Startups Fail in India: एक नई खेती, स्टार्टअप की

Startups Fail in India: जब कोई वास्तविक स्टार्टअप करने को कदम आगे बढ़ाएगा। लेकिन सरकारी दफ्तरों, फाइलों, बाबूगीरी, कमीशन और सुविधा शुल्क के महाभारती चक्रव्यूह में फंस जाएगा।

Yogesh Mishra
Published on: 9 April 2025 7:01 PM IST
Why Startups Fail in India
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Why Startups Fail in India 

Startups Fail in India: स्टार्टअप। एक बड़ा नायाब बिजनेस मंत्र। आज इसी मंत्र की धूम है। जिसे देखिए स्टार्टअप में लगा हुआ है। चाय-बिस्किट की दुकान से लेकर घर बैठे खाना और नाई पहुंचाने तक। सब स्टार्टअप है। नए धंधे को जिसे पहले बिजनेस या दुकानदारी कहते थे, उसे अब शालीनता से इज़्ज़त बख्शते हुए स्टार्टअप पुकारा जाने लगा है, कम से कम हमारे मुल्क में।

स्टार्टअप में लगना अच्छी बात है या बुरी।यह निर्णय तो ये काम करने वाला या न करने वाला आप के हिसाब से कर सकता है। वैसे भी, हम नौकरीपेशा मुल्क हैं। कुछ न करना या नौकरी करना या फिर नेतागीरी करना यही हमारी रवायत है। खेती करने वालों को छोड़ दीजिए, उनकी अलग ही कहानी है।

खैर, इन सबसे इतर जो चीज निकली वो थी सेल्फ एम्प्लायमेंट, जिसका फलक भी इतना लंबा चौड़ा हो गया कि उसमें पकौड़ा तलने से लेकर बीमा बेचने तक अनगिनत काम शामिल हो गए। लेकिन देश सिर्फ इससे आगे नहीं बढ़ता। सो एक नया अलम लाया गया जिसका नाम था स्टार्टअप। इसका कोई हिंदी तर्जुमा नहीं बना है। क्यों नहीं है, यह भी एक शोध का विषय हो सकता है। ठीक उसी तरह जैसे स्मार्ट सिटी का हिंदी तर्जुमा। सोचेंगे तो ऐसे कई शब्द निकल आएंगे।


बहरहाल, स्टार्टअप शब्द हमने अपनाया भले ही है ।लेकिन ये कोई हमारी ईजाद तो है नहीं। डिक्शनरियाँ कहती हैं कि सन 1300 से यह शब्द प्रचलन में है। लेकिन तब ये धंधे से नहीं जुड़ा था। बल्कि अचानक तंद्रा से जाग जाने को स्टार्टअप कहा जाता था। इसे ऐसे सोचिए, आराम से घास चर रहा घोड़ा अचानक हड़बड़ा के कुलांचे मारने लगे। बस वही है स्टार्टअप।

लेकिन सन पच्चीस में न घोड़ा है और न घास। आज की डिक्शनरियाँ कहती हैं कि अर्थव्यवस्था के चक्के को रफ्तार देने का सूत्र है स्टार्टअप। कुछ नया और ऐसा काम जो हलचल मचा दे, दुनिया को बदलने निकले, समाज को कुछ ऐसा देने चले जिसकी उसे ज़रूरत है लेकिन अभी तक नहीं बना है।

यह चाय की टपरी से कहीं दूर की बात है। सोते हुए को जगाने की बात है कि चलो, जो सपना देख रहे थे उसे पूरा करने निकल पड़ो। लेकिन अफसोस, यहां तो हर कोई सरकारी नौकरी का सपना देख रहा है सो कैसे का स्टार्टअप? ये तंद्रा टूटे तब न इनोवेशन की बात हो। तंद्रा टूटे भी तो कैसे जब पूरी पढ़ाई लिखाई, कलम घिसाई और रट्टाबाजी पर फोकस्ड है। रटो और टीचर बन जाओ चाहे आईएएस बन जाओ। और आगे बढ़ना है तो रट्टा - फट्टा, कलम वलम भूल जाओ और नेता बन जाओ।


