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माँ बिन, बाप रे! इतने दिन

माता पिता जब दोनों साथ छोड़ जाते हैं तब आदमी के बच्चा होने के अहसास का ख़त्म हो जाना एक ऐसा दर्द है जिसे जीने को हम सब अभिशप्त हैं।

Yogesh Mishra
Written By Yogesh MishraPublished By Vidushi Mishra
Published on: 5 Aug 2021 11:23 AM GMT (Updated on: 5 Aug 2021 1:32 PM GMT)
माँ बिन, बाप रे! इतने दिन
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माँ बिन। इतनी रात, इतने दिन । कितना मुश्किल होता है माँ के बिना एक एक पल काटना । इसका अहसास हमें मंगलवार 25 मई, 2021 की सुबह 7.25 बजे से शुरू हुआ। माँ हमें छोड़कर अचानक चिर प्रयाण कर गयीं। पल दिन से भारी पड़ने लगे। अब पता नहीं कितने पल, दिन महीने व साल काटने पड़ेंगे, माँ बिन। माँ के जाते ही आदमी अचानक बड़ा हो जाता है।

माता पिता जब दोनों साथ छोड़ जाते हैं तब आदमी के बच्चा होने के अहसास का ख़त्म हो जाना एक ऐसा दर्द है जिसे जीने को हम सब अभिशप्त हैं। पिता आकाश की तरह छतरी होते हैं। माँ बच्चे की ज़मीन। पिता के चले जाने से मानो आसमान ऊपर से खिसक गया। माँ के न रहने पर मानें ज़मीन दलदल में तब्दील हो गयी।

वैसे हर माँ पिता की अभिलाषा बच्चों के सामने ही चिर प्रयाण करने की होती है। पिताजी को गये दस साल बाइस दिन हुए माता जी भी चली गयी। पिताजी के नहीं रहने के बाद माँ जब भी किसी के निधन की खबर सुनती तब उसके लिए तो रोती हीं।

हम केतना दिन अउर जीयब

भगवान से यह प्रार्थना भी करतीं कि उसकी जगह वह चली गयी होतीं। भगवान उन्हें पता नहीं कब उठायेगा। माँ के मरने की इच्छा पिताजी के नहीं रहने के बाद बलवती हुई थी। जब बाबा जी का देहांत हुआ था तब दादी ने पंडित कपिलदेव शास्त्री जी से बस एक सवाल पूछा था, " हम केतना दिन अउर जीयब ।" शास्त्री का जवाब था,"दस साल।"

दादी के लिए यह वाक्य असहनीय था। पर कर ही क्या सकती थीं? शास्त्री जी हमारे पुश्तैनी व ख़ानदानी पंडित थे। बाबा उनसे मुहूर्त पूछे बिना खेत में बैल भी नहीं भेजते थे। अपना पैर गाँव से बाहर निकालने की बात ही छोड़ दीजिए । घर के हर छोटे बड़े फ़ैसले पर शास्त्री जी मुहर ज़रूरी थी। बाबा के न रहने के बाद दादी दस साल रहीं। माँ भी हर ज्योतिषी व पंडित से यहीं जानना चाहती थी कि वह कितने दिन और रहेंगीं, इस प्लेनेट पर।

माँ एक ओर मरना चाहती थीं। दूसरी ओर वह आराम से रहने की अपनी आदत को भी संजीदगी से जीना नहीं छोड़ती थी। जीवन उनके लिए वर्तमान था। मृत्यु भविष्य । मृत्यु सत्य थी। तो जीवन को भी माँ सत्य ही मानती थीं। जब पिताजी नहीं रहे तब हमने घर की औरतों से यही कहा कि वैधव्य की परंपरा बेहद मर्माहत करने वाली होती है। बड़ी क्रूर है। इसलिए उसे न किया जाये।


मेरा विश्वास है कि माँ विधवा नहीं होती। विधवा पत्नी होती है। लेकिन जब वह पत्नी रही नहीं। तब उसकी चूड़ियाँ तोड़ने, सिंदूर मिटाने, रंगीन कपड़े पहनने पर पाबंदी क्यों होना चाहिए? मैंने भाभियों से कह गाँव पर इस कुप्रथा को रोकवा दिया था। हमारी भाभियाँ भी खासी प्रगतिशील हैं। उन्हें बात जँची। उस पर अमल किया।

भाभी ने माँ को नहलाने के बाद सफ़ेद की जगह रंग वाली साड़ी पहनाई। माथे पर बिंदी चिपका दी। माँ तैयार नहीं थी। पर भाभियों ने समझाया कि बिंदी कुँआरी लड़कियाँ भी लगाती है। हमारे यहाँ सिंदूर व बिछुआ ही सुहाग के प्रतीक हैं। माँ तैयार नहीं थीं पर जब भाभियों ने बताया कि मैं चाहता हूँ तो झट अपना विरोध थाम लिया।

पत्नी को नाम से बुलाने का चलन नहीं

माँ बेहद शौक़ीन थीं। उन्हें प्रेस कपड़े पहनना, संजीदगी से रहना, टीट फ़ीट दीखना अच्छा लगता था। मुझे संजीदगी से जीते हुए बुजुर्ग बहुत पसंद है। उनमें ज़िंदगी दिखती है। माँ साड़ी, ब्लाउज़ व पेटीकोट तक बिना प्रेस किया हुआ इस्तेमाल नहीं करती थीं।

बच्चों के साथ फ़िल्म व रेस्टोरेंट जाना भी उन्हें अच्छा लगता था। उनके साथ लूडो, साँप सीढ़ी व कैरम भी खेल लिया करती थीं। मेरी बेटी की अभिन्न सहेलियों में शुचि व गुड़िया आतीं हैं। इन दोनों की माँ फ़्रेंड थीं। दोनों की माँ से ख़ूब बनती और पटती थी। पिताजी के नहीं रहने के बाद मेरी बेटी ही मां के साथ सोया करती थी।

माँ अपने मयाके की बेहद दुलारी थीं। चार भाइयों की इकलौती बहन थीं। दो नाना की इकलौती बेटी। यदि माँ का सार्टिफिकेट न देखें तो किसी के लिए यह तय कर पाना मुश्किल था कि वह नाना राधेश्याम शर्मा जी की बेटी हैं। या फिर बड़े नाना रामजी शर्मा जी की बेटी हैं। कन्या दान बड़े नाना रामजी शर्मा ने दिया था।

हमारे दोनों नाना के दो दो बेटे हैं। पर हमें कभी ननिहाल में यह अहसास आज तक नहीं हुआ कि कौन मामा किस नाना के बेटे हैं। माँ को उनके घर में उमा कह कर बुलाया जाता था। पर नाना मेरी नानी को उमा कहते थे। इसलिए माँ को उमिया कह कर बुलाते थे। पिताजी भी माँ को बेबी की मां कहा करते थे। शायद पत्नी को नाम से बुलाने का चलन नहीं था। इसलिए बड़े बच्चे के नाम से ही पत्नी को पुकारा जाता था।

