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कोरोना से लड़ते हुए आगे बढ़ती जिंदगी की रफ़्तार

कोरोना देर सबेर तो जाएगा ही। लेकिन, फिलहाल तो इसके साथ जीना सीखना ही होगा

Ashiki
Published on: 2 April 2021 4:45 AM GMT
कोरोना से लड़ते हुए आगे बढ़ती जिंदगी की रफ़्तार
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आर.के. सिन्हा

कोरोना देर सबेर तो जाएगा ही। लेकिन, फिलहाल तो इसके साथ जीना सीखना ही होगा। पर एक बात तो तय है कि यह महामारी आपकी-हमारी जिंदगिंयों में बड़ा बदलाव स्थायी रूप से करने जा रहा है। अब उन सड़कों को ही देख लें जिन पर कोरोना काल से पहले भारी ट्रैफिक चला करता था। अब उन सड़कों पर पीक आवर्स में भी बहुत कम ट्रैफिक दिखता है। यह स्थिति आप दिल्ली से बैंगलुरू और मेरठ से पटना वगैरह में सभी जगह देख सकते हैं। अगर सड़कों पर यातायात कम चल रहा है तो इसका यह मतलब नहीं है कि अब जनता घरों में पूरी तरह निठल्ली बैठी है।

गहरी जड़ें जमा रहा फ्रॉम होम कल्चर

बात यह है कि अब वर्क फ्रॉम होम कल्चर अपनी गहरी जड़ें जमा रहा है या कहें कि जमा चुका है। देश के लाखों-करोड़ों आईटी सेक्टर के पेशवर कोरोना काल से ही वर्क फ्रॉम होम कर रहे हैं। नई टेक्नोलॉजी इस बात की सुविधा देती है कि आप घर बैठकर अपने दफ्तर के साथियों और सहयोगियों के नियमित वीडियो कॉल कर साथ बातचीत भी कर सकते हैं। पर लगता यह है कि वे दफ्तर तो अब भी पहले की तरह से चलेंगे जहाँ पब्लिक डीलिंग होती है। उदाहरण के रूप में बैंक, यातायात के लाइसेंस जारी करने वाले विभाग, बिजली, पानी, सुरक्षा कार्य, कुरिएर व्यवसाय के दफ्तर आदि।

इनमें तो पहले की तरह से काम होगा ही। हालांकि नेट बैंकिंग ने अब ग्राहकों को बैंक में जाने के झंझट से काफी हदतक तो राहत दे ही दी है। नेट बैंकिंग के माध्यम से पेमेंट दी-ली जा सकती है। तो बात हो रही थी वर्क फ्रॉम होम की। अब विभिन्न क्षेत्रों के दफ्तरों के आला अफसरों को इस तरह की कोई व्यवस्था तो तलाश करनी ही होगी ताकि उनका स्टाफ एक माह में कम से एक-दो बार तो कहीं मिले ही। मिलने-जुलने के बहुत लाभ होते हैं। पेशेवर अपने साथियों के विचारों को जानने समझते हैं। जूनियर पेशेवरों को अपने सीनियर सहयोगियों के अनुभव का लाभ मिलता है। इस तरह की बैठकों में नए-नए विचार सामने भी आते हैं।

नफा-नुकसान वर्क फ्रॉम होम का

बहरहाल, यह तो मानना होगा कि वर्क फ्रॉम होम ने लाखों लोगों को सुबह दफ्तर जाने के झंझट से मुक्ति दिलवा दी है। महानगरों और बड़े शहरों में रहने वाले लोगों को पता है कि उन्हें दफ्तर तक जाने का लंबा सफर पूरा करने में कितना वक्त लगता था। उस क्रम में ही उनकी पूरी उर्जा निकल जाती थी। वर्क फ्रॉम होम से मुलाजिमों के किराए के पैसे भी तो बच रहे हैं। हालांकि बहुत से पेशेवर यह भी कहते हुए मिल रहे हैं कि अब कंपनियां उनसे पहले के मुकाबले अधिक काम करवाती हैं। मतलब उनके काम के घंटे बढ़ गए हैं। यह बात सच भी हो सकती है। पर वर्क फ्रॉम होम के कुल जमा लाभ के सामने तो कुछ घंटे अधिक काम करना कोई घाटे का सौदा नहीं है। आप अपने बीबी-बच्चों के साथ जो हो I हालांकि यह मसला भी हल हो ही जाएगा। इसकी वजह यह है कि किसी भी संस्थान के आला अफसरों को पता होता है कि वे अपने कर्मियों से एक सीमा से अधिक काम नहीं करवा सकते।

