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Motivational Story: लौटना नहीं स्वीकार मुझे
Motivational Story:अगर हम अपने क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हैं, आगे बढ़ रहे हैं तो सबसे ज्यादा जरूरी है कि खुद की राह में खुद के लिए ही सही राय बनाना यानी आत्मविलोकन सबसे ज्यादा जरूरी है
Motivational Story: 'रस्ते कहां-कहां ले जा सकते हैं। अगर एक कोण, एक राह ही हो तो बात शुरू हुई कि खत़म। पर नहीं, राहें उलझतीं हैं तभी नए क्षितिज खुलते हैं।'
बुकर पुरस्कार से सम्मानित गीतांजलि श्री की यह पंक्तियां मुझे अपने लेखन की उलझी हुई राहों और उसकी वर्तमान स्थिति की ओर इंगित करती हुई लगती हैं। अगर हमारा जीवन एकसार, एक समान, एक ही तरह से चलता रहे तो वह उदासीन हो जाता है। लेकिन अगर उसमें ठोकरें आती हैं, उसमें अवरोध आते हैं ,रास्ते में उलझाव आते हैं तभी हम किसी और रास्ते की तलाश करते हैं और अगर ऐसा नहीं होता तो यह लेखन एक चुनौती के रूप में शुरू न होता। कभी-कभी यह सोचने बैठती हूं कि मेरे प्रति दूसरों की धारणा सही है या गलत, पर शायद यह एक अहंकारी प्रवृत्ति होगी खुद इस तरह से तोलना। उस पर खुद को ही विचार कर लेना चाहिए खुद को समय देकर।
अगर हम अपने क्षेत्र में आगे बढ़ना चाहते हैं, आगे बढ़ रहे हैं तो सबसे ज्यादा जरूरी है कि खुद की राह में खुद के लिए ही सही राय बनाना यानी आत्मविलोकन सबसे ज्यादा जरूरी है और यही किसी भी क्षेत्र में आगे बढ़ने की सफलता का सूत्र है, आत्मविलोकन करना और अपने आप पर भरोसा रखना। लेखन के लिए कला भी मायने रखती है। अगर हमारा दिमाग कला से जुड़ा है, कला का अर्थ सिर्फ रंग और ब्रश से नहीं बल्कि किसी भी कला से है फिर वह चाहे मूर्ति कला हो, बागवानी हो, नृत्य हो, पाककला हो, संगीत हो, घुमक्कड़ी हो, फोटोग्राफी हो, कोई वाद्य यंत्र बजाना हो, किसी भी तरह के खेल (मोबाइल गेम्स नहीं) हो तो यह हमारे दिमाग को बिना खोए भटकने की आजादी देते हैं। और भटकना आवश्यक है मन का...... तलाश के लिए पर खुद को बिना खोए। क्योंकि जब हमारे विचार ही खो जाएंगे तो कुछ भी नहीं है हमारे पास। पर कुछ नया पाना है तो तलाशते रहना होगा, भटकना होगा, हर अच्छी बुरी चीज को उघाड़ कर देखते रहना होगा, उसमें रमना नहीं है, उसमें से निकलना है।
देखा है न सुबह-सुबह कचरे के ढेर से अपने लिए जरूरी चीजों को ढूंढते रहने वालों को। क्या वे कचरे के ढेर में खुद को खो देते हैं? नहीं, अपनी जरूरत की चीज निकाली और आगे बढ़ गए और भटकने के लिए।मुंशी प्रेमचंद ने कहा है कि -लिखते वह लोग हैं जिनके अंदर कुछ दर्द है, अनुराग है , लगन है, विचार है। जिन्होंने धन और भोग विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया है, वो क्या लिखेंगे। दर्द-अनुराग होना एक बात है पर उसके लिए लगन और विचार होना एक और बात । उसी तरह से विचार होना एक बात है उसके प्रति दर्द, अनुराग, लगन होना एक दूसरी बात। लिखना एक बात है पर इन सब का मेल होकर लिखना एक और बात। तो आज स्वयं को तोलने का समय है मेरे लिए कि जमीन के किस टुकड़े पर मैं खड़ी हूं और क्या वह मेरा मजबूत धरातल है? एक सामान्य रूप में हमें अपने बारे में स्वयं विचार करना चाहिए कि क्या लेखन हमारे लिए एक ऐसी आदत है जिसके बगैर हम खुश रह सकते हैं या जीवन में स्वतंत्रता का अनुभव करते हैं तो लेखन आपका क्षेत्र नहीं है ।