हमरे पाँच लइके बाँटे

माँ ने पाँच बेटियों व एक बेटे का लालन पालन करके बड़ा किया। हमारे गाँव में एक आँख को आँख नहीं मानने और एक बेटे को बेटा नहीं मानने की दंतकथा चलती थी। एक बार गाँव की फोनगिलास चाची ने माँ से कहा," हमरे पाँच लइके बाँटे । एक नाही मानी दूसरका मानी। दूसरका नाही मानी तीसरका मानी। पर ऐ बेबी के अम्मा तुहार त एके गो लइका बा।" मां का जवाब था बहिन जी," हमार एक गो लइकवा मारी त तीन कोना बचे ख़ातिर रही। पर तु त जउने कोना जइबू ओहि मारल जइबू।"

माँ घर में अनुशासन कड़ाई से लागू करती थीं। मेरी पाँच बहनें थीं पर सबसे छोटी बहन की शादी के बाद तक हमने घर में कभी अधोवस्त्र सूखते हुए नहीं देखा था। गोरखपुर के सरस्वती शिशु मंदिर में मैं पढ़ता था। कई दिन घर से स्कूल के लिए निकला । पर खेलने में लग गया । स्कूल नहीं पहुँचा। माँ को शिकायत मिली तो इतना पीटा की कभी स्कूल, कॉलेज बंक नहीं किया। मेरे चरित्र निर्माण में माँ और व्यक्तित्व निर्माण में पिता को , कोई भी जो इन दोनों लोगों को जानता है, पा सकता है।

माँ के हाथ में संस बहुत था। कितना भी कम से कम पैसा दीजिये । उससे घर चलाने के बाद जाने कहाँ से कुछ न कुछ बचा ही लेती थीं। पिताजी शराब के विभाग में नौकरी करते थे। जहां आमदनी भी थी। वह सेना में रहे थे। इसलिए पैसे माँगना लेना उनकी आदत का हिस्सा नहीं था ।


माँ बच्चों की पढ़ाई, घर खर्च, दवा व पूजा पाठ वेतन के पैसे ही करतीं थीं। लगता था माँ ने पैसों का पेड़ लगा रखा है। जब पैसा माँगों वह अपने जादुई बक्से से निकाल कर दें ही देती थीं। अभी मां के बक्से में कितना खज़ाना भरा है कोई अंदाज ही नहीं लगा सकता। अभी तक हम लोग उसे खोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाये। उनकी गोदरेज की आलमारी में उनकी लगाई चाभी आज भी लटक रही है। माँ के पास कोई लाकर नहीं था।

माँ ने मुझे आध्यात्मिक व दार्शनिक नहीं बनाया। केवल धार्मिक बनाया। इसलिए मैं माँ के आत्मा की तो नहीं जानता पर शरीर को जानता हूँ । उस शरीर को जिसकी अंगुली पकड़ कर चलना सीखा। जिसके पैरों पर घुघूआं घूं खेला। जिन पर लिटा कर माँ ने मेरी कई बार मालिश की।

वाराणसी जाने का मन नहीं इसलिए अयोध्या

जिन हाथों से उस विश्वास के साथ उछाला की वह शरीर में लगे तेल के बाद भी पकड़ ही लेंगी। पकड़ ही लेती थीं। इनके पीठ पर कई बार कुछ पीसते समय चढ़ कर झूला हूँ। इनके सीने से चिपटकर हमने अमृत छका था। उनके आलिंगन में हर परेशानी में तोष पाया था। इन सब ने साथ छोड़ दिया था। मेरी वेदना शरीर के लिए थीं। शरीर से जुड़े अपने रिश्तों के लिए थी।

सब नश्वर हो गये थे। जो आँखें हमारे चेहरे की शिकन में परेशानियाँ पढ़ लेती थीं। वह बंद हो गयी थीं। मुँह अधखुला था। माँ मेरे सामने ज़मीन पर निश्चेष्ट पड़ी थी। माँ का यह यह स्वाहा हो रहा था। पिताजी को मैं वाराणसी ले गया था। पर वहाँ शवदाह की परंपरा में शरीर के ऊपर लकड़ी नहीं रखते हैं। यह हमें बहुत ख़राब लगा।

इसलिए माँ को लेकर वाराणसी जाने का मन नहीं बन पाया। कबीर याद आये। उनका कहा यह भी याद आया कि जो काशी तन तजे शरीरा रामे कौन निहोरा रे। अब प्रयाग व अयोध्या दो विकल्प थे। प्रयाग में गंगा में पानी नहीं था। इसलिए सोचा अयोध्या चलूँ। यह भी सप्तपुरियों में एक है।

कोरोना के पहले वेव में बेटे व संतोष संक्रमित हो गये थे। संतोष को रेलवे हास्पिटल में और बेटे को मेदांता में भर्ती कराया था। दूसरी वेव में 10.04.2021 को राम मनोहर लोहिया अस्पताल में पत्नी का कोविड टेस्ट कराया। 12.04.2021 को रिपोर्ट पॉज़िटिव आयी। लिहाज़ा उन्हें क्वारनटाइन करके घर में सबका ऐंटीजन व आरटीपीसीआर चेक कराया।

ऐंटीजन टेस्ट में ही माँ व अरविंद पॉज़िटिव आ गये। बेटी को भी सारे लक्षण थे। पर आईटीपीसीआर रिपोर्ट निगेटिव आई। माँ व अरविंद की आरटीपीसीआर रिपोर्ट पॉज़िटिव आनी ही थी। सबको अलग अलग कमरों में क्वारनटाइन कर कोरोना का प्रोटोकॉल शुरू कर दिया।

माँ जब कोविड की शिकार हो गयीं, तब उनकी चिंताओं ने उन्हें अचानक बूढ़ा कर दिया था। हालाँकि उनके साथ ही पत्नी, बेटी, भाई अरविंद भी संक्रमित हुए थे। अरविंद तो तीसरे चौथे दिन के टेस्ट में निगेटिव हो गये थे। पर माँ के कमरे में ही सोते रहे, उन्हें दवाएँ देते रहे। उनका ख़्याल रखने का काम करते रहे। जब पत्नी व बेटी का टेस्ट हुआ, वे भी 6 मई, 2021 निगेटिव आ गये। पर माँ इस जाँच में भी पॉज़िटिव आयीं।


माँ के लिए हमने जो प्रोटोकॉल तय किया था। वह कुछ ऐसा था-

दिन में कम से कम तीन बार भाप लेना। अजवाइन पानी में डालकर भाप लेना। रोज़ कम से कम तीन चार बार भाप लें। भाप लेते समय कम से कम दस बार नाक से खींचें। मुँह से निकालें। कम से कम दस बार मुँह से खींचे नाक से निकालें।हमें बतायें कब कब भाप लिया।

रोज़ एक एक कप पानी में दो बार एक एक चम्मच हल्दी डालकर पीयें। यदि दूध पी सकें तो उसमें मिला लें। रोज़ कब पीया हमें व्हाटसएप पर रिपोर्ट भेजें।

होम्योपैथी दवा की तीन तीन बूँद जीभ पर टंग डोज़ दिन में तीन बार लें। कब कब लिया। इसकी व्हाटसएप रिपोर्ट भेजें।

1-Acid Mur-30

2-Stanum Met-30

3- Bryonia q.

