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विश्व हिंदी या अंग्रेजी की गुलामी

मुझे 1975 के पहले सम्मेलन से ही लग रहा था कि यह सम्मेलन हिंदी के नाम पर करोड़ों रुपये फिजूल बहा देने की कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं है।

Dr. Ved Pratap Vaidik
Published on: 14 Feb 2023 11:50 AM GMT
slavery of world hindi or english
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slavery of world hindi or english (Social Media)

Hindi Or English: फिजी में 15 फरवरी से 12 वाँ विश्व हिंदी सम्मेलन होने जा रहा है। यह सम्मेलन 1975 में नागपुर से शुरु हुआ था। उसके बाद यह दुनिया के कई देशों में आयोजित होता रहा है। जैसे मोरिशस, त्रिनिदाद, सूरिनाम, अमेरिका, ब्रिटेन, भारत आदि। पिछले दो सम्मेलनों को छोड़कर बाकी सभी सम्मेलनों के निमंत्रण मुझे मिलते रहे हैं। मुझे 1975 के पहले सम्मेलन से ही लग रहा था कि यह सम्मेलन हिंदी के नाम पर करोड़ों रुपये फिजूल बहा देने की कोशिश से ज्यादा कुछ नहीं है।

नागपुर सम्मेलन के दौरान मैंने ‘नवभारत टाइम्स’ में एक संपादकीय लिखा था, जिसका शीर्षक था, ‘‘हिंदी मेलाः आगे क्या?’’ 38 साल बीत गए । लेकिन जो सवाल मैंने उस समय उठाए थे, वे आज भी ज्यों के त्यों जीवित हैं। तत्कालीन दो प्रधानमंत्रियों के आग्रह पर मैंने मोरिशस और सूरिनाम के सम्मेलनों में भाग लिया। वहां दो-तीन सत्रों की अध्यक्षता भी की और दो-टूक भाषण भी दिए। कुछ ठोस प्रस्ताव भी सर्वसम्मति से पारित भी करवाए। लेकिन सारे विश्व हिंदी सम्मेलन सैर-सपाटा सम्मेलन बनकर रह गए हैं।

अब अच्छा है कि मोदी-राज में मेरे-जैसे स्पष्टवक्ताओं को इन सैर-सपाटा सम्मेलनों से दूर ही रखा जाता है। यह खुशी की बात है कि यह 12 वॉ सम्मेलन उस फिजी में हो रहा है, जहां प्रवासी भारतीयों के अन्य देशों की बजाय हिंदी का चलन ज़रा ज्यादा है । लेकिन हिंदी की जो दुर्दशा भारत में हैं, वही हाल हिंदी का उन प्रवासी देशों में भी है। इन देशों में तो हिंदी की बजाय आम लोग अपनी बोलियों में ही बातचीत करते हैं। यदि इन देशों में महर्षि दयानंद का आर्यसमाज सक्रिय न होता तो वहां हिंदी का नामो-निशान ही मिट जाता। इन देशों में भी संसदीय कार्यवाही, अदालती बहस और फैसले तथा सारी ऊँची पढ़ाई अंग्रेजी या फ्रांसीसी में ही होती है। ऐसा वहां क्यों न हो? जब दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक राष्ट्र भारत अंग्रेजी की गुलामी में डूबा हुआ है, तो इन छोटे-मोटे देशों को हम दोष क्यों दे? 1975 में ही ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में मेरे वरिष्ठ मित्र गोविंदप्रसादजी केजरीवाल ने विश्व हिंदी सम्मेलन पर लिखते हुए कहा था कि ‘घर में नहीं दाने! अम्मा चली भुनाने!!’

आजकल हम आजादी का 75 वां वर्ष मना रहे हैं । लेकिन हमारे कानून, हमारे सरकारी आदेश, हमारे ऊँचे अदालती फैसले, हमारी ऊँची पढ़ाई और शोध-कार्य सभी काम-काज अंग्रेजी में चल रहे हैं । और हम हिंदी को विश्व भाषा बनाने पर तुले हुए हैं। यह ठीक है कि अन्तरराष्ट्रीय व्यापार, कूटनीति और शोधकार्य के लिए हमें कई विदेशी भाषाओं को अवश्य सीखना चाहिए । लेकिन हम अकेली अंग्रेजी की गुलामी में डूबे हुए हैं। हिंदी को संयुक्तराष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनवाने का प्रस्ताव मैंने सूरिनाम में पारित करवाया था । लेकिन यदि वह बन भी जाए तो भी क्या होगा? क्या हमारे नेताओं को कुछ शर्म आएगी? क्या वे नौकरशाहों की नौकरी करना बंद कर पाएंगे? यदि वे वे ऐसा कर सकें तो अंग्रेजी की गुलामी से हिंदी अपने आप मुक्त हो जाएगी।

Anant kumar shukla

Anant kumar shukla

Content Writer

अनंत कुमार शुक्ल - मूल रूप से जौनपुर से हूं। लेकिन विगत 20 सालों से लखनऊ में रह रहा हूं। BBAU से पत्रकारिता में पोस्ट ग्रेजुएशन (MJMC) की पढ़ाई। UNI (यूनिवार्ता) से शुरू हुआ सफर शुरू हुआ। राजनीति, शिक्षा, हेल्थ व समसामयिक घटनाओं से संबंधित ख़बरों में बेहद रुचि। लखनऊ में न्यूज़ एजेंसी, टीवी और पोर्टल में रिपोर्टिंग और डेस्क अनुभव है। प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म पर काम किया। रिपोर्टिंग और नई चीजों को जानना और उजागर करने का शौक।

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