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मतदाता को मुखर होना होगा

raghvendra
Published on: 28 Sept 2018 5:55 PM IST
मतदाता को मुखर होना होगा
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ललित गर्ग

भारतीय राजनीति की अनेक विसंगतियों एवं विषमता में एक बड़ी विसंगति यह है कि राजनेता सुविधानुसार अपनी परिभाषा गढ़ता रहा है। अपने स्वार्थ, प्रतिष्ठा व आंकड़ों की ओट में नेतृत्व झूठा श्रेय लेता रहा और भीड़ उसकी आरती उतारती रही। भारतीय लोकतंत्र की इस बड़ी विसंगति के कारण मतदाता या आम जनता बार-बार ठगी जाती रही है और उसे गुमराह किया जाता रहा है। यही कारण है कि न तो राजनेता का चरित्र बन सका और न जनता व राष्ट्र का ही चरित्र बन सका। भारतीय राजनीति में अनेक राजनेता झूठ-फरेब, धोखाधड़ी का पर्याय बने हैं। इन स्थितियों से लोकतंत्र को निजात दिलाना होगा अन्यथा वह कमजोर ही होता रहेगा।

राजनेताओं के तमाम आदर्शवाद के दावे खोखले एवं बेबुनियाद साबित हुए हैं। पहले राजा रानी के पेट से पैदा होता था और अब मतपेटी से पैदा होता है। सभी अपने घोषणापत्रों एवं लुभावने वादों के जरिये जनता को जितना ठग सकते हैं, ठगते हैं। जनता को पांच वर्षों में अमीर बना देंगे, हर हाथ को काम मिलेगा, सभी के लिए मकान होंगे, सडक़ें, स्कूल-अस्पताल होंगे, बिजली और पानी होगा। जनता मीठे स्वप्न देखती रहती है। कितने ही चुनाव वादें किए जा चुके हैं पर यह दुनिया का आठवां आश्चर्य है कि कोई भी लक्ष्य अपनी समग्रता के साथ प्राप्त नहीं हुआ। जनता को गुमराह करने का सिलसिला निरन्तर जारी है।

एक बार फिर गुमराह करने का बाजार गर्म होने वाला है। 2019 के आम चुनाव से पहले अंतरराष्ट्रीय मार्केट रिसर्च एजेंसी इप्सॉस ने इस संबंध में एक रोचक सर्वेक्षण किया, जिसमें शामिल 56 प्रतिशत भारतीयों ने माना कि राजनेता आम जनता को अपनी बातों से भरमा लेते हैं। इस सर्वेक्षण को भारतीय जनमानस की प्रामाणिक राय भले न माना जाए, पर इसने राजनीति में उभर रहे एक संकट की ओर जरूर संकेत किया है। जाहिर है अब हर राजनेता अपनी बात लुभावने तरीके से कहना चाहता है। इसमें कुछ लोग जिम्मेदार हैं तो उससे कई गुना ज्यादा गैरजिम्मेदारी है। इससे आम आदमी दुविधा में पड़ जाता है कि वह किसे सही मानें और किसे गलत। कई बार वे तथ्यों की जांच नहीं कर पाते और राजनेताओं के झांसे में आ जाते हैं। भारत में अभी इस क्षेत्र में गलाकाट होड़ देखने को मिल रही है। पहले जहां मुद्दों पर सीधी बात होती थी, वहां अब सारा जोर दावे करने और सपने दिखाने पर है। नेतागण अपने तात्कालिक हित साधने के लिए कई ऐसी बातें कर देते हैं, जिनका कोई सिर-पैर नहीं होता। यह दिशा भ्रम भले ही आज उन्हें फायदा पहुंचा रहा हो, लेकिन अंतत: इससे लोकतंत्र कमजोर ही होता है।

नेतृत्व की पुरानी परिभाषा थी, सबको साथ लेकर चलना, कथनी-करनी की समानता, निर्णय लेने की क्षमता, समस्या का सही समाधान, लोगों का विश्वास, दूरदर्शिता, कल्पनाशीलता और सृजनशीलता। इन शब्दों को किताबों में डालकर अलमारियों में रख दिया गया है। नेतृत्व का आदर्श न पक्ष में है और न प्रतिपक्ष में। एक युग था जब सम्राट, राजा-महाराजा अपने राज्य और प्रजा की रक्षा अपनी बाजुओं की ताकत से लडक़र करते थे और इस कत्र्तव्य एवं आदर्श के लिए प्राण तक न्यौछावर कर देते थे। आज नारों और नोटों से लड़ाई लड़ी जा रही है, चुनाव लड़े जा रहे हैं सत्ता प्राप्ति के लिए। जो जितना लुभावना नारा दे सके, जो जितना धन व्यय कर सके, वही आज जनता को भरमा सकता है।