4-Azardica q.

5- Tinosphora q.10drops in 1cup loom h2o.2hrly.alternare.

संजीवनी काढ़ा दिन में कम-से कम दो बार पियें । कब कब पिया इसकी रिपोर्ट व्हाटसएप पर भेजें।

आक्सीमीटर से आक्सीजन हर दो घंटे पर नापते रहें। आक्सीजन लेबल कम हो तो ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है। हमको व्हाटसएप पर भेजें कि कब कितना ऑक्सीजन लेबल है। पाँच पाँच कली कच्चा लहसुन दिन में कम से कम दो बार लें। कब खाया हमको व्हाटसएप पर बतायें।

कम से कम तीन बार एक बार में बीस बार अनुलोम विलोम करें। हमें बतायें। यदि पी सकें तो दो गिलास संतरे का जूस पियें।न पी पायें तो कम से कम एक गिलास ज़रूरी है। एक या दो नारियल का पानी पियें। सुबह शाम को एक एक नींबू पानी में निचोड़ के पियें।

एक शीशी में सफ़ेद होम्योपैथी दवा दी गयी। उसे तीन तीन तीन तीन बार टंग डोज़ ले।इससे ऑक्सीजन कम नहीं होगा।

पानी ख़ूब पियें। टमाटर ख़ूब सलाद में काट कर कच्चा खायें। आदि इत्यादि ।

ऑक्सीजन लेबल गिरने लगा

21 अप्रैल को सांय अचानक माँ का ऑक्सीजन लेबल गिरने लगा। हमें कुछ ही दिन पहले श्रेय जी ने बताया था कि उनके पास ऑक्सीजन के भरे हुए सिलिंडर हैं। झट से सिलिंडर मँगवा माँ को लगा दिया। भर्ती कराने के लिए बातचीत शुरू की।

हमारे साथ दिनेश जी, ब्रजेश जी, अवनीश जी, राजेंद्र जी सब जुटे। पर कहीं जगह मिलने का नाम नहीं । दिल्ली में मेरे अग्रज सुनील जी हैं। उनसे मदद की गुहार की। तो रात को उनने एक ऑक्सीजन सिलिंडर की व्यवस्था कर दी। हमें अपोलो पहुँचने को कहा। गाड़ी में सिलिंडर लगाकर मैं, अरविंद, आलोक, सिद्धार्थ व आशीष अपोलो पहुँच तो गये। पर उम्मीद नदारद थी।

माँ गाड़ी में आक्सीजन के सहारे थीं। अपोलो के एक डॉक्टर सौरभ सिंह जी ने जब हमारी स्थिति देखी व समझी तो यह आश्वासन दिया कि वह बेड तो नहीं दे सकते पर ज़रूरत पड़ी तो माँ को गाड़ी में ही ट्रीटमेंट ज़रूर देंगे। मेरे लिए यही बहुत बड़ा तोष था। ऑक्सीजन के कम ज़्यादा होने की लगातार डरावनी सूचनाएँ कार में बैठी माँ के पास से साथी लेकर आ जा रहे थे। मैं लगातार फ़ोन पर अपने मित्रों व शुभ चिंतकों को परेशान कर रहा था।

कुछ प्रयास के बाद मेडिकल कालेज में जगह मिलनी तय हुई। पर मेरा मन माँ को वहाँ ले जाने को तैयार नहीं था। क्योंकि उसी दिन मेडिकल कालेज में भर्ती मेरा भानजा अवि नहीं रहा था। तक़रीबन दस साल पहले मेरे एक भानजे अतुल का निधन भी मेडिकल कालेज में ही हुआ था।

दुर्योग यह था कि दोनों के निधन मंगल को ही हुए थे। माँ को मैं मंगलवार को ही भर्ती कराने में जुटा था। माँ के लिए ऑक्सीजन ज़रूरी होता जा रहा था। श्रेय जी का ऑक्सीजन चुकता जा रहा था। दिनेश जी ने रात दो बजे ऐरा के मालिकों में से किसी को जगा कर माँ को रात को ऐरा में भर्ती कराने में कामयाबी दिखाई। माँ को 21 अप्रैल , 2021 को रात को ऐरा में भर्ती कराने के बाद सब लोग घर लौट आये तब जा कर साँस में साँस आई।

उधर सुनील भइया व राजीव जी अपनी कोशिश में जुटे रहे। इन दोनों लोगों की कोशिश सुबह आकार ले पायी। मैं सो ही रहा था कि अपोलो से डॉक्टर अजय जी का फ़ोन आया कि एक बेड ख़ाली है। हालाँकि माँ ऐरा में भर्ती हो गयी थीं। इसलिए तसल्ली थी।


लेकिन उधर बड़ी बहन जो संक्रमित थीं, उनका ऑक्सीजन लेबल गिरने लगा। कहीं बेड नहीं था। मैंने ऐरा में बहन को भर्ती कराया। 22 अप्रैल,2021 माँ को अपोलो लेकर आया। अपोलो में उमेश जी का आरके था। इसलिए तसल्ली थी कि माँ को अकेलापन महसूस नहीं होगा। मां अपोलो में भर्ती हो गयीं। तब लगा कि चिकित्सा के अभाव में कुछ अनहोनी नहीं होगी।

भय माँ में घर कर गया

जिस तरह लोग मर रहे थे, उसे देख सुन भगवान के सिवाय कुछ नज़र आ ही नहीं रहा था। माँ ने टेलिविज़न में देखा था कोविड संक्रमित मरीज़ों की अंत्येष्टि कैसे पन्नी में हो रही है। परिजन आग भी नहीं दे पा रहे हैं। म्युनिसिपैलिटी अंतिम संस्कार कर दे रही है। क्रिया कर्म आर्य समाज या गायत्री वालों से तीन दिन में करा दिया जा रहा है? यह भय माँ में घर कर गया था। तभी तो माँ ने एक दिन अरविंद से कहा था, "ऐ अरविंद! बबलू से कहि दीहअ की हम मर जायीं तब हमके पन्नी में मत फूंक दीहें। हमार क्रिया कर्म ठीक से करिहें।"

