लखनऊ: भारतीय राजनीति में नरेंद्र मोदी ऐसे राजनेताओें में हैं, जो एक तीर से कई निशाने साधते हैं। यही नहीं, वह सैन्य विज्ञान के उस सिद्धांत पर भी यकीन नहीं करते हैं, जिसमें कहा गया है कि एक समय कई मोर्चे लड़ाई के लिए एक साथ नहीं खोले जाने चाहिए। हालांकि मोदी कई मोर्चों पर एक साथ लड़कर भी जीतने की मिसालें पेश कर चुके हैं। पर पश्चिम बंगाल चुनाव के नतीजों ने नरेंद्र मोदी को सोचने को मजबूर कर दिया है। नतीजों ने यह चेताया है कि अब रणनीति बदलने का समय है। एक ही रणनीति से हर जमीन पर जंग नहीं जीती जा सकती है। एक साथ कई फ्रंट पर नहीं लड़ना चाहिए। क्योंकि एक तीर से कई निशाने साधने वाले नरेंद्र मोदी को यह भी सबक मिला है कि वह केवल पश्चिम बंगाल में मैदान हार कर कई तरफ से घिर गये हैं।
उन्होंने चुनावी हार से अपने दो मजबूत विरोधियों को ताकत दे दी। संजीवनी दे दी। जिस तरह भाजपा ने नाहक पश्चिम बंगाल के चुनाव को प्रतिष्ठा से जोड़ा, उससे ममता बनर्जी ही नहीं, प्रशांत किशोर भी बहुत मजबूत हुए। मोदी के काउंटडाउन के लिए एक कुशल रणनीतिकार व एक चेहरे की दरकार थी। दोनों एक ही जगह, एक ही साथ, एक ही चुनाव में मिल जायेंगे व जुट जायेंगे। ऐसा भाजपा व उसके रणनीतिकारों ने सोचा तक नहीं होगा। प्रशांत किशोर को लेकर चाहे जितने तरह की स्वहितपोषी टिप्पणियां की जायें पर 'भाजपा तीन अंकों में प्रवेश नहीं कर पायेगी' यह ट्विट करना उस समय बड़े खतरे का काम था, जब नतीजे बहुत दूर थे, जब पूरी भाजपा के लिए चुनाव नाक का सवाल हो, जब साम, दाम , दंड, भेद सब इस्तेमाल करने में भाजपा जुटी हुई हो। जब केंद्रीय चुनाव आयोग 'केंचुआ' की भूमिका में आ गया हो।
जब भाजपा के चाणक्य अमित शाह व पार्टी के दूसरे नेता पश्चिम बंगाल में अपने लिए 170 सीटें देख रहे थे। प्रशांत किशोर ने जो कहा वही हुआ। अभी तक मोदी के सामने अरविंद केजरीवाल चुनौती व चेहरा नजर आ रहे थे। पर दिल्ली के छोटे राज्य होने व केंद्र के पास दिल्ली सरकार के कई अधिकार होने के नाते अरविंद केजरीवाल को 'कट टू साइज' करने में भाजपा सफल होती रही है। लेकिन ममता बनर्जी के साथ ऐसा संभव नहीं है। ममता व प्रशांत किशोर एक और एक ग्यारह बनते हैं। प्रशांत किशोर का आई पैक छोड़ने को महज एक सूचना के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए। 2014 के नरेंद्र मोदी के चुनाव के वह रणनीतिकार व प्रचार प्रमुख रहे हैं।
लगातार रणनीतिक चूक होती रही
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सपा गठबंधन के बाद असफलता का कोई दूसरा पन्ना उनकी किताब में नहीं जुड़ता है। नि: संदेह वह मोदी को हराकर अपनी शोहरत ऊंची करना चाहेंगे। वह चाहेंगे कि मोदी के 2014 का चुनाव जीतने की एक बड़ी वजह वह भी थे, इसे साबित कर सकें। यह सब जानते समझते हुए भी मोदी के रणनीतिकार बंगाल चुनाव को नाक का सवाल क्यों बना रहे थे, जबकि बंगाल चुनाव के नतीजों का असर केंद्र पर नहीं पड़ने वाला था। बंगाल भाजपा का शक्ति केंद्र भी नहीं रहा है। वहां कभी भाजपा की सरकार नहीं रही है। इसके साथ ही लगातार रणनीतिक चूक होती रही। की जाती रही।