मेरे अनुसार लेखन में न लिख पाने का दर्द होना चाहिए और लिखना ही स्वतंत्रता का अनुभव कराने वाला होना चाहिए, लुत्फ देने वाला होना चाहिए । सच यही है कि जब हम वर्तमान को महसूस करने लग जाते हैं तो हमारा ध्यान नहीं भटकता है, बस खुद के साथ बने रहना जरूरी है कि हम यह कर सकते हैं। छोटे-छोटे लक्ष्य, खुली आंखें और दिमाग और सबसे बढ़कर सुहृदय पाठक वर्ग का साथ मिले तो लेखक खुद-ब-खुद लिखने के लिए तत्पर हो जाता है।
शुरुआत और उम्मीद की बात करनी चाहिए। प्रेमचंद की एक बात हमेशा याद आती है कि जिस दिन कुछ न लिख लूं मुझे रोटी खाने का कोई हक नहीं । इसका अर्थ मेरे लिए सिर्फ लिखने से नहीं बल्कि लिखने और पढ़ने दोनों से समान है। लिखने के लिए पढ़ना भी उतना ही जरूरी है जितना लिखना क्योंकि पढ़ना ही लिखने का आधार तैयार करता है। भविष्य को लेकर निराशा या नकारात्मकता लेखन पर बहुत प्रभाव डालती है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि हम रिलैक्स हो जाएं। कोई भी काम करने के लिए तनाव लेना जरूरी है और लिखने के लिए तो विशेष कर। अगर तनाव नहीं रहेगा तो रचनाओं में गहराई भी नहीं आ पाएगी।
एक गायक अगर लंबे समय तक रियाज न करें तो वह गाना भूल जाएगा और दोबारा इसकी शुरुआत करने के बाद भी उस पर पहले जैसी पकड़ नहीं रख पाएगा। यही लेखक के साथ होता है निरंतरता, नियमितता आवश्यक होती है लेखन में भी। एक बार अगर कलम को खुद से दूर कर दिया तो फिर हाथ में लेना मुश्किल हो जाता है ।कलम को अपने अधिकार में करें या खुद कलम के अधिकार में हो जाएं क्या फर्क पड़ता है ? बस अहं किसी भी बात का नहीं होना चाहिए, कलम पर अपने अधिकार का तो बिल्कुल भी नहीं।
कोई मुझसे पूछता है कि कब लिखती हो तो वह समय वाकई कभी भी, खुद-ब-खुद आ जाता है, निकाला जाता है, आ सकता है या कभी-कभी निकल जाता है। कभी-कभी संपादक का दवाब भी लिखने का आलम्भ बन जाता है और मेरे लिए तो यह दवाब उत्प्रेरक का काम करता है। कागज और पेन आज भी मेरे लिखने के भरोसेमंद साथी हैं क्योंकि उनके साथ काम करना मुझे अधिक अपना लगता है। वह अलग बात है कि अब हस्तलिपि पहले के समान मोती जैसी न रह कर जिंदगी के समान बिखरी हुई हो गई है। लेखन में नवीनता, स्वाभाविकता और विश्वसनीयता होना आवश्यक है। एक ही विषय सभी के सामने होने पर भी उस पर नजरिए की नवीनता वाले विचार ज्यादा आकृष्ट करते हैं, अचंभित करते हैं हमेशा। इसलिए लेखन में हमेशा नवीनता होनी चाहिए। पाठकों का साथ पाने के लिए पठनीयता का होना जरूरी है। लेखन के इस सफर में कई तरह के पाठकों से राब्ता पड़ता है।
अधिकांश ने लिखे को सराहा और आटे में नमक जितनी मात्रा में ऐसे पाठक भी मिले जिनकी कसौटी पर खड़ा उतरना हमेशा ही चुनौती रहा। वे पाठक इस तरह के रहे जिनकी आवश्यकता खाने के स्वाद को बढ़ाने के लिए आवश्यक है। क्योंकि प्रत्येक पाठक की प्रवृत्ति और नजरिए में भी अंतर होता है और पाठक केवल प्रतिक्रिया ही नहीं देते बल्कि हस्तक्षेप भी रखते हैं लेखक पर और यह हस्तक्षेप नहीं हो तो इस लेखनी का विकास नहीं होगा ।
इस प्रकार का हस्तक्षेप भी खुद को सतर्क रखता है। बहरहाल कुछ आपबीती और कुछ जगबीती का सार यही है कि लिखना किसी भी तरह से विचारों की आवारागर्दी नहीं होता है बल्कि यह विचारों का संतुलन बना उसको एक सुंदर ढांचे में गढ़ना होता है जो पढ़ने वाले को बौद्धिक संतुष्टि दे। लिखने की भूख होनी चाहिए, लेकिन भूखा व्यक्ति भी कुछ भी खा ले ऐसा नहीं होना चाहिए। अच्छा और तृप्त करने वाले खाना ही किसी की भी क्षुधा को शांत करता है। वैसे ही कुछ अच्छा लिखना , यह ही मेरी क्षुधा को शांत करने का प्रयास होता है । रामधारी सिंह दिनकर की यह पंक्तियां मुझे अत्यंत प्रिय हैं, वह अंत में साझा करती हूं-
'ले लील भले यह धार मुझे
लौटना नहीं स्वीकार मुझे'