अरविंद ने हमें बताया। मुझे समझने में देर नहीं लगी कि माँ का भय मौत नहीं है। मौत तो वह दशकों से अपने लिए माँग ही रही हैं। वह अपने पूजा पाठ में चलते फिरते मौत की आकांक्षा जताती रहती थीं। उनका भय कोविड से मौत से है। किसी भी सनातनी बुजुर्ग हिंदू के लिए यह डर होना स्वाभाविक है। मुझे याद नहीं माँ कभी अस्पताल गयी हों।

तक़रीबन पंद्रह साल पहले पीजीआई में उनका गाल ब्लैडर का आपरेशन डॉक्टर राजन सक्सेना जी ने किया था। उसके पहले व उसके बाद वह घर में थोड़ी बहुत दिक़्क़त से ऊबर ज़ाया करती थीं। गाँव में नंदवाल जी उनके डॉक्टर थे। लखनऊ में डॉक्टर विक्रमा प्रसाद जी । दोनों माँ को होम्योपैथी की दवा देते थे। शुगर की दवा वह ऐलोपैथिक की खातीं थीं।

27 अप्रैल,2021 को माँ अपोलो से घर आ गयीं। हालाँकि वह कोराना निगेटिव नहीं हुई थी। पर अपोलो के डाक्टरों ने आईसीएमआर की गाइडलाइन का हवाला देकर उन्हें डिस्चार्ज कर दिया। निगेटिव नहीं हुईं थीं पर वह फ़ीट थी। ऑक्सीजन लेबल मेंटेने था। बुख़ार नहीं था। घर पर 6 मई को सबके साथ उनका फिर कोरोना टेस्ट हुआ। इस टेस्ट में भी माँ पॉज़िटिव ही रहीं। लेकिन उनका सीटी वैल्यू 29 निकला।

अब माँ की निराशा और बढ़ गयी। उन्हें कोविड से मृत्यु का भय सताने लगा। उन्हें चिंता सता रही थी। उनके चेहरे पर मैं यह पढ़ रहा था। लेकिन माँ बोझिल न हो इसलिए पूरे मामले को मैं हल्का करने में जुटा रहता। टाल मटोल करता। मुझमें सेवा भाव नहीं है। माँ कीं अभिलाषा थी कि उन्हें किसी के सेवा की ज़रूरत न पड़े।

अवि की अयोध्या में अंत्येष्टि

लगता है किंचित माँ ने यह भाव मेरी ही भावना को देखकर बनाया हो। वह मेरे लिए खुद को हमेशा तैयार कर लेती थीं। बदल लेती थीं। हालाँकि अरविंद माँ का पैर दबा कर ही सोते।

उधर अवि के निधन के बाद छोटी बहन शशि मेडिकल कॉलेज में मृत्यु से जूझ रही थी। उसे अवि के न रहने की न तो इत्तिला दी गयी। न ही जानकारी होने दी गयी। शशि भी संक्रमित थी। 19 अप्रैल को शशि की सास का प्रतापगढ़ में निधन हो गया। सतीश जी लखनऊ में बेटे और पत्नी के लेकर जूझ रहे थे। वह खुद भी संक्रमित थे।

लिहाज़ा माँ का अंतिम संस्कार किसी और को करना पड़ा। सतीश जी की सास के गये एक दिन भी नहीं बीता था कि 20 तारीख़ को अवि के चले जाने की हृदय विदारक सूचना मिली। किसी तरह अयोध्या ले जाकर उसकी अंत्येष्टि की गयी।

अवि पैदा भी अयोध्या में हुआ था। विवाह भी एक साल पहले अयोध्या में ही हुआ था। अंत्येष्टि भी वहीं कंरनी पड़ी। सतीश जी पर टूट पड़े पहाड़ के अहसास से दम फूलने लगा था। अंत्येष्टि में केवल पाँच लोग थे। मैं, आलोक, लड़की का भाई व सतीश जी के गाँव वाले चाचा।

माँ को यह इत्तिला नहीं दी गयी थी। क्योंकि माँ कोरोना पॉज़िटिव थी। वह जब परेशान होतीं। रोतीं। कोई उनके पास नहीं जाता तो वह ज़रूर अंदर तक टूटतीं। मैं अवि की अयोध्या में अंत्येष्टि करके लौटा ही था कि माँ के फ़्रंट पर जुटना पड़ा।

मौत से जूझती बहन

उधर मेडिकल कालेज में अवि की माँ मेरी सगी बहन मौत से जूझ रही थी। माँ को इन सारी डराने वाली सूचनाओं से बचा कर रखा गया था। सोचा जा रहा था कि निगेटिव होने के कुछ दिनों बाद माहौल देख कर व बना कर उन्हें बताया जायेगा।


मेरी छोटी बहन शशि का भी 28 अप्रैल को निधन हो गया। उसकी सास व उसका तीस साल का बेटा अवि पहले ही काल कवलित हो गये थे। बड़ी बहन संक्रमित होकर ऐरा में थीं। माँ इन सबसे अनजान थीं। क्योंकि अपोलो से आने के बाद उनका मोबाइल फ़ोन यह कह कर हम लोगों ने ले लिया था कि डॉक्टर ने निगेटिव होने तक फ़ोन से दूर रहने की सलाह दी है।

हालाँकि उन्हें यह सुविधा मिली थी कि वह जिससे चाहें अरविंद अपने फ़ोन से मंमी की उनसे बात करा देंगे। मॉ जब तक पॉज़िटिव रहीं। तब तक उन्हें खुद के सिवाय किसी की सुधि नहीं थी। घर के सभी सदस्यों को माँ के सामने ख़ुशनुमा रहना था।

मां के सामने से हटते ही बहन, भांजे व उनकी दादी के न रहने का दुख भी जीना था। 14 मई को माँ की कोरोना रिपोर्ट निगेटिव आई तो माँ का चेहरा देखने लायक़ था। लग रहा था वह कोई बड़ी जंग जीत कर आई है। उन्हें विश्वास बन गया कि अब अगर वह न रहीं तो उनकी अंत्येष्टि व श्राद्ध कर्म वैदिक विधि विधान से हो सकेगा।

बाहर हालात बहुत ख़राब

माँ स्नान करके बाहर आकर बैठीं। अरविंद पर दुआएँ बरसा रही थीं। हमारे मन में भी जो चल रहा था सब ख़त्म हुआ। माँ अब मोबाइल की ज़िद करने लगीं। हम लोगों को भय लग रहा था कि माँ ने किसी को फ़ोन मिलाया और उनको बहन व भानजे के निधन के बारे में पता चलेगा तो क्या कहेंगीं? कितना नाराज़ होंगी?