बहरहाल, बात स्टार्टअप की है। स्टार्टअप से ही तरक्की होगी, अर्थव्यवस्था बढ़ेगी, वैसे ही जैसे चीन - अमेरिका में हुई जहां एक समय के स्टार्टअप आज खरबों डॉलर के बिजनेस साम्राज्य बने हुए हैं। लेकिन हम? स्टार्टअप के नाम पर बिक क्या रहा है - ऑनलाइन डिलीवरी का काम। खाना मंगाओ, सब्जी राशन मंगाओ। कपड़े जूते मंगाओ। घर बैठे हर चीज मंगाओ। नित नए प्लेटफॉर्म आ रहे हैं। सब स्टार्टअप हैं जो लाखों युवाओं को डिलीवरी मैन बना के स्टार्टअप महाकुंभ का अमृत चख रहे हैं।

सरकार को अब इसमें मज़ा नहीं आ रहा। बड़े मंत्री ने पूछ भी लिया है कि क्या सिर्फ दुकान ही खोलते रहोगे कि कुछ इनोवेट भी करोगे? चीन की मिसाल दे दी गई है। चीन में ये हो रहा है, चीन में वो हो रहा है। उन्होंने रील्स बनाने वाले ई फ्लुएंसरों को भी स्टार्टअप के नाम पर धब्बा करार दे दिया। बात सही ही है। स्टार्टअप के नाम दुकानें ही तो चल रही हैं, रील्स ही तो बन रही हैं। इनोवेशन है कहाँ?सरकार 2016 से चला रही है स्टार्टअप इंडिया प्रोग्राम। अब तक डेढ़ लाख से ज्यादा स्टार्टअप पहचाने गए हैं। 10 हजार करोड़ का फण्ड इसके लिए रखा हुआ है। 16 लाख नौकरियां बनाने का दावा है। लेकिन जहां फोकस होना चाहिए था वहां नदारद है। चीन की तरह न इलेक्ट्रिक गाड़ियों, बैटरियों के स्टार्टअप हैं न एआई और इंजीनियरिंग।स्टार्टअप के नाम पर कहीं मैन्युफैक्चरिंग नज़र आती है आपको? कोई एआई रिसर्च नज़र आती है? ईवी में कुछ नज़र आता है? नहीं। स्टार्टअप के नाम पर नज़र आता है वही सर्विस प्रोवाइडर का काम।

दोष किसको देंगे? जब हम साल भर में 1.1 लाख करोड़ घंटे फोन पर ही बिता देंगे, जब एआई हमारे लिए फोटो बनाने का शगल होगा, इंटरनेट मात्र मनोरंजन का जरिया होगा। तब उस मंजर में इनोवेशन और आईडिया की जगह ही कहाँ होगी? जब स्कूलों में फोकस सिर्फ परीक्षा पास करने पर होगा, जब जिज्ञासा और सवाल बेअदबी माने जाएंगे तब इनोवेशन पैदा कैसे होगा? ग़ौरतलब है कि स्टार्टअप में अब तक

जब कोई वास्तविक स्टार्टअप करने को कदम आगे बढ़ाएगा । लेकिन सरकारी दफ्तरों, फाइलों, बाबूगीरी, कमीशन और सुविधा शुल्क के महाभारती चक्रव्यूह में फंस जाएगा । तब कैसा स्टार्टअप और कहां का स्टार्टअप? चीन से तुलना करने वाले लोग जरा वहां के समाज, सिस्टम और तौर तरीकों की भी तो तुलना करें। जरा ये भी बताएं कि एक स्टार्टअप को कितना समय, ऊर्जा और पैसा सिर्फ सरकारी लिखापढ़ी में लगाना पड़ता है।

असलियत तो ये है कि यहां तो निवेश लाने के महकमे के मुखिया ही कमीशन लेने में पड़े हुए हैं, ऐसे में कोई स्टार्टअप आएगा ही क्यों? जब हम ही रील्स बना कर फकत अर्थहीन मनोरंजन करने वाले इंफ्लुएंसरों और रील्स बनाने वालों को अवार्ड देने लगेंगे, जब स्किल डेवलपमेंट के नाम पर ब्यूटी पार्लर और सिक्योरिटी गार्ड की ट्रेनिंग देने लगेंगे, तब एआई और ईवी किसी और यूनिवर्स की बात होगी। हम तो ईवी के नाम पर सड़कों पर लुढ़कते ई रिक्शा में ही अभी उलझे हुए हैं। इस मकड़जाल से निकलें तब तो हो स्टार्टअप की बात।

(लेखक पत्रकार हैं।)

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