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श्रीमंत शंकरदेव के वृंदावनी वस्त्र को छिन्न-भिन्न करता शिवसागर कांड
आम असमिया समुदाय भी उस घटना से आहत है पर चुप्पी साधे बैठा है क्योंकि वह भी जानता है कि उसके ही समाज के उच्श्रृंखल लोग कभी भी उनके साथ में मारवाड़ी समाज का साथ देने के कारण बुरा व्यवहार कर सकते हैं।
Sivasagar Incident: श्रीमंत शंकरदेव की भूमि असम अपनी नामघर संस्कृति, अपने आध्यात्मिक साहित्य, एकशरणिया धर्म, सती जयमति के बलिदान के लिए जानी जाती है, उनके आविर्भाव के कारण पवित्र है। ऐसी भूमि पर शिवसागर की महिला एथलीट के साथ दुर्व्यवहार की घटना जो की निःसंदेह क्षोभनीय है। उस पर सभी प्रदेशवासी पीड़ा को महसूस कर रहे थे बशर्ते यह शिवसागर प्रकरण न हुआ होता और उसका इस तरह से समाधान नहीं निकल जाना चाहिए था। फौरी तौर पर निकाला गया यह समाधान क्या वाकई इस तरह की घटनाओं की पुनरावृत्ति नहीं होने देगा? कौन इस बात की जवाबदेही लेगा कि प्रदेश में महिलाओं और बुजुर्गों को फिर से यह समय नहीं देखना पड़ेगा।
इतिहास के पन्नों को जब पलटते हैं तो पाते हैं कि असम में निवास करने वाले प्रवासी मारवाड़ी समाज ने हमेशा से ही असम को अपनी मातृभूमि के समान समझा है। अपनी कर्मभूमि को मां यशोदा के समान सम्मान दिया है। मेरे जैसी बाहर के प्रदेशों से आई महिलाओं ने मूल रूप से राजस्थान का होने के बावजूद विवाह के बाद असम को ही अपना घर बना लिया है। हमारी जनरेशन जेड के लिए तो यही उनकी मातृभूमि है, यही उनकी जन्मभूमि, कर्मभूमि है क्योंकि उन्होंने तो इसी असम की आबोहवा में अपनी आंखें खोली हैं, पहली सांस ली है।
असमवासी बताने में गर्व करते हैं
जब हम असम के बाहर प्रदेशों में जाते हैं तो हम खुद को असमवासी होने का बताने में गर्व करते हैं, असमिया गमोछा को ससम्मान अपना प्रतीक बताते हैं और खुद को असमिया होने की पहचान दिखाने के लिए हम उस असमिया गमोछा को अपने साथ-साथ अन्य प्रदेशों में भी गले में डाले घूमते हैं। बिहू सिखते हैं और उसको अपने स्तर पर मनाते भी हैं। भले ही असमिया भाषा जाने या न जाने पर असमिया संस्कृति के भावों को ग्रहण भी करते हैं, तो उसको सम्मान भी देते हैं। इतना सब होने के बावजूद शिवसागर में बुजुर्गों और महिलाओं के साथ इस तरह का बर्ताव किया जाना हर मारवाड़ी के मन को उद्विग्न करने और पीड़ा पहुंचाने के लिए काफी है।
जिस प्रदेश में हम महिलाएं खुद को अपने गृह प्रदेशों से ज्यादा सुरक्षित और सम्मानित महसूस करती हैं क्योंकि असमिया संस्कृति महिलाओं को एक विशिष्ट स्थान देती है, वहां पर महिलाओं को घुटनों के बाल बिठाकर अगर माफी मंगवाई जाती है तो यह कृत्य वाकई अशोभनीय और निंदनीय है।
इस तरह घटना ने सामाजिक समरसता के उस वृंदावनी वस्त्र को छिन्न-भिन्न कर दिया है, जिसे श्रीमंत शंकरदेव ने उत्तर प्रदेश के वृंदावन और मथुरा से लाकर यहां राधा और श्री कृष्ण के प्रेम से और श्री कृष्ण की चरित्र कथा से रंग था। जिसे ओढ़ कर हम हिंदी भाषी असमिया समाज के साथ मिलकर श्रीमंतशंकर देव के बारे में पढ़ते हैं, उनको समझने का प्रयास करते हैं। इस घटना ने दोनों समाजों की महिलाओं के बीच भी एक अदृश्य अविश्वास की रेखा खींचने का काम कर दिया है, जो कि संग- साथ मिलकर सामाजिक कार्यक्रमों में भाग ले रहीं थीं।