हालाँकि रात को जब मैं ऑफिस से लौटता था तो उनसे दूर से बातचीत में भूमिका बनाने लगा था। बताने लगा था बाहर हालात बहुत ख़राब हैं। बहुत लोग मर रहे हैं। बेबी जीजी सत्रह दिन से भर्ती है। अभी तक पॉज़िटिव है। आदि इत्यादि ।

अशोक बख्शी जी, परशुराम भइया , शिव प्रताप मामा व शिवानी रोज़ मंमी की सेहत का अपडेट लेने वालों में रहे। वैसे तो गाँव से परिजनों व रिश्तेदारों के फ़ोन लगातार आते रहते थे। मंमी सबको जोड़े रखने की सूत्र थीं। उनके पास सबके नंबर थे। सबसे बात करती रहती थीं। उन्हीं से मैं सबके बारे में पूछता रहता। उनके दो तीन ही काम थे। बातें करना, पूजा करना और धार्मिक एपिसोड देखना।

माँ को पिताजी के बारे में बातें करना बहुत अच्छा लगता। हालाँकि मैं पिताजी की कम बातें करता क्योंकि यह सब मुझे बेहद बोझिल , बेहद भावुक कर देते। मेरे ख़ानदान में अपनी पीढ़ी में वह अकेली बुजुर्ग बची थीं। इसलिए भी उनके प्रति लगाव सबमें बहुत था। वैसे भी वह मधुर भाषिणी थीं। किसी को मोहने की दक्षता थीं। प्रेम उनमें कूट कूट कर भरा था। वह प्रेम देतीं। प्रेम चाहती थीं।

कई बार मैं उन्हें बताता माँ आप जिस प्रेम की बात करती हैं। वह आज के समाज में, आज की दुनिया में नहीं है। आज ज़िम्मेदारियों के वहन को ही प्रेम कहते हैं। वह सहमत तो नहीं होतीं। पर ख़ामोश हो जाती थीं।

चौदह तारीख को निगेटिव होने के बाद माँ का चेहरा और दुनिया दोनों बदलने लगे। माँ न कहा." अब मैं नई ज़िंदगी नये तरह से जीयूंगी।" मैं समझ पा रहा था कि कोरोना आदमी को बीमारी से कम अलग थलग करके ज़्यादा तोड़ता है। अकेले पड़ जाने का दंश गहरे तक उतर जाता है। वह भी जिसके भरा पूरा संसार हो उसको तो और भी।

अचानक महसूस हुई साँस में दिक़्क़त


माँ के ठीक होने बाद अपच की उनकी शिकायत बनी थी। इसके लिए परशुराम भइया, डॉ. प्रवीन, डॉ विक्रमा प्रसाद , डॉ पीएन अरोड़ा व डॉ कमर सबसे राय लेकर दवाएँ चला रहा था। पर शिकायत ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही थीं।

इधर हम लोग चिकित्सकों व मनोवैज्ञानिकों से राय ले रहे थे कि माँ को बहन व अवि की मौत के बारे में कैसे बताया जाये। श्रेय जी की पत्नी अच्छी कांउसलर हैं। मेरी पत्नी ने उनसे बात की। डॉक्टरों की राय थी कि दवाएँ एक दो दिन देने के बाद बतायें।

माँ के सीने में जलन तेज होती थी। पीठ में और हाथ में दर्द होता था। अरविंद दबा देते थे तो आराम हो जाता था। अरविंद माँ का पैर दबा कर ही सोते थे। पेट की दवा खाने के बाद सीने में जलन कम हो जाती थी। पर ख़त्म नहीं होती थी।

अठारह तारीख़ को सुबह सो कर उठने के बाद माँ ने बच्चों व अरविंद के साथ बैठ कर चाय पी। पर नौ बजे के आसपास उन्हें साँस में दिक़्क़त महसूस होने लगी। श्रेय जी से ऑक्सीजन सिलिंडर माँग कर लाया गया। मुझे तो खबर लिखने के सिवाय कोई लुर नहीं है। अरविंद व संतोष ने मेहनत करके सिलिंडर खोला व लगाया।

हम लोगों ने माँ को अस्पताल में भर्ती कराने का फ़ैसला लिया। वेंटिलेटर की सुविधा हमें टेंडर पाम में मिली। अस्पताल से राय मिली की अस्पताल से एंबुलेंस आये उससे बेहतर होगा कि हम माँ को लेकर अस्पताल पहुँचे। वहाँ इमरजेंसी में तैयारी है। गाड़ी बेटे ने चलाया। अरविंद माँ के पास सिलिंडर लेकर बैठे। हमने घनश्याम को फ़ोन किया। वह रास्ते में मिलें।

बेटा बाक़ायदा बात करते माँ को लेकर अस्पताल पहुँच गया। वहाँ डॉक्टर उन्हें भर्ती कराने के लिए स्ट्रेचर लाये। माँ ने कहा व्हीलचेयर लाइये। मैं उससे चलूँगी । माँ व्हीलचेयर पर बैठ कर अस्पताल के इमर्जेंसी के बेड तक पहुँच गयी। वहाँ डॉक्टर अजय पांडेय व उनकी टीम पहले से तैयार थीं। माँ को तुरंत ऑक्सीजन लगा दिया गया।

बचने की उम्मीद केवल दस फ़ीसदी

मैं और अरविंद डॉक्टर के चैम्बर में बुलाये गये। वहाँ डॉक्टर ने कहा कि माँ का फेफड़ा बुरी तरह संक्रमित है। बचने की उम्मीद केवल दस फ़ीसदी है। डॉक्टर की बात सुनकर मैं हैरान व परेशान दोनों हुआ। मेरे दिमाग़ में कई सवाल कौंधने लगे- माँ के फेफड़ों में संक्रमण है तो ऑक्सीजन लेबल कैसे मेंटेन है? वह खाना कैसे खा रहीं थीं? उन्हें बुख़ार नहीं है?


अपोलो ने माँ को क्या संक्रमण की स्थिति में ही डिस्चार्ज कर दिया था? डॉक्टर के पास मेरे इन सवालों के जवाब नहीं थे। यह ज़रूर है कि माँ के निगेटिव होने के बाद हमने न तो उनका ब्लड टेस्ट कराया था, न ही सीटी , न ही डी डाइमर टेस्ट। क्योंकि माँ अपोलों में सात दिन रह कर आईं थी। वहाँ ब्लड के सब टेस्ट हुए थे। चेस्ट का एक्स-रे हुआ था। उन्हीं दिनों एम्स के निदेशक गुलेरिया जी सीटी न कराने के ख़िलाफ़ ज्ञान बांट रहे थे। मैं भी उसमें बह गया।

टेंडर पाम अस्पताल के डॉक्टर ने इतना डरा दिया कि लगा ग़लत जगह आ गया हूँ। वहाँ से मेदांता शिफ़्ट करने को सोचने लगा। लेकिन डॉक्टर के चेंबर से बाहर निकल कर कुछ फ़ैसला ले पाता।तब तक देखा स्क्रीन पर माँ का पल्स, आक्सीजन गिरने लगा। ईसीजी का ग्राफ़ भी सीधा होने लगा।

