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VIP Security: इस सादगी पर कौन न मर मिटे ?

VIP Security: गणराज्य में आम वोटरों द्वारा निर्वाचित जननायकजन विशेष सुरक्षा हेतु, ढोंग और आडंबर से क्यों आप्लवित रहते हैं? लिप्त रहते हैं? प्रजापालक को जनता से खतरा काहे का? जबरन दूरी क्यों?

K Vikram Rao
Written By K Vikram RaoPublished By Shashi kant gautam
Published on: 7 Jan 2022 8:46 PM IST
VIP Security: Who does not die on this simplicity?
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विधायकों और मंत्रियों की वीआईपी सुरक्षा: Photo - Social Media 

VIP Security: सुरक्षा (VIP Security) पर होती रही फिजूलखर्ची से बहुधा असीम जनाक्रोश उपजता है। आम जन को क्लेश होता है, सो अलग। वीआईपी मोटर काफिले से सड़क पर आवागमन तो बाधित होता ही है। कभी—कभी प्रतीक्षारत राहगीर की मौत भी। ऐसी ही यातना बेचारे लखनऊवासी भुगतते थे, जब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी (Prime Minister Atal Bihari Vajpayee) अपने लोकसभाई क्षेत्र के दौरे पर लखनऊ आते थे।

इसी संदर्भ में कश्मीर प्रशासन द्वारा कल (6 जनवरी 2022) से चार (पूर्व) खर्चीले मुख्यमंत्रियों की विशिष्ट सुरक्षा सेवा निरस्त करने से घाटी के नागरिकों को सुगमता हो गयी। इन वंचित महानुभावों में हैं : डा. फारुख अब्दुल्ला (Dr. Farooq Abdullah), उनके पुत्ररत्न ओमर अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती और गुलाम नबी आजाद। इनकी रक्षा में एक पुलिस उपाधीक्षक मात्र अब तैनात रहेगा।

प्रजापालक को जनता से खतरा काहे का?

यहां एक मूलभूत जनवादी पहलू का उल्लेख हो। गणराज्य में आम वोटरों द्वारा निर्वाचित जननायकजन विशेष सुरक्षा हेतु, ढोंग और आडंबर से क्यों आप्लवित रहते हैं? लिप्त रहते हैं? प्रजापालक को जनता से खतरा काहे का? जबरन दूरी क्यों? आजादी के तत्काल बाद यह साम्राज्यवादी ब्रिटिश परिपाटी वस्तुत: कालदोषयुक्त प्रकरण बन गयी थी। पर कांग्रेसी नवशासकों ने यह कुप्रथा को चालू रखा। संजोये रखा। अहंकारवश। महानतम लोकनायक महात्मा गांधी जब लुकाटी लिये घूमते रहे तो उनके इन नेहरुमार्का ऐश्वर्यवान अनुयायियों का चलन इतना अक्षम्य नहीं था। बाद में मिथ्या आडंबर वाला हो गया। वक्त गुजरते और ज्यादा घिनौना हो गया।

पिछले महीने ही यूरोप से एक मित्र ने सड़क की चालू ट्रैफिकवाली फोटो भेजी थी। जर्मनी, फ्रांस, इटली आदि के राष्ट्राध्यक्ष डेनमार्क की राजधानी की सड़क पर साइकिलों पर जा रहे थे। आम जनता के साथ। अचंभा हुआ। एक और नमूना बताया जाता है। अमेरिका में माली बड़े महंगे होते हैं। एकदा एक अमेरिकी वृद्धा पेरिस के ग्रामीण अंचल में टहल रही थी। वहां एक बंग्ले के बगीचे में एक बूढ़ा बागवानी कर रहा था। उस वृद्धा ने उससे पूछा : ''मेरे साथ अमेरिका चलो। दूना पारिश्रमिक दूंगी। भोजन, आवास अतिरिक्त।'' सर उठाकर उस वृद्ध ने उत्तर दिया : ''अवश्य, यदि मैं आगामी चुनाव में फ्रांस का राष्ट्रपति फिर न चुना गया तो!''