विश्वसनीयता वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में सबसे बड़ा प्रश्न बनती जा रही है। निरंतर विश्वसनीयता खोते राजनेता आज धूल में मिलती अपनी छवि के लिए स्वयं ही जिम्मेदार हैं। सत्तालोलुपता और धूप-छांव की तरह निरंतर बदलते चरित्र के लिए आखिर कौन जिम्मेदार हो सकता है? भारतीय राजनीतिज्ञों की विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह तो हमेशा ही लगते रहे हैं। संभवत: ऐसी परिस्थितियों के लिए आम जनता भी कम जिम्मेदार नहीं है। विकसित देशों में वहां के नागरिकों का सामना भी ऐसी स्थितियों से होता रहा है, लेकिन वे अपने विवेक से फैसला करते हैं कि किस चीज को सही मानकर उपयोग में लाना उनके लिए ठीक रहेगा। लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में, जहां शिक्षा और जागरूकता का स्तर एक-सा नहीं है, लोग खबरों और सूचनाओं के अनेक विकल्पों के बीच दुविधा में पड़ जाते हैं और राजनेताओं के झांसे में आ जाते हैं। वर्षों की राजनीति के बाद भी लगभग सभी राजनेता और राजनीतिक दल अपना एक स्थायी चरित्र, नीति विकसित करने में न केवल असफल रहे बल्कि सत्ता में बने रहने अथवा सत्ता के नजदीक रहने के लिए हमेशा ही बिन पेंदे का लोटा बने रहे।

तथाकथित राजनेता धुआंधार चुनाव प्रचार करते हुए अपने भाषणों में आमजनता को ठगने, लुभाने एवं गुमराह करने की कला का लोहा मनवाते रहे हैं। उन्होंने अपने भाषणों में केवल और केवल चुनाव जीतना ही अपना लक्ष्य रखा और अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए सारे नियम, कायदे, कानून और नैतिकता इत्यादि को भी दांव पर लगाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। यूं तो राजनेताओं की कथनी व करनी में अंतर का भारतीय राजनीति में लम्बा इतिहास रहा है, देश में राजनेताओं की ऐसी छवि बनना वाकई में लोकतंत्र का दु:खद पहलू है। आज राजनेताओं की कथनी व करनी में अंतर होना भारतीय राजनीति का स्थायी चरित्र व स्याह पहलू बन गया है। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में वर्ष 2014 के चुनावों में राजनेताओं के झूठे वादों व चालबाजियों का सिलसिला निश्चित ही काले अध्याय के रूप में याद किया जाएगा। लोकतंत्र में इन स्थितियों पर नियंत्रण की जरुरत है। इसके लिए वर्ष 2019 के आम चुनाव से पहले इसके लिए जागरुकता का माहौल निर्मित किया जाना चाहिए।

भारतीय राजनीति में झूठ-फरेब, धोखाधड़ी के बल पर सत्ता हासिल करने की स्थितियों का बने रहना चिन्ताजनक हैं। झूठी घोषणाएं एवं आम जनता को गुमराह करने की त्रासद स्थितियां भारतीय लोकतंत्र के चरित्र को धुंधलाते हैं। राजनेता चाहे पक्ष के हों या विपक्ष के, चुनाव के समय नियम-कायदों की परवाह किए बिना नैतिकता को ताक पर रखकर कोई भी चुनावी वादा कर देने के लिए कुख्यात हैं। चुनाव के दौरान किए गए इनके चुनावी वादों का तो कोई हिसाब भी नहीं रख सकता और इनकी कार्यप्रणाली से उन वादों का शायद दूर-दूर तक कोई तालमेल भी नहीं होता। इस बड़ी विसंगति से लोकतंत्र को मुक्त करने के लिए मतदाताओं को ही जागरूक होना होगा। राजनेताओं के इस कथनी व करनी में अंतर को पहचानना भारतीय आमजन को सीखना ही होगा। तभी राजनेता अपनी करनी को गंभीरता से लेंगे व अपनी कथनी व करनी में भेद रखने से परहेज करेंगे। जब तक राजनेता साम-दाम-दंड-भेद से येन-केन-प्रकारेण सत्ता पर कब्जा कर लेने को ही अपना अंतिम ध्येय मानते रहेंगे तब तक राजनीति में सुधार की कल्पना कर पाना भी मुश्किल है।

हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में अंतत: जनता ही सर्वोपरि है। उसे अपने मताधिकार का प्रयोग करने के पहले अपने विवेक एवं समझ को विकसित करना होगा और राजनेताओं की कथनी व करनी के अंतर पर पैनी निगाह रखते हुए सच्चाई की पहचान करना सीखना ही होगा, तभी लोकतंत्र मजबूत होगा। तभी देश भी विकास कर सकेगा और जनता का जीवन उन्नत हो सकेगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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