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युवाओं की घटती संख्या के बावजूद बेरोजगारी का संकट बरकरार

raghvendra
Published on: 6 July 2018 2:59 PM IST
युवाओं की घटती संख्या के बावजूद बेरोजगारी का संकट बरकरार
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प्रमोद भार्गव

दुनिया में शायद भारत ऐसा अकेला देश है, जहां युवाओं की घटती संख्या के बावजूद बेरोजगारी का संकट बरकरार है। जी हां, यह गल्प नहीं ठोस हकीकत है। फिलहाल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर देश भर के नेता यह दावा करते रहे हैं कि भारत एक युवा देश है क्योंकि हमारी 2011 की जनसंख्या के आंकड़ों के आधार पर बड़ी आबादी युवाओं की है। इससे यह अनुमान लगाया गया है कि यही वह वर्ग है, जो भारत के भविष्य का निर्धारण करेगा। इसी की बदौलत ये अटकलें लगाई गई हैं कि यही वह इंसानी धरोहर है, जिसके बूते भारत विकास यात्रा में विश्व का अग्रणी देश बन सकता है,लेकिन युवाओं की संभावनाओं से जुड़ा यह एकमात्र पहलू है, तथ्य नहीं। बल्कि इसके उलट भारत सरकार के ही ‘सांख्यिकी एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की रिपोर्ट में आकलन है कि भारत की आबादी में युवाओं की जनसंख्या घट रही है।

इस रिपोर्ट में 15 से 34 आयु वर्ग को युवा श्रेणी में रखा गया है। 2011 में इस आयु वर्ग का आबादी में हिस्सा 34.8 प्रतिशत था, जो 2021 की जनगणना में घटकर 33.5 प्रतिशत रह जाएगा और 2031 की जनगणना में यह भागीदारी घटकर 31.8 प्रतिशत रह जाएगी। दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह भी है कि युवाओं के घटते अनुपात के बावजूद हम पर्याप्त रोजगार के नए अवसर सृजित नहीं कर पा रहे हैं। ऐसे में यदि अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया, सिंगापुर और यूरोप के अन्य देशों में जिस तरह से वीजा-कानून सख्त हो रहे हैं, उनके नतीजतन यदि इन देशों से युवाओं की वापसी शुरू होती है तो देश भयावह बेरोजगारी के संकट से जूझ सकता है।

एक अर्से से यह सुनते-सुनते कान पकने लगे हैं कि हमारी युवा आबादी हमारे लिए डेमोग्रेफिक डिविडेंड की थीसिस के आधार पर लाभांश की तरह है। परंतु देश को इसका कितना लाभ मिल पाया है, इस पहलू पर विचार करना जरूरी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि युवाओं की शक्ति, उनकी क्षमता और श्रम का लाभ मिल सकता है, लेकिन यह तब संभव है जब हम उन्हें कुशल और सक्षम बनाने के साथ रोजगार के अवसर से जोड़ें। उनके उद्यमिता के क्षेत्र में कुछ नया करने के तरीकों को सरल करें। सरकारें और नेता युवा ताकत का गुणगान तो खूब करते हैं, लेकिन बात कुछ करने की आती है तो बगलें झांकने लगते हैं। मध्य-प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तीन माह पहले तक शिक्षाकर्मियों के 67,000 पद भरने का दावा कर रहे थे, किंतु ऐसा न करते हुए प्रदेश सरकार और स्वायत्तशासी सभी संस्थान के कर्मचारियों की उम्र 60 से बढ़ाकर 62 करके नए रोजगार के अवसर को बट्टेखाते में डाल दिया। ऐसा महज सेवारत कर्मियों को वोट-बैंक में बदलने की दृष्टि से किया गया। जबकि ये उम्रदराज कंप्यूटर तकनीक से अछूते हैं। कुछ ऐसे ही अतार्किक उपायों के चलते बेरोजगारी युवा पीढ़ी के लिए बड़ी समस्या बन गई है।

2001 की जनगणना के अनुसार 23 प्रतिशत युवा बेरोजगार थे, वहीं 2011 में इनकी संख्या बढक़र 28 प्रतिशत हो गई। 18 से 29 आयु वर्ग के जो स्नातक या इससे भी ज्यादा शिक्षित युवा है, उनमें बेरोजगारी का प्रतिशत 13.3 फीसदी है। मसलन प्रति एक करोड़ की आबादी पर 13 लाख 30 हजार लोग बेरोजगार हैं। तीन साल पहले उत्तर प्रदेश के विधानसभा सचिवालय में चपरासी के 368 पदों के लिए करीब 23 लाख आवेदन आए थे। इन आवेदकों विज्ञान, कला, वाणिज्य स्नातक के साथ इंजीनियर और एमबीए भी शामिल थे। 255 आवेदक पीएचडी थे। साफ है, उच्च शिक्षा मामूली नौकरी की गारंटी भी नहीं रह गई है।

इंटरनेशनल लेबर ऑर्गेनाइजेशन की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2017 में बेरोजगारी का आंकड़ा 11.83 करोड़ था, जो बढक़र 11.86 करोड़ हो गया है। वहीं एक मीडिया कॉन्क्लेव में जारी आंकड़ों के अनुसार र्वा 2016 की रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल 11.70 करोड़ युवा बेरोजगार थे। भारतीय श्रम ब्यूरो की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत दुनिया में सबसे ज्यादा बेरोजगार लोगों वाला देश है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश की लगभग 11 फीसदी आबादी बेरोजगार है, जो लगभग 12 करोड़ के करीब है।

भारत सरकार ने हाल ही में कुछ ऐसे नीतिगत फैसले लिए हैं, जिनसे आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों की चमक भी फीकी पड़ सकती है। आर्थिक रूप से संपन्न और ऊंचे पदों पर बैठे लोगों के दबाव में केंद्र सरकार ने 2020 तक इन संस्थानों में छात्रों की संख्या एक लाख कर देने का फैसला लिया है। जबकि फिलहाल इनमें 72,000 छात्र पढ़ रहे हैं। 2017 से प्रतिवर्ष आईआईटी में 10,000 सीटें बढ़ाने का सिलसिला शुरू हो गया है। इसके लिए छात्रों को छात्रावास में रहने की अनिवार्य शर्त भी खत्म कर दी है। हालांकि इन संस्थानों के बेहतर परिणाम बनाए रखने के लिए छात्र व शिक्षक अनुपात को भी ठीक किया जा रहा है। फिलहाल इनमें 15 छात्रों पर एक शिक्षक है, इसे अंतरराष्ट्रीय अनुपात का पालन करते हुए निकट भविष्य में 10 किया जाएगा। बीटेक के 1000 छात्रों को नए अनुसंधान के लिए शोधवृत्ति देने का भी प्रावधान किया है। वैसे भी जब इन संस्थानों की आधारशीला नेहरू और इंदिरा गांधी ने रखी थी तो इनका उद्देश्य यह था कि देश में प्रौद्योगिकी शोध को बढ़ावा मिले, ताकि देश स्वदेशी तकनीक में आत्मनिर्भर बने। लेकिन कालांतर में ये संस्थान अपने दायित्व से भटक गए।

अब जिन प्रतिभाओं ने देश से पलायन कर अमेरिका, ब्रिटेन, आस्ट्रेलिया और सिंगापुर जैसे देशों में नौकरियां हासिल की हुई हैं, उन पर वीजा नीतियों में कठोरता के चलते संकट के बादल मंडरा रहे हैं। तकनीकी विशेषज्ञों एवं वैज्ञानिकों पर शोध करने वाली संस्था राष्ट्रीय विज्ञान प्रतिष्ठान ने एक रिपोर्ट में बताया है कि अकेले अमेरिका में भारतीय वैज्ञानिक एवं तकनीकिशियनों की संख्या करीब 14 लाख है। बड़ी संख्या में भारतीय चिकित्सक भी अमेरिका में सेवारत हैं। इन प्रतिभाओं का लोहा अभी तक अमेरिका मानता रहा है, लेकिन अब ट्रंप सरकार ने वीजा नियमों में कुछ ऐसे प्रावधान किए हैं, जिन पर यदि अमल होता है तो स्पेशल वर्क परमिट का प्रावधान खत्म हो जाएगा। इससे लाखों प्रतिभाएं नौकरी से हाथ धो बैठेगीं और उन्हें बेरोजगारी की अवस्था में भारत लौटना पड़ सकता है। ऐसा होता है तो भारत में बेरोजगारी का संकट और भयावह हो जाएगा।

पलायन कर विदेश गयीं इन प्रतिभाओं के साथ संकट यह भी है कि ये भारत में उच्च शिक्षित होने के बाद पलायन करते हैं। इनके कौशल विकास पर देश के संसाधन खर्च होते हैं। इस संदर्भ में यह बड़ी विडंबना है कि इनका बौद्घिक विकास तो भारत में होता है, लेकिन ये बुद्घि का इस्तेमाल विदेशियों के लिए करते हैं। कमोबेश यही तथ्य उन युवाओं पर भी लागू होता है, जो भारतीय धन से पढ़ाई तो परदेश में करते हैं और फिर नौकरी भी वहीं करने लग जाते हैं। मसलन धन भारत का और लाभ परदेश का ? अब जो ताजा जानकारियां सामने आ रही हैं, उनसे यह भी पता चला है कि इन युवाओं को विदेशी धरती पर पैर जमाने के लिए घर, वाहन व अन्य सुविधाओं के लिए धन भी इनके अभिभावक भेज रहे हैं। गोया, जो यह दावा किया जा रहा है कि ये लोग देश के लिए विदेशी मुद्रा की भरपाई कर रहे हैं, उसमें अब संशय उत्पन्न होने लगा है। वैसे भी जो ताजा आंकड़े आए हैं, उनसे पता चला है कि देश में सबसे ज्यादा विदेशी मुद्रा केरल के वे लोग भेज रहे हैं, जो अरब देशों में मजदूरी व छोटे-मोटे अन्य काम करते हैं।

कमोबेश यही स्थिति यूरोपीय देशों में गए अन्य भारतीयों के साथ जुड़ी है। इन देशों से भी वे लोग ज्यादा धन भारत भेज रहे हैं, जो असंगठित क्षेत्र का हिस्सा बनकर टैक्सी चालन, विद्युत, नल फीटिंग और जनरल स्टोर जैसे छोटे कार्य कर रहे हैं।

(लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं)



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राघवेंद्र प्रसाद मिश्र जो पत्रकारिता में डिप्लोमा करने के बाद एक छोटे से संस्थान से अपने कॅरियर की शुरुआत की और बाद में रायपुर से प्रकाशित दैनिक हरिभूमि व भाष्कर जैसे अखबारों में काम करने का मौका मिला। राघवेंद्र को रिपोर्टिंग व एडिटिंग का 10 साल का अनुभव है। इस दौरान इनकी कई स्टोरी व लेख छोटे बड़े अखबार व पोर्टलों में छपी, जिसकी काफी चर्चा भी हुई।

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