हो उससे लॉ एंड आर्डर मेंटेनेंस करने की उम्मीद करना बेमानी होगा।
यही नहीं जाँच एजेंसियों में काम करने वाले पुलिसकर्मी भी अलग किये जाने चाहिए। जिन पुलिसकर्मियों पर क़ानून व्यवस्था की ज़िम्मेदारी हों वे एकदम अलग होने चाहिए। वोहरा कमेटी की सिफ़ारिशों का खुलासा करने से बचना है और किसी विकास दुबे के पनपने, बढ़ने और विस्तार पाने पर अंकुश लगाना है तो सेवा, जाँच व क़ानून व्यवस्था लागू करने वाली पुलिस को अलग करना ही पड़ेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व न्यूजट्रैक के संपादक हैं।)