आम असमिया समुदाय भी उस घटना से आहत है पर चुप्पी साधे बैठा है क्योंकि वह भी जानता है कि उसके ही समाज के उच्श्रृंखल लोग कभी भी उनके साथ में मारवाड़ी समाज का साथ देने के कारण बुरा व्यवहार कर सकते हैं। मारवाड़ी समाज की बड़ी संस्थाएं अपनी सामाजिक जिम्मेदारी निभाने में इतनी असफल कैसे सिद्ध हो सकती हैं कि इस घटना का इस तरह से पटाक्षेप हो? अब घर से बाहर जाते युवाओं और बच्चों को ताकीद की जा रही है किसी से भी उलझना मत, अपनी गलती न भी हो तो भी सॉरी कह कर पीछे हट जाना, बहस मत करना। क्यों हमें अपने बच्चों , युवाओं को इतना संभल कर रहने की हिदायतें देनी पड़ रही हैं? हमें उन्हें सभ्य बनाना है, शिक्षित, संस्कारवान बनाना है पर डरपोक तो नहीं बनाना। आम मारवाड़ी युवा वैसे भी शांत और समझदार ही होता है।
समाज को बचाने के लिए माफी
धन्य है शिवसागर की वे महिलाएं जिन्होंने समाज को बचाने के लिए घुटनों के बल बैठकर माफी मांगी। माफ कर देना और माफी मांगना बिल्कुल भी सहज स्वीकृति में नहीं आते हैं। और वह भी इस प्रकार सार्वजनिक तौर पर महिलाओं को माफी मांगने के लिए मजबूर कर देना यह तो किसी भी तरह से श्रीमंतशंकर देव की भूमि पर, उनके आदर्शों और उनके धर्म वाक्यों के संग -साथ चलने लायक नहीं है। वाकई आप बहुत साहसी और हिम्मती हैं, आपने मीरा की धरती का भी मान रखा है और सती जयमती की भी।
एक महिला के साथ दुर्व्यवहार पर दूसरी महिलाओं को घुटने टेक कर माफी मांगने पर मजबूर कर देना महिला सम्मान की बातें करने वालों को लज्जित करता है। क्या कर रही हैं हमारे समाज की महिला शाखाएं, हमारे समाज के छोटे-बड़े महिला संगठन, जो महिलाओं की किट्टी, महिलाओं के लिए अलग-अलग तरह की वेशभूषा, स्वांग प्रतियोगिताएं, खेलकूद प्रतियोगिताएं तो आयोजित कर रहीं होती हैं लेकिन जब वाकई महिला सम्मान की बात आती है तो उस पर मौन साधे बैठ जाती है।
अब घर से बाहर जाते समय यूं लगता है जैसे हर निगाह हमारे ऊपर ही है। कहीं हम कुछ गलती करें और उस बात का बतंगड़ खड़ा कर दिया जाए। ऐसा तो नहीं था पिछले दो दशकों से भी अधिक समय से मेरे द्वारा देखा गया असम का समाज। बल्कि उस समय भी नहीं जब यहां आतंकी घटनाएं पूरे असम को लहूलुहान कर रही थी। उस समय भी दोनों समुदायों के बीच का सामाजिक सद्भाव का वृंदावनी वस्त्र इतना कमजोर नहीं हुआ था कि महिलाओं और बुजुर्गों के साथ अपमानित व्यवहार करने पर उतर आए। क्या उन बुजुर्गों से हम आंखें मिलाने का साहस कर पाएंगे जिन्हें घुटनों के बल बैठकर माफी मांगने के लिए मजबूर किया गया? इस तरह की घटना से हमने अपने ही प्रदेश की छवि पूरे देश में दागी कर ली है। महसूस किया जा सकता है उन महिलाओं के दर्द को जो कि उन्हें उनके घरों में अंदर से कचोट रहा होगा। टकराव या प्रतिवाद या इस तरह का व्यवहार किसी भी समस्या का समाधान तो नहीं हो सकता।
क्यों हमारा समाज इतना सामाजिक तालमेल में बैठाने में पीछे रह गया है? वृहत्तर समाज तो बहुत दूर की बात है हम अपने ही समाज को एकजुट नहीं कर पाए हैं। ऐसी स्थिति की पुनरावृत्ति क्यों बार-बार होनी चाहिए या होती है? जब हमारे सामाजिक संगठन एक छत के नीचे नहीं आकर इस तरह से बिखरे हुए होते हैं तो उनकी एकजुट आवाज कहीं भी नहीं निकलती है। सांगठनिक एकता को मजबूत करने और असमिया समाज के साथ सकारात्मक संवाद की स्थिति बननी चाहिए। असमिया समाज को भी गैर असमिया समाज को अपने सहोदर के रूप में अपनाना चाहिए। तभी हम श्रीमंत शंकरदेव की भूमि पर असमिया - मारवाड़ी की सम्मिलित ज्योत जगाने वाले ज्योतिप्रसाद अग्रवाल जैसे सपूत पाएंगे।
अंशु सारडा अन्वि