मसलन, धार्मिक आधार पर जबरदस्त ध्रुवीकरण करने के चलते उदार हिंदू व मुस्लिम वोटरों में एकजुटता का अवसर मिला। महिला वोटरों का समर्थन जुटाने में कामयाबी नहीं मिली। लेफ्ट और कांग्रेस के वोटर का साथ नहीं मिला। तेल व गैस की बढ़ती कीमतें भारी पड़ीं। बंगाल में कोरोना संक्रमण के लिए ममता द्वारा भाजपा नेताओं को जिम्मेदार ठहराया जाना लोगों के गले आसानी से उतरा। बंगाली अस्मिता का सवाल उठाने में ममता कामयाब रहीं। भाजपा बाहरी मानी गयी। भाजपा का टीएमसी के बागियों पर जरूरत से ज्यादा भरोसा करना, तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी के खिलाफ मुख्यमंत्री पद के लिए कोई चेहरा न होना, भाजपा के पिछड़ने के पीछे प्रत्याशियों के चयन में गड़बड़ी भी बड़े मुद्दे बने।
भाजपा ने पश्चिम बंगाल की राजनीति में तृणमूल कांग्रेस के जिन बागियों और दागियों पर दांव लगाया उसने पार्टी के कैडर को नाराज कर दिया जो कि लंबे समय से पश्चिम बंगाल में पार्टी की नींव मजबूत करने में लगे थे। इस चुनाव में पार्टी का टिकट मिलने का इंतजार कर रहे थे। भाजपा की रणनीति को विफल करने में कांग्रेस और वामपंथियों ने अहम भूमिका निभाई। उन्होंने अपना नुकसान करके कथित धर्मनिरपेक्ष मतों का बंटवारा नहीं होने दिया। भाजपा को पीछे करने में उसके कुछ बयानवीर नेताओं की भी भूमिका कम नहीं रही। बयानबाजी ने भी लोगों को नाराज करने में अहम भूमिका निभायी जिसमें उन्होंने व्यक्तिगत आक्षेपों और अपमानित करने वाले जुमलों का सहारा लिया। मतदाताओं के मन में कहीं न कहीं ममता के सुशासन की स्वीकारोक्ति का भी भाव था, जिसके चलते पिछली बार के मुकाबले टीएमसी की सीटें बढ़ीं। ममता का मंदिर जाना और चंडी पाठ ने मुस्लिमपरस्त ममता के आरोपों की हवा निकाल दी।
चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस हाईकमान की मुसीबतें और बढ़ा दी
पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजों ने कांग्रेस हाईकमान की मुसीबतें और बढ़ा दी हैं। असम, केरल और पुडुचेरी में मिली चुनावी हार और पश्चिम बंगाल में पार्टी का सफाया होना पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है। असम और केरल में कांग्रेस को जिताने के लिए राहुल और प्रियंका ने काफी मेहनत की थी मगर इन दोनों राज्यों में पार्टी अच्छा प्रदर्शन करने में नाकामयाब रही।
चुनावी नतीजों से पार्टी में नेतृत्व का संकट और गहराने के आसार पैदा हो गए हैं। यह भी माना जा रहा है कि असंतुष्ट खेमा नेतृत्व को एक बार फिर निशाना बना सकता है। अब सबकी नजर इस बात पर टिकी हुई है कि पार्टी नेतृत्व लगातार मिल रही शिकस्त से पैदा होने वाले संकट से कैसे निपटता है।
केरल के नतीजे राहुल गांधी के लिए इसलिए भी बड़ा झटका माने जा रहे हैं, क्योंकि वे केरल की वायनाड सीट से ही सांसद हैं। उन्होंने केरल की चुनावी जंग जीतने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी। केरल से कांग्रेस नेतृत्व बड़ी उम्मीदें लगाए बैठा था। छोटा राज्य होने के बावजूद राहुल ने केरल में ही सबसे ज्यादा रैलियां और रोड शो किए थे। लेकिन उनकी मेहनत का कोई नतीजा केरल से नहीं निकल सका।
केरल के अलावा असम में राहुल और प्रियंका ने चुनाव जीतने के लिए काफी मेहनत की थी। कांग्रेस नेतृत्व ने यहां छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को चुनावी प्रबंधन की जिम्मेदारी सौंप रखी थी। प्रियंका गांधी ने असम में चुनाव प्रचार की कमान अपने हाथों में संभाल रखी थी। उन्होंने चाय बागानों का दौरा व मजदूरों के साथ संवाद भी किया। कांग्रेस ने यहां बदरुद्दीन अजमल की एआईयूडीएफ के साथ गठबंधन करके चुनाव जीतने का सपना पाल रखा था ।
दक्षिण के प्रमुख राज्य तमिलनाडु में कांग्रेस पूरी तरह द्रमुक के रहमोकरम पर थी। पार्टी यहां द्रमुक नेतृत्व से अधिक सीटों की मांग कर रही थी मगर द्रमुक नेतृत्व ने सीधे तौर पर कांग्रेस की मांग को खारिज कर दिया था। राज्य में अपनी कमजोरी स्थिति के कारण कांग्रेस ने द्रमुक नेतृत्व के कड़े फैसले की भी अनदेखी करना ही उचित समझा। कांग्रेस यहां अन्नाद्रमुक और भाजपा गठबंधन के न जीतने पर खुश हो सकती है मगर सच्चाई यह है कि यहां भी पार्टी के खुश होने की कोई वजह नहीं दिख रही।
पुडुचेरी में कांग्रेस और द्रमुक का गठबंधन रंगास्वामी की लोकप्रियता के सामने कहीं नहीं ठहर सका। कांग्रेस ने अपने निवर्तमान मुख्यमंत्री वी नारायणसामी को टिकट तक नहीं दिया था। कांग्रेस के कुछ विधायकों के पाला बदल लेने के कारण चुनाव से सिर्फ एक महीने पहले नारायणसामी की सरकार गिर गई थी। मोदी लहर के बावजूद पुडुचेरी में अंतिम समय तक कांग्रेस की सरकार रही। वहां भी पार्टी को इस बार हार का मुंह देखना पड़ा है। बंगाल समेत राज्यों में कांग्रेस की हार भी भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं कहीं जायेगी क्योंकि एक तो भाजपा के लिए कांग्रेस को पराजित करना ज़्यादा आसान होता है। दूसरे कांग्रेस को यह आसानी से समझ में आ जाना चाहिए कि उसके यहां मौजूद राहुल व प्रियंका से ज्यादा लोकप्रिय चेहरा ममता बनर्जी का है।
अड़तालीस फीसदी वोट पाने वाली देश की दूसरी नेता हैं ममता
मोदी के करिश्माई व्यक्तित्व व भाजपा की आज की सांगठनिक ताकत को हराने का माद्दा ममता के पास है। वह अड़तालीस फीसदी वोट पाने वाली देश की दूसरी नेता हैं। इससे पहले यह अवसर इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए चुनाव में राजीव गांधी के हाथ लगा था। तब सहानुभूति थी। पर ममता के साथ स्थितियां धुर उलट रहीं। इसलिए वह यूपीए में नये दलों व नये चेहरे के लिए जगह बना सकती हैं। क्योंकि कांग्रेस के लिए नरेंद्र मोदी को पराजित करने के लिए किसी को आगे करने की रणनीति लंबे समय के लिए फायदेमंद हो सकती है। कांग्रेस चंद्रशेखर जी के साथ यह प्रयोग कर भी चुकी है। इसी खतरे से बचने के लिए भाजपा को खुद को तैयार करना चाहिए। भाजपा अपने पीक पर पहुंच चुकी है। पीक पर टिके रहने के लिए दो चीजें 'अनिवार्य' होती हैं। सेवा और विनम्रता। अन्यथा फिसलन शुरू हो जाती है। बंगाल इसी बात का संदेश है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)