चटोरा बनाया हिन्दुस्तानियों को

कोरोना काल ने लगता है कि शहरी हिन्दुस्तानियों को भांति-भांति की डिशेज का स्वाद लेने की आदत भी डाल दी है। अब अपने घरों से काम करने वाले पेशेवर और कारोबारी भी शाम का भोजन महीने में पांच-छह बार तो किसी रेस्तरां से ही मंगवाते हैं। आप किसी मिडिल क्लास आवासीय कॉलोनी के गेट पर शाम के वक्त खड़े हो जाएं। आप देखेंगे कि मोटर साइकिलों पर विभिन्न रेस्तरां में काम करने वाले आर्डर की सप्लाई कर रहे होते हैं। ये पैकेड भोजन लाने वाले अपने साथ राजमा चावल या कढ़ी चावल से लेकर दक्षिण भारतीय, गुजराती वगैरह व्यंजन भी ला रहे होते हैं। नॉन वेज डिशेज के कद्रदान अपने मन की डिशेज मंगवा रहे होते हैं।

आप समझ लें कि 35 साल से कम उम्र के हिन्दुस्तानी घर से बाहर का भोजन अब भरपूर मात्रा में मंगवाने लगे हैं। हां, जिन बच्चों के साथ उनके माता-पिता भी रहते हैं वहां पर तो घर में खाना लगातार पकता है। दिन में तो रसोई का इस्तेमाल होता है पर शाम तो बाहर के किसी सुस्वादु भोजन के लिए ही तय होती है। यह है नए कोरोना काल में विकसित हो रहे भारत का एक चेहरा है। आपको याद होगा कि हमारे घरों की मां और दादी कहती थीं कि शाम को रसोई सूनी नहीं रहनी चाहिए। शाम को रसोई में कुछ दाल,सब्जी, रोटी अवश्य बननी चाहिए। पर चूंकि मौजूदा पीढ़ी के पेशेवरों का सैलरी बेहतरीन होती है तो ये लगातार बाहर से भोजन मंगवा ही लेते हैं। इससे इनका बजट प्रभावित नहीं होता।

अभी तक हम समाज के पढ़े-लिखे और बेहतर कमाई करने वाले वर्ग की बातें कर रहे थे। अगर बात कोरोना काल के कारण उत्पन्न स्थितियों की करें तो लगता है कि शुरूआती झटकों के बाद कारपेंटरपेंटर, इलेक्ट्रिशियन और पलंबर जैसे काम करने वाले अब फिर से पहले जैसे ही सक्रिय हो गए हैं। उत्तर भारत में कारपेंटर के काम से मुसलमानों की सैफी बिरादरी से ताल्लुक रखने वाले नौजवान जुड़े हैं। पलम्बर ज्यादातर उड़िया समाज से हैं I ये भी अब अपने बच्चों तो स्कूलों-कॉलेजों में भेज रहे हैं।

कोरोना के असर के कारण लकड़ी का काम करने वाले कारपेंटर भी प्रभावित हुए थे। लगभग दसेक महीने तक कामकाज बिल्कुल ठंडा रहा। अब इन्हें काम मिलना चालू हो गया है। ये भी दिन-रात काम करके पैसा कमा रहे हैं। अब सभी मेहनतकश अपनी जिंदगी से खुश है। इन्हें इतनी कमाई हो जाती है ताकि जिंदगी आराम से कट जाए। इन्हें बदली-बदली सी जिंदगी से कोई शिकायत नहीं है।

अगर बात प्लंबर का काम करने वालों की करे जो घरों-दफ्तरों वगैरह में जाकर प्लंबर का काम करते हैं। देश में प्लंबिंग के काम पर उड़ीसा के प्लंबरों का लगभग एकछत्र राज है। इनकी वही स्थिति है जो अस्पतालों में केरल की नर्सों की होती है। ये सुबह ही अपने औजारों का बैग लेकर खास चौराहों या हार्ड वेयर की दुकानों पर मिल जाते हैं। वहां से ही इन्हें लोग अपने घरों-दफ्तरों में ले जाते हैं या फिर इन्हें बुला लेते हैं।

अपने काम में उस्ताद ये उड़िया प्लंबर एक बार जो अपने काम का दाम मांग लेते हैं फिर उससे पीछे नहीं हटते। ये रोज का कम से कम करीब एक हजार रुपए तक पैदा कर ही लेते हैं। कॉल दो से ज्यादा हुई तो और भी ज्यादा I कोरोना काल ने इनके काम-धंधे को भी चौपट कर दिया था। अब स्थिति सुधर रही है। मैंने प्लंबरों से बात की। पता चला कि इन्हें रोज लंच से पहले कोई न कोई काम मिल ही जाता है। किसी का नल खराब, किसी का किचन सिंक होता गड़बड़, किसी का टॉइलेट फ्लश नहीं होता या लीक। इनके पास है इन सबका इलाज।

तो बात यह है कि कोरोना काल को जनता ने अब जिंदगी के हिस्से के रूप में स्वीकार कर लिया है। अब पेशेवरों से लेकर मेहनतकशों तक को काम मिल रहा है। जिंदगी पहले की तरह से फिर से चलने लगी है, पर कुछ बदलावों के साथ। यह सब कुछ संभव हुआ है, इंसान की अदम्य जिजिविषा के कारण।

नोट- ये लेखक के निजी विचार हैं

(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं।)

Ashiki

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