भारत में द्वितीय प्रधानमंत्री हुये लाल बहादुर शास्त्री। एक बार तिरुअनंतपुरम के कोवलम तट पर वे नहाकर, बालू पर विश्राम कर रहे थे। कलक्टर का चपरासी प्रधानमंत्री का संदेशा देने आया। उसने नाटे चड्डी—​बनियाइनधारी से पूछा : ''गृहमंत्री से मिलना है।'' शास्त्री जी ने कहा : ''पत्र मुझे दे दो।'' चपरासी बोला : ''नहीं, गृहमंत्री को देना है।'' शास्त्री जी कमरे में गये धोती कुर्ता धारण कर, बाहर आये। वह चपरासी लगा गिड़गिड़ाने, दया याचना हेतु।

डा. फारुख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बनते ही बादशाह जैसे हो गये

अब बात हो इन चार कश्मीरी महारथियों की जो कल से फिरन पहने श्रीनगर की सड़क पर आम आदमी जैसे टहलते दिखेंगे। भदेरवा गांव के युवा कांग्रेसी नेता थे नबी साहब। उस दौर में पैदल टहलते दिखते थे। गायिका शमीमदेव से विवाह कर धन संपदा कमायी। मुड़कर फिर नहीं देखा। केन्द्रीय मंत्री के सारे वैभव भोगे। डा. फारुख अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बनते ही बादशाह जैसे हो गये। उनके वली अहद ओमर भी। महबूबा तो इतनी संपत्तिवाली हो गयीं कि रियाया से बहुत दूर चलीं गयीं। इन सबके अग्रणी थे शेख मोहम्मद अब्दुल्ला। शेख साहब तो महाराज हरी सिंह के राज में मामूली खेतिहर रहे। बाद में घाटी के शेख बन गये। शान और शौकत में अरब शेख जैसे। गरीब भारत के नहीं।

जब वे वजीरे आला थे तो उनके ठाट राजसी थे। भारी पुलिसबल उनके पास सेवारत था। आज भी उनकी हजरतबल में स्थित मजार की सुरक्षा सिपाही करते है। शासन को आशंका है कि नाराज जनता कब्र को उखाड़ न दे। आज मुद्दा उठता है कि बापू की तरह ये सब जननेता सादगी से क्यों दूर चले गये? राजमद क्यों पाला? ये सब रजवाड़ों से नहीं, जमीन से उठे थे। देश के सर्वाधिक महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश के तीसरे मुख्यमंत्री थे चन्द्रभानु गुप्तजी। आजीवन जांघिया—बनियाइन पहने रहे। उनके एक फोन पर लाखों रुपये आ जाते थे। बिना घी की दाल और सूखी रोटी ही उनका आहार था। इस पांच फिट के राजनेता ने इन्दिरा गांधी को मोरारजी से प्रतिस्पर्धा में पराजित करा ही दिया था। नेहरु—पुत्री बच गयी। एक बार उनसे पानदरीबा आवास पर भेंट में मैंने पूछा : ''गुप्ताजी आप कानपुर के सेठियों की नुमाइंदगी करते है, न कि आम जनता की।'' नाराज हो गये। क्योंकि वे कभी कांग्रेस—सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापकों में रहे। मुझे फटकारा। बोले : ''तुम सोशलिस्टों की जगह जेल ही है।'' उन्हीं दिनों मैं दिल्ली तिहार जेल से रिहा होकर लखनऊ आया था। गुप्तजी हमारे बड़ौदा डायनामाइट केस के अभियुक्तों की बचाव समिति के कोषाध्यक्ष थे। आचार्य जेबी कृपलानी अध्यक्ष थे। लोकनायक जयप्रकाश नारायण संरक्षक थे।

मुझे याद है तब मैं बीए का छात्र था

यूपी में इतनी तो गनीमत रही कि यहां के सारे मुख्यमंत्री सिवाय अपवाद के साधारणजन जैसे ही रहे। मुझे याद है तब मैं बीए का छात्र था। हम ग्रीष्मकाल की राजधानी नैनीताल गये थे। वहां मशहूर फ्लैट्स मैदान पर झील से सटे सिमेन्टेड बैंच पर विराजे खादीधारी झुण्ड को मैंने मूंगफली छीलते देखा था। पूरी राज्य काबीना थी। मुख्यमंत्री पंडित गोविन्द बल्लभ पंत ​के साथ। नमक चाटते, फली चबाते। फेरीवाले के दाम पंत जी चुकाते थे। सत्ताधारियों की इतनी सादगी ! उनके उत्तराधिकारी अब? बिहार में गरीबों का बादाम कहलाता चिनिया (बादाम) ! आज महंगा काजू सही शब्द होगा। फर्क दिखा ?

Shashi kant gautam

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