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टीवी चैनलः बुद्धू-बक्से नहीं हैं?

World Television Day: भारत में इसे दूरदर्शन कहते हैं लेकिन सारी दुनिया में निकट-दर्शन का आज भी यही उत्तम साधन माना जाता है।

Dr. Ved Pratap Vaidik
Published on: 22 Nov 2022 4:19 AM GMT
World Television Day
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World Television Day (photo: social  media )

World Television Day: आज सारी दुनिया में 'विश्व टेलीविजन दिवस' मनाया जाता है, क्योंकि 26 साल पहले संयुक्तराष्ट्र संघ ने इस दिवस की घोषणा की थी। उस समय तक अमेरिका, यूरोप और जापान आदि देशों में लगभग हर घर में टेलिविजन पहुंच चुका था। भारत में इसे दूरदर्शन कहते हैं लेकिन सारी दुनिया में निकट-दर्शन का आज भी यही उत्तम साधन माना जाता है, हालांकि इंटरनेट का प्रचलन अब दूरदर्शन से भी ज्यादा लोकप्रिय होता जा रहा है। यह दूरदर्शन है तो वह निकटदर्शन बन गया है।

आप जेब से मोबाइल फोन निकालें और जो चाहें, सो देख लें। दूरदर्शन या टीवी ने सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है, अखबारों को! हमारे देश में अभी भी अखबार 5-7 रु. में मिल जाता है लेकिन पड़ौसी देशों में उसकी कीमत 20-30 रु. तक होती है और अमेरिका व यूरोप में उसकी कीमत कई गुना ज्यादा होती है। हमारे अखबार ज्यादा से ज्यादा 20-25 पृष्ठ के होते हैं लेकिन 'न्यूयाॅर्क टाइम्स' जैसे अखबार इतवार के दिन 100-150 पेज के भी निकलते रहे हैं। उनके कागज, छपाई और लंबे-चौड़े कर्मचारियों के खर्चे भी किसी टीवी चैनल से ज्यादा ही होते हैं।

जब से टीवी चैनल लोकप्रिय हुए हैं, दुनिया के महत्वपूर्ण अखबारों की प्रसार-संख्या भी घटी है, उनकी विज्ञापन आय में टंगड़ी लगी है और बहुत से अखबार तो स्वर्ग भी सिधार गए हैं। लेकिन टीवी के दर्शकों की संख्या करोड़ों में है उनके पत्रकारों की तनख्वा लाखों में है और उनके बोले हुए शब्द कितने ही हल्के हों लेकिन अखबारों के लिखे हुए शब्दों की टक्कर में वे काफी भारी पड़ जाते हैं। उनके कार्यक्रम तो सद्य:ज्ञानप्रदाता होते हैं लेकिन असली प्रश्न यह है कि ये टीवी चैनल आम लोगों को कितना जागरुक करते हैं और उन्हें आपस में कितना जोड़ते हैं?

अखबारों की तरह गंभीर संपादकीय और लेख नहीं

अखबारों के मुकाबले इस बुनियादी काम में वे बहुत पिछड़े हुए हैं। उनमें गली-मोहल्ले, गांव, शहर-प्रांत और जीवन के अनेक छोटे-मोटे दुखद या रोचक प्रसंगों का कोई जिक्र ही नहीं होता। उनमें अखबारों की तरह गंभीर संपादकीय और लेख भी नहीं होते। पाठकों की प्रतिक्रिया भी नहीं होती। उनकी मजबूरी है। न तो उनके पास पर्याप्त समय होता है, न ही उनके सैकड़ों संवाददाता होते हैं और इन मामलों में कोई उत्तेजनात्मक तत्व भी नहीं होता, जो कि उनकी प्राणवायु है। इसीलिए गंभीर प्रवृत्ति के लोग टीवी देखने के लिए अपना कीमती समय नष्ट नहीं करते हैं लेकिन करोड़ों साधारण लोग टीवी के त्वरित प्रवाह में बहते रहते हैं। टीवी पर आजकल जो बहसें भी होती हैं, कुछ अपवादों को छोड़कर, वे शाब्दिक दंगल के अलावा क्या होती हैं? उनमें निष्पक्ष बौद्धिक भाग लेना पसंद नहीं करते हैं। आजकल उनकी जगह विभिन्न पार्टियों के दंगलबाजों को भिड़ा दिया जाता है। इसीलिए टीवी चैनलों को अमेरिका में बुद्धू-बक्सा या मूरख बक्सा या इडियट बाॅक्स भी कह दिया जाता है लेकिन यह कथन भारतीय चैनलों पर पूरी तरह लागू नहीं होता है।

Monika

Monika

Content Writer

पत्रकारिता के क्षेत्र में मुझे 4 सालों का अनुभव हैं. जिसमें मैंने मनोरंजन, लाइफस्टाइल से लेकर नेशनल और इंटरनेशनल ख़बरें लिखी. साथ ही साथ वायस ओवर का भी काम किया. मैंने बीए जर्नलिज्म के बाद MJMC किया है

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