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महिलाओं की प्रतिभा को उचित सम्मान मिले
डॉ. नीलम महेन्द्र
समय निरंतर बदलता रहता है, उसके साथ समाज भी बदलता है और सभ्यता भी विकसित होती है। समय की इस यात्रा में अगर उस समाज की सोच नहीं बदलती तो वक्त ठहर सा जाता है।
2019 इक्कीसवीं सदी का वो दौर है जब विश्व भर की महिलाएं हर क्षेत्र में अपना योगदान दे रही हैं। यद्यपि महिलाओं ने एक लंबा सफर तय कर लिया लेकिन 2019 में जब नोबल जैसे अन्य प्रतिष्ठित पुरस्कार पाने वालों के नाम सामने आए तो उस सूची को देखकर लगता है कि यह सफर केवल वक्त ने तय किया और महिलाएं कहीं पीछे ही छूट गईं। शायद इसलिए 2018 में पिछले 55 सालों में भौतिकी के लिए नोबल पाने वाली पहली महिला वैज्ञानिक डोना स्ट्रिकलैंड ने कहा था, ‘मुझे हैरानी नहीं है कि अपने विषय में नोबल पाने वाली 1901 से लेकर अब तक मैं तीसरी महिला हूं। आखिर हम जिस दुनिया में रहते हैं वहां पुरुष ही पुरुष ही नजर आते हैं।’ आश्चर्य नहीं कि विज्ञान के ९७ फीसदी नोबल पुरस्कार विजेता पुरुष वैज्ञानिक रहे हैं। 1901 से 2018 के बीच भौतिक शास्त्र के लिए 112 बार नोबल पुरस्कार दिया गया जिसमें से सिर्फ तीन बार किसी महिला को नोबल मिला। इसी प्रकार रसायन शास्त्र, मेडिसिन व अर्थशास्त्र के क्षेत्र में भी लगभग यही असंतुलन दिखाई देता है। इनमें 688 बार नोबल दिया गया जिसमें से केवल 21 बार महिलाओं को मिला। अगर अब तक के कुल नोबल पुरस्कार विजेताओं की बात की जाए तो 892 लोगों को पुरस्कार मिल चुका है जिसमें से 844 पुरुष हैं और 48 महिलाएं।
ये आंकड़े निश्चित ही वर्तमान कथित आधुनिक समाज की कड़वी सच्चाई सामने ले आते हैं। इस विषय का विश्लेषण करते हुए ब्रिटिश साइंस जर्नलिस्ट एंजेला सैनी ने ‘इन्फीरियर’ नाम की एक पुस्तक लिखी। इसमें विभिन्न वैज्ञानिकों के इंटरव्यू हैं और कहा गया है कि वैज्ञानिक शोध खुद औरतों को कमतर मानते हैं जिनकी एक वजह यह है कि उन शोधों को करने वाले पुरुष ही होते हैं। अमेरिका की साइंस हिस्टोरियन मार्गरेट डब्लू रोसिटर ने 1993 में ऐसी सोच को माटिल्डा इफेक्ट नाम दिया था। सोसाइटी ऑफ स्टेम वीमेन की सह संस्थापक क्लोडिया रैनकिन्स का कहना है कि इतिहास में नेटी स्टीवेंस, मारीयन डायमंड और लिसे मीटनर जैसी कई महिला वैज्ञानिक हुई हैं जिनके काम का श्रेय उनके बजाए उनके पुरुष सहकर्मियों को दिया गया। दरअसल लिसे मीटनर ऑस्ट्रेलियाई महिला वैज्ञानिक थीं जिन्होंने न्यूक्लियर फिशन की खोज की थी लेकिन उनकी बजाए उनके पुरुष सहकर्मी ओटो हान को 1944 का नोबल मिला।
स्पष्ट है कि प्रतिभा के बावजूद महिलाओं को लगभग हर क्षेत्र में कमतर ही आंका जाता है और उन्हें काबलियत के बावजूद जल्दी आगे नहीं बढऩे दिया जाता। 2018 की नोबल पुरस्कार विजेता डोना स्ट्रिकलैंड दुनिया के सामने इस बात का जीता जागता उदाहरण हैं जो अपनी काबलियत के बावजूद सालों से कनाडा की प्रतिष्ठित वाटरलू यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर ही कार्यरत रहीं थीं। इस पुरस्कार के बाद ही उन्हें प्रोफेसर पद की पदोन्नति दी गई।
जाहिर है इस प्रकार का भेदभाव आज के आधुनिक और तथाकथित सभ्य समाज की पोल खोल देता है। लेकिन अब महिलाएं जागरूक हो रही हैं। वो वैज्ञानिक बनकर केवल विज्ञान को ही नहीं समझ रहीं वो इस पुरुष प्रधान समाज के मनोविज्ञान को भी समझ रही हैं। अब पुरुषों की बारी है कि वो स्त्री की काबलियत को उसकी प्रतिभा को स्वीकार करें और उसको यथोचित सम्मान दे जिसकी वो हकदार है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)