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जहां बेटी की विदाई में रोते हुए गाया जाता है
नई दिल्ली: कई कारणों से मिथिला की संस्कृति त्रेता युग से ही चर्चा में रही है। यह मिथिला की बेटी जगत-जननी सीता का जन्मस्थल है। सीता का दूसरा नाम 'मैथिली' भी है जो वहां की भाषा है, जिसे संविधान की आठवीं अनुसूची में जगह और भारतीय भाषा के रूप में पहचान अटल जी के प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल में दी गई।
मिथिला मुख्य रूप से अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए जाना जाता है और यहां की पारिवारिक संरचना तथा उसके भीतर रिश्तों का मिठास कुछ इस प्रकार का है कि सदियों से तमाम तरह के भावनात्मक सांस्कृतिक परंपराओं को सहेजा गया है।
यहां बेटी का स्थान सर्वोपरि है, बेटी के प्रति ऐसा अनुराग प्रेम शायद ही कहीं देखने को मिलेगा। यही कारण है कि बेटी जब शादी के बाद अपने ससुराल जाती है, जिसे 'द्विरागमन' कहते हैं। इसके पहले कई अनुष्ठान होते हैं, जो सीधे तौर पर बेटी के प्रति उसके मां-बाप, भाई-बहन, परिवार के अन्य सदस्य तथा आस-पड़ोस आदि के प्रेम को प्रदर्शित करता है।
विदाई के कुछ महीनें पहले से हीं आस-पड़ोस के लोग बेटी को अपने घर खाने पर आमंत्रित करते हैं और उसे उसके पसंद का खाना बनाकर खिलाते हैं। यह कार्यक्रम विदाई के दिन तक जारी रहता है।
इस विदाई दिन से पहले तक आस-पड़ोस के लोग डिशेज बना कर लाते हैं, जिसे 'खैक' कहते हैं। इसमें तरह-तरह का पसंदीदा व्यंजन होता है, उन्हें ऐसा लगता है कि न जाने फिर कब बिटिया रानी आएगी और हमारे हाथ का खाना उसे नसीब होगा। इस खैक को देख कर बेटी अपने परिवार वालों से दूर होने के गम में रुआंसा हो उठती है।
खैक को देखते ही उसे एकाएक याद हो आता है कि अब तो उसे अपने मायके को छोड़ कर ससुराल जाना ही पड़ेगा और वहां तो इतना प्यार, इतना अपनापन शायद ही नसीब होगा।
बेटी को विदा करने का दिन पहले से तय होता है। यह काम पंडितजी करते हैं। पंडितजी पांचांग देखकर शुभ दिन तय करते हैं। इस पांचांग को क्षेत्रीय भाषा में पतरा कहते हैं। इसे देखकर मुहूर्त तय की जाती है कि किस दिन बेटी को पिता के घर से ससुराल जाना है।
बेटी की विदाई का ²श्य काफी भाव-विहिल करने वाला, बहुत ही मार्मिक होता है। परिवार का और जान-पहचान का हर कोई सदस्य अपनी बिटिया रानी को मायके से विदा करने के लिए आता है। बिटिया रानी को विदा करते समय सब इस कदर फूट-फूट कर रोते हैं, मानो कोई छोटा बच्चा अपने खिलौने को खुद से दूर कर रहा हो।
रोते समय अक्सर मुंह से निकलने वाले शब्द गाने की तरह प्रतीत होते हैं। मुंह से निकलने वाला हर एक शब्द बताता है कि वह अपनी बेटी से कितना प्यार करता है और बेटी भी अपने मां-बाप से कितना प्यार करती है। इस रुदन-गान की बोली कुछ ऐसी प्रतीत होती है- "माय गइ माय! तोरा बिनु कोना रहबै गइ माय, बाबूजी के मोन पाड़ैत रहियहुन गय माय।"
गाने के भाव कुछ इस तरह हैं-बेटी मां से कहती है कि वह जहां पली बढ़ी उस जगह को छोड़कर ससुराल में कैसे रह सकती हैं, वह मां से गुहार करती हैं कि मां, पिता को याद दिलाना उनकी बेटी अब कहीं और बसने जा रही है, लेकिन बेटी को याद करना अभी भी उनका कर्तव्य है।
इस विरह गान के समय रोते-रोते बहन अपने छोटे भाई को आशीर्वचन देती हैं जो इस प्रकार हैं कि "बौआ-रौ-बौआ! के नहेतौ केस नै टूटौ रौ बौआ।" इसके भाव कुछ इस प्रकार है कि वह ईश्वर से अपने छोटे भाई की सलामती की दुआ करती है, वह कहती है कि उसका बाल भी बांका न हो। वह अपनी दादी, मां, चाची आदि के गले से लिपटकर रोते हुए कहती है- "काकी-यै-काकी! कोन बोन क' द' देलियै यै काकी।"
बेटी अपने चाचा, पापा व अन्य सगे-संबंधियों के पांव छूकर आशीर्वचन लेती है। इस आशीर्वचन के समय भी रुदन-गान रुकता नहीं है। बिछुड़न का यह ²श्य हृदय विदारक होता है रोते हुए गाना या वियोग में रुदन करना लोक परंपरा में हमेशा से प्रचलित रहा है, अंग्रेजी में 'ओपेरा' भी कुछ इसी तरह का गीत रूप है। 'ओपेरा' के भाव भी विरह के भाव होते हैं।
धन्य है मिथिला, जहां प्रेमभाव पारिवारिक जिंदगी का एक अभिन्न हिस्सा होता है, इसका अनुभव मिथिला जाकर ही किया जा सकता है। तो आइए, मिथिला उसकी सांस्कृतिक विरासत से रूबरू होने और करुणा के सागर को नजदीक से देखने।
(लेखक डॉ. बीरबल झा, ब्रिटिश लिंग्वा के प्रबंध निदेशक व मिथिलालोक फाउंडेशन के चेयरमैन हैं)
--आईएएनएस