हमने डॉक्टर अजय पांडेय से कहा कि अजय देखो क्या हो रहा है? अजय जूता उतार कर बेड पर चढ़ सीने पर पंपिग करने लगा । उसके साथ तीन चार और सहयोगी जुटे थे। एक आदमी माँ के मुंह में अपने मुँह से फूँक मार रहा था।

माँ ज़िंदगी से दूर जा रही थीं। हम सब उन्हें ज़िंदगी की ओर खींच रहे थे। माँ मंगलवार को लेकर डरी हुई थीं। उनके इस भय के पीछे उनको मिली किसी ज्योतिषी की सलाह रही होगी। या फिर कोई और कारण। यह नहीं जान सका।

माँ ने यह किसी से शेयर नहीं किया। पर शनिवार को माँ ने सुंदरकांड का पाठ दो बार किया। अरविंद से कहा कि पता नहीं अगले मंगलवार को पढ़ पाऊं या नहीं। इसलिए शनिवार को ही मंगलवार के सनतीन पढ़ लेते बाँटीं।

वेंटिलेटर से घनघोर भय

क़रीब बीस मिनट की डॉक्टरों की टीम के मेहनत के बाद स्क्रीन पर माँ की उपस्थिति दिखने लगी थी। मां मौत को पराजित कर चुकी थी। पर इसके बाद डॉक्टरों ने उन्हें वेंटिलेटर पर डाल दिया। हमारे दिमाग़ में यह ठूँस ठूँस कर भरा है कि वेंटिलेटर पर जाने के बाद कोई वापस नहीं आता। कोविड में तो नहीं ही आता। मेरी बहन व भानजे वेंटिलेटर से नहीं लौटे थे।

हालाँकि एक दिन गोपाल टंडन जी से बात हो रही थी तो उनने बताया कि उनकी माता जी सत्ताइस दिन बाद वेंटिलेटर से वापस लौट आयीं थीं। यही एक उम्मीद की किरण थी। दिन में अस्पताल में मैं, मोनू व आशीष ड्यूटी पर रहते थे। रात को अरविंद व आलोक।

हालाँकि आलोक तीन चार घंटे छोड़ हमेशा कैंपस में ही बना रहता। वैसे हम सबका कोई काम नहीं था। पर मैं माँ को अकेले छोड़ने को तैयार नहीं था। वेंटिलेटर पर माँ ज़िंदगी की जंग हारती जीतती रहीं। पर हमारे समझ में कुछ आने वाली बात नहीं थी। इस बीच हमने सभी अपने ज्योतिषियों से सलाह मशविरा व पूजा पाठ पर काम करने लगा।

शुरू हुआ महामृत्युंजय मंत्र का जाप

विजय मिश्र ने कहा कि भगवान से प्रार्थना करें। शिव हरि मिश्र ने कहा कि अठाइस से पचखा है। पचखा में देहांत ठीक नहीं है। पर इतने दिन चल नहीं पायेंगी ।छह ग्रह से मारकेश है। हमने पूजा अवस्थी जी की सलाह मानकर महामृत्युंजय का पाठ खुद करना शुरू किया। एक पंडित से भी शुरू करा दिया।

नोएडा में भट्ट जी ने संकल्प कर महामृत्युंजय का पाठ शुरू किया। वैष्णव जी के पंडित हरिशंकर त्रिपाठी जी ने कानपुर में पूजा शुरू करा दी। बंगाली बाबा बनारस में पूजा पर बैठे। याद आने लगा कभी पंडितों ने हमारे बारे में मारकेश की बात माँ को बताई थी तो सोलह साल वह लगातार हर सावन में महामृत्युंजय का पाठ व रूद्राभिषेक करवाना नहीं भूली थीं।

पर मेरे द्वारा शुरू कराये गये पूजा पाठ के बाद भी मां की दिक़्क़तें कम होने का नाम ही नहीं ले रही थीं। उनके गले में जब नली डाली गयी तब मैं बहुत निराश हुआ। लगा कि माँ परेशान हो रही है। माँ चलते फिरते मर जाना चाहती थी। सोचने लगा माँ मंगलवार को ही चली गयी होतीं तो माँ के लिए बेहतर था। मुझे क्या जब भी माँ जायेंगी। तब भी दुख होगा।

क्योंकि माँ के जाने के बाद मुझे बबलू कह कर पुकारने वालों का सिलसिला विराम ले लेगा। कुछ बड़ी भाभियाँ ज़रूर बबलू कहती हैं। पर उनके संबोधन में बबलू बाबू होता है। मुझे ननिहाल में गुड्ड व ददिहाल में बबलू कह कर बुलाया जाता रहा है।

हमारे भरोसे के सभी ज्योतिषी माता जी के जीवन को लेकर निराश थे। निराश मैं भी था। पर मन है कि हर नाउम्मीदी में उम्मीद तलाशता रहता है। उसे जाने क्यों चमत्कार की उम्मीद रहती है। यही उम्मीद हममें भी जगती बुझती रहती थी। माँ चारों धाम करना चाहती थीं। उनका कार्यक्रम भी बना लिया था। पर कुछ मेरा आलस्य व कुछ कम्बख़्त कोरोना ने इस कार्यक्रम को अमल में लाने ही नहीं दिया।

माँ सुहागन मरना चाहती थीं


माँ भागवत सुनना चाहती थीं। माँ सुहागन मरना चाहती थीं। बस यही इच्छाएँ उनकी अधूरी रह गयी। बाक़ी सब उन्होंने पूरी कर ली थी। या पूरी जैसी कर लीं। मैं सोचता था माँ बड़ी पुजारिन हैं। वह हर व्रत करतीं। पूर्णिमा व एकादशी को कथा सुनतीं। तुलसी विवाह करातीं। पक्षियों को दाना पानी देतीं। गीता व मानस रोज़ थोड़ा या ज़्यादा ज़रूर पढ़तीं। हर मूर्ति व मंदिर के सामने सर उनका ख़ुद ब खुद झुक जाता। इसलिए भगवान उन्हें यह सब करने का मौक़ा ज़रूर देंगे। पर यह उन्हें नसीब नहीं हुआ।

अस्पताल व डाक्टरों को लेकर मैं आश्वस्त नहीं हो पा रहा था। पर माँ ज़िंदगी की हारी हुई जंग जीत कर आई थीं । इसलिए थोड़ा यक़ीन था। मन में चल रहा था कि भगवान को ले जाना होते तो मंगलवार को ही वह वापस कैसे लौटतीं। आईसीयू में माँ को देखने के बाद हमें बड़ी निराशा हाथ लगी। वह चुपचाप देख रही थीं । शरीर में कहीं कोई स्पंदन भी नहीं था।

हमने बात करने की कोशिश की । उन्हें कहा भी मंमी डॉक्टर लोग घर के हैं परेशान न हों। डॉक्टर ने पूछा चाय लेंगी। पर मंमी की तरफ़ से कोई हरकत नहीं हुई। नीचे आकर मैंने उमेश जायसवाल व अरविंद को भेजा कि जायें देखकर आयें। मैं माँ की सेहत के बारे में इनकी राय के बाद अपनी राय बनाने के बारे में सोच रहा था। हालाँकि मैं निराश था।

मंमी को देखकर लौटने के बाद उमेश तो बहुत आशान्वित थे। पर अरविंद मेरी राय से सहमत थे। इस बीच डॉक्टर वेंटिलेटर से हटा कर उन्हें बीच बीच में चेक करते थे। हमें भी बताते रहते थे। उमेश , अरविंद व आलोक के साथ मिल बैठकर चौबीस तारीख़ को यह तय किया कि मंगलवार गुजर जाने के बाद माँ को मेदांता में शिफ़्ट करा दूँ।

रात में डेढ़ बजे से अस्पताल से फ़ोन आया

हमें लगता था मंमी की दिल की दिक़्क़त है। इस अस्पताल में कोई हार्ट स्पेशलिस्ट नहीं है। मेंदांता में डॉक्टर कपूर से भी बात हो गयी। बख्शी जी और वैष्णव जी ने भी बात कर लिया था। हम मंगलवार को गुजर देना चाहते थे क्योंकि मन में भय था कि कहीं शिफ़्टिंग में ही अनहोनी न हो जाये। पर सोमवार की रात अस्पताल से डेढ़ बजे फ़ोन आया।

डॉक्टर गले में नली डालना चाह रहे थे, इसके लिए उन्हें मेरी परमिशन चाहिए थीं। हम कह ही क्या सकते थे। सिर्फ़ यह कहा कि डॉक्टर जी जो उचित हो करें। मैं आकर पेपर पर साइन कर दूँगा। पर उन्हें तुरंत दस्तखत चाहिए थी। मैंने रात को आलोक व अरविंद , जो हास्पिटल में ड्यूटी दे रहे थे, में आलोक से कहा जाकर पेपर पर दस्तखत कर दें। पर मेरी नींद ग़ायब हो गयी। पत्नी भी जग गयीं थीं।

मंगलवार का दिन शुरू हो गया था। हमारा डर गहराता चला गया। उन दिनों इतने लोगों के मौत की खबर सुनने को मिली जितनी दस सालों में नहीं सुनी थी। इसलिए फ़ोन उठाने में डर लगता था। सुबह सात बजे के आसपास अस्पताल से फिर फ़ोन आया। फ़ोन करने वाले ने पूछा आप कहाँ हैं? डॉक्टर साहब आपसे मिलना चाहते हैं। मैं भीतर तक हिल गया।

समझ में आ गया कि मंगलवार माँ पर भारी पड़ा। मैंने कहा मंमी नहीं रहीं क्या? फ़ोन करने वालों ने कहा हमें नहीं पता। अस्पताल में रूके अरविंद व आलोक को मैंने फ़ोन किया। ये लोग ऊपर गये । पर माँ को सफ़ेद चादर से ढक दिया गया था। आसपास की सारी मशीनें हटा दी गयी थीं।

आलोक ने बहुत साहस जुटाकर हमें बताया। मैं भी घर से हास्पिटल के लिए निकला। रास्ते से मैंने घनश्याम को फ़ोन किया। जायसवाल से बात की वह हरदोई की ओर जा रहे थे। उन्हें लौटकर आने को कहा। सत्यदेव व अखिलेश भी अस्पताल पहुँच गये। मेरी हिम्मत नहीं हुई कि मैं माँ के आईसीयू तक जाऊँ। अब बचा ही कुछ नहीं था। चारों बहनों को सूचित किया।

माँ का पार्थिव शरीर

शशि तो पहले ही जा चुकी थी। माँ का पार्थिव शरीर नीचे लाया गया। अस्पताल के लोग उन्हें बेसमेंट की ओर ले जाने लगे। अरविंद ने प्रतिवाद किया। उधर क्यों से जा रहे हो। हम लोग यहाँ खड़े हैं। हमें डेड बाडी दे दो न। अरविंद ने माँ की पहचान के लिए मुँह खुलवाया तो देखा उन्हें अस्पताल वालों ने कोरोना किट में पैक कर दिया था। मेरा पारा सातवें आसमान पर था।

मैंने कहा जब कोरोना नहीं था तो तुम लोगों ने यह क्यों किया? माँ को यही तो भय सता रहा था। मैंने डॉक्टर अजय को बुला कर शिकायत की । तब दोबारा अंदर ले जा कर प्लास्टिक किट से बाहर कर माँ को लाया गया। माँ का मुँह खुला था। टूटे दांत दिख रहे थे। हम लोग उन्हें लेकर घर आये। घर में नहला धुला कर अयोध्या ले जाने का फ़ैसला हुआ।

हमने खब्बू तिवारी जी को फ़ोन किया। उनके भी मामा जी का निधन एक दिन पहले ही हो गया था। जिनको आग खब्बू जी ने ही दी थी। पर उन्होंने कहा कि आप आइये हम सब व्यवस्था करके मिलेंगे। इस बीच अवनीश जी का फ़ोन आया कि वह घर आ रहे हैं। हमने उन्हें घर आने से मना किया। क्योंकि कोरोना का भय अपने चरम पर था। उनके घर में भी लोग संक्रमित थे।

उन्होंने पूछा कि अंत्येष्टि कहाँ करेंगे। मैंने अयोध्या बताया तो उन्होंने अयोध्या के ज़िलाधिकारी व पुलिस कप्तान को फ़ोन कर दिया। ज़िलाधिकारी अनुज जी से मेरे भाई जैसे रिश्ते हैं। पुलिस अधीक्षक शैलेंद्र जी का भी फ़ोन आया। हम लोग अयोध्या की ओर बढ़ रहे थे। मेरे सामने अयोध्या में अवि के अंतिम संस्कार का दृश्य था।

माँ के साथ बचपन से आज तक गुज़ारे क्षण आंखों के आगे आकर ठहरते, भागते और हमें परेशान करते रहे। अयोध्या में घुसने तक ज़िला प्रशासन व खब्बू तिवारी जी लगातार फ़ोन पर बने रहे। ज्यों मेरी गाड़ी अयोध्या में घुसी खब्बू जी भी उसी के आगे आगे थे। घाट पर खब्बू जी की सारी व्यवस्था थी। वहाँ सीओ राय साहब जी भी मिल गये थे। सब शास्त्र सम्मत हो रहा था। किया जा रहा था। नदी की धारा से तीन फ़ीट दूर पर ही चिता बनी थी।

माँ स्वाहा हो रही थीं

अयोध्या में अंत्येष्टि करने के बाद अस्थियों को गंगा में प्रवाहित करने की परंपरा पूरी नहीं करनी पड़ती है। यहाँ हमने देखा कि जो लोग भी घाट पर आये थे कोई भी शवदाह के बाद सभी कर्म करके ही हटता है। लखनऊ में तो मैंने देखा है लोग मुखाग्नि देने के थोड़ी देर बाद कपाल क्रिया कर देते हैं। फिर चलते बनते हैं। दूसरे दिन अस्थियाँ लेने आते हैं।

पता नहीं किसकी अस्थि पाते हैं?किसकी ले जाते हैं? माँ स्वाहा हो रही थीं। उनके शरीर से मेरे रिश्ते याद आ रहे थे। पिताजी के नहीं रहने के बाद उनने हमें कितना को ऑपरेट किया। यह सामने से गुजर रहे थे। खब्बू जी हमें माँ की धू धू करके जलती चिता व अग़ल बग़ल की चिंता दिखा कर समझा रहे थे कि माँ कितनी धार्मिक थीं ।

अग़ल बग़ल की चिंताओं में धुंएं ही दिख रहे थे। कई बार शव जलाने के लिए कुछ न कुछ चिता में डालना पड़ता है। पर माँ के लिए ऐसा नहीं करना पड़ा। एक घंटा पचास मिनट में ही माँ स्वाहा हो गयीं। जब पंडित ने एक छोटा सा टुकड़ा नदीं में डालने को कहा तब हमने सरयू माता से कहा माँ भोजपुरी जानतीं हैं। आप अवधी। पर उनकी भोजपुरी समझने की कोशिश कीजियेगा । माँ को हम लोग समझ नहीं पाये। वह प्रेम की भूखी थीं। हम उनको प्रेम नहीं दे पाये। सरयू स्नान के समय जब पंडित ने हाथ में तिल थमाते हुए प्रेतस्य उमा मिश्रा उचारित करके अंजुली से जल देने को कहा तब सरयू के बहते पानी में मुझमे करेंट उतर गया। मुझे लगा माँ को प्रेतस्य कहना पड़ेगा! पर पंडित ने समझाया कि माँ के मोक्ष का यही रास्ता है। मरता क्या नहीं करता। मैंने भी पंडित के कहे का उचारण किया। घंट बाधने के बाद पता चला कि दस दिन तक यही कहना पड़ेगा। हमने कहा। क्योंकि माँ के मोक्ष का प्रश्न था। दसगात्र के दिन गाँव पर सभी भाई भतीजों ने सर मुंडवाया और चितहा के चीते ग्रुप पर पोस्ट कर दिया।

जब एक रोटी के चार टुकड़े हों और खाने वाले पाँच हों तो मुझे भूख नहीं है ऐसा कहने वाली सिर्फ़ माँ होती है । आज रोटी के पीछे भागता हूँ तो याद आता है मुझे रोटी खिलाने के लिए मेरी माँ मेरे पीछे पीछे भागती थी । मेरी माँ कितनी अनपढ़ है, एक रोटी माँगता हूँ तो दो लेकर आती है।

जब तक लोग माँ को कंधे पर नहीं उठा लेते तब तक माँ का कंधा बेटे के सर रखने के लिए हमेशा ख़ाली रहता है । घर में चाहे कितने भी लोग हों पर माँ न दिखे तो घर ख़ाली लगता है।माँ का रोल जीते जी समझ में आ जाता है। पर पिता का रोल उसके जाने के बाद समझ में आता है । याद कीजिए माँ के पेट पर कितनी लात मारी थी। बिस्तर कितनी बार भिगोया था।

एक दिन माँ मेरे सपने में भी आईं

यह सब बस हमारे पास बचे थे। माँ का संसार गांव में फैला था। पर कोरोना के क़हर के चलते हम लोग ब्रह्म भोज आदि के लिए गांव नहीं जा पाये। सारे संस्कार हमने लखनऊ से ही किया। देवेंद्र ने पंडित बहुत अच्छे भेज दिया था। सारे संस्कार हमने किये। जो माँ अपने लिए चाहती थीं। वह सब इच्छा हमने पूरी की।

यह भी याद आया कि कितनी इच्छाएँ कब कब हमने पूरी नहीं की। तेरह दिन हमने बस एक ही काम किया। उन्हें पल पल याद किया। पिताजी नहीं रहे थे तो मैं गाँव चला गया था। वहाँ पिताजी से जुड़े क़िस्से सुनाने वाले इतने लोग आते थे कि दिन रात कैसे कट जाते थे, अंदाज ही नहीं लगा।

पर माँ के समय कटने का नाम भी नहीं ले रहा था। कोरोना के संकट के चलते बहनें भी नहीं आ पायीं थीं। कोरोना होने के दौरान जितना अकेलापन माँ महसूस कर रही थीं। उतना ही मैं भी महसूस कर रहा था। एक दिन माँ मेरे सपने में भी आईं थीं ।

हालाँकि मेरी बेटी के सपनों में कई दिन आयीं। मेरे जीवन का पहला जन्मदिन माँ के आशीर्वाद के बिना बीता। मेरे हर जन्मदिन पर माँ ख़ुद बाज़ार जाकर मेरे कपड़े ख़रीद कर लातीं। पैंट शर्ट अपने सामने पहना कर देखतीं। अभी माँ की आठ साड़ियाँ फाल लगने व पेटीकोट ब्लाउज़ सिलने के लिए दुकान पर ही पड़ीं हैं।

अभी भी माँ के कमरे में सोने की हिम्मत किसी की नहीं हो रही है। उनका बक्सा व आलमारी खोलने का मन नहीं कर रहा है। मैं पाँच बहनों में अकेला भाई हूँ। इसलिए सोचता था कि माँ मुझे सबसे ज़्यादा प्यार करती है। पर उन्हें चिढ़ाने के लिए हमेशा कहता था कि आप बड़ी बहन बेबी जीजी को बहुत मानती हैं। वहीं आपकी सगी है। बाक़ी सब लोग मयभा हैं। पर माँ मेरे साथ नहीं रहीं मेरे पास नहीं रहीं।

बेबी जीजी के साथ नहीं रही। बेबी जीजी के पास नहीं रहीं। आप शशि के साथ चली गयीं। आपके जाने के बाद पता चला कि आप शशि को सबसे ज़्यादा प्रेम करती है। उसके बिना एक महीना भी नहीं रह पायीं। जिस शहर में वह शादी करके आयीं थीं। उसी शहर में आपने अपनी अंतिम यात्रा को विराम दिया। माँ को हम पछत्तर सालों में छक कर जी नहीं पाये। जानें क्यू? आपकी माँ हों तो छक कर जी लीजिए।

Vidushi Mishra

Vidushi